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घोषणा पत्रों पर अमल का कानून बने, दलों के घोषणा पत्रों का पंजीयन हो

bhupesh baghel

भारत के सर्वोच्च न्यायालय में भाजपा नेता अश्विनी उपाध्याय ने चुनाव में मुफ्त चीजें देने के वायदा करने के खिलाफ याचिका दायर की है। सुप्रीम कोर्ट के माननीय न्यायाधीश ने भी याचिका को सुनवाई के लिए स्वीकार करते हुए केन्द्र सरकार को चार सप्ताह में उत्तर देने को कहा है। इसके साथ ये भी टिप्पणी की है कि ‘‘चुनाव में मुफ्त देेने के मामला गंभीर मसला है, जो मतदाताओं को प्रभावित करता है। ये भी कहा गया है कि मुफ्त देने के वायदे से चुनाव की निष्पक्षता प्रभावित होती है’’।

पिछले कुछ समय से न्यायपालिका के सुप्रीमकोर्ट और हाईकोर्ट ने काफी सख्त रवैया अख्तियार करते हुए यह नीति बनाई हुई है कि याचिका स्वीकार करने के पूर्व उसे काफी कठोर कसौटियां पार करना होगी। अनेक मामलों में तो सुप्रीमकोर्ट ने इस आधार पर याचिकाओं को खारिज कर दिया कि इनका उद्देश्य प्रचार पाना है। परन्तु श्री अश्विनी उपाध्याय निरंतर कुछ वर्षों से विभिन्न विषयों पर याचिकाऐं दायर करते रहे है और सर्वोच्च न्यायालय उनके प्रति इतना उदार तो है कि उसने उनकी याचिकाओं को सुनवाई के लिए स्वीकारा और प्रचार पाने या अदालत का समय वर्वाद करने के नाम पर याचिकाऐं खारिज नहीं की।

यह भी समाचार आया है कि सुप्रीम कोर्ट ने इस मामले में 8 वर्ष पहले ही चुनाव आयोग को गाईड लाईन्स बनाने को कहा था। परन्तु चुनाव आयोग ने एकाध वार विभिन्न राजनैतिक दलों की बैठक कर केवल खानापूर्ति की।

याचिका में मुफ्त देने के वायदे याने वोटरों को लुभाने के लिए राजनैतिक दलों द्वारा मुफ्त देने के वायदों में बिजली पानी फ्री देने, पंजाब में आम आदमी पार्टी द्वारा 18 वर्षं से अधिक उम्र की महिलाओं को 1000/- रू0 देने तथा शिरोमणी अकाली दल और कांग्रेस पार्टी द्वारा महिलाओं को 2000/- रू0 प्रतिमाह देने, 10वी पास करने पर 15000/- और 12वी पास करने पर 20000/- तथा स्कूटी देने का वायदा किया गया है। कतिपय समाचार पत्रों में सुप्रीम कोर्ट की कार्यवाही के साथ यह क्षेपक भी जोड़े है कि यूनाईटेड स्टेट में गिफ्ट पर वेन लगा हुआ है। और बेनेन्जूला इस लिए आर्थिक रूप से वर्वाद हो गया क्योंकि उन्होंने पब्लिक ट्रांसपोर्ट मुफ्त कर दिया। जबकि उसके पहले बेनेन्यजूला अमीर था।

मुफ्त सामान व सुविधा देने के नाम पर जो पैसा खर्च होगा, उसकी व्यवस्था करना उन राजनैतिक दलों का काम है जो ये वायदा करते हैै और उसे स्वीकार करना या अस्वीकार करना जनमत का अधिकार है। इसमें कोर्ट की भूमिका कही नहीं आती। यह याचिका कितनी पक्षपात पूर्ण है, इसे इससे ही समझा जा सकता है कि याचिका कर्ता ने जितने भी उदाहरण दिये है वे सभी गैर भाजपा दलों के है।

लोकसभा चुनाव के पहले किसानों के खातों में 6000/- रू0 प्रतिवर्ष भेजने की घोषणा मोदी सरकार ने की थी यह कोई क्षतिपूर्ति नहीं सीधा रूपया देना था क्या यह मुफ्त नहीं है? इसी प्रकार पिछले चुनाव के पूर्व उज्वला योजना के नाम मुफ्त गैस कनेक्शन सिलेण्डर सहित बांटे गये थे, क्या यह मुफ्त देना नहीं था ? और तब अश्विनी उपाध्याय जी को कोई आपत्ति नहीं हुई। ये तो मैंने मात्र एक-दो उदाहरण दिये वरना ऐसे भाजपा तथा अन्य दलों के अनेको उदाहरण दिये जा सकते है। पिछले उत्तरप्रदेश विधानसभा चुनाव के पहले किसानों की कर्ज माफी की घोषणा की गई थी। क्या यह घोषणा किसानों को लुभाने के लिए नहीं थी।

चुनाव में जनता के लिऐ किये जाने वाले वायदे राजनैतिक दलों का वैधानिक अधिकार है और कई बार चुनाव पूर्व की घोषणाओं से सामान्य लोगों को अथवा गरीब लोगों को राहत भी मिली है। बिहार और अन्य कई प्रदेशों में लड़कियों को छात्रवृत्ति व साईकिल दिये जाने से लाखों बेटियां अपने घरों से कई किमी0 दूर जाकर पढ़ सकी है और शिक्षित हुई है। सामूहिक विवाह योजना से अमूमन देश के सभी राज्यों में अपने बेटियों के हाथ पीले करने की सुविधा मिली है। म0प्र0 और कई राज्यों में लाड़ली लक्ष्मी योजना, सुकन्या समृद्धि योजना आदि की वजह से जन्म के बाद लड़कियांे का स्वागत होने लगा है। और अब बेटियां माता पिता को बोझ नहीं लगती और इससे भू्रण हत्याओं पर रोक लगी है। साथ ही लैगिक अनुपात में भी सुधार आया है।

बेनेन्जूला का जो उदाहरण दिया जा रहा है वह भी पूंजीवादी व्यवस्था का तर्क है। जब बेनेन्यजूला में अमेरिका परस्त पूंजीवादी सरकार हार गयी और समाजवादी विचारों की सरकार आई तो पूंजीवादी मीडिया के माध्यम से उस सरकार के खिलाफ अभियान छेड़ दिया गया। क्योंकि अमेरिका के हित प्रभावित हुए थे और लूट बंद हुई थी। यह कहानी अकेले बेनेन्यजूला की नहीं है, बल्ेिक लगभग समूचे लेटिन अमरीकी देशों में जब जब जनता ने परिवर्तन किया अमेरिका की पिठ्ठू सरकारों को हटाया और समाजवादी या वामपंथी सरकारों को लाया तब पूंजीवादी मीडिया बैचेन हो उठा। उसने उन देशों की सरकारों पर सुनियोजित झूठ फैलाने का अभियान चलाया। जबकि तथ्य यह है कि उन बदली हुए सरकारों ने आम जनता के हित में कदम उठाये थे। बेनेन्जूला और अन्य देशों की आर्थिक अवस्थायें सुधरी थी। क्योकि अमेरिका की लूट को बंद कर दिया गया था।

यह किसी से छिपा नहीं है कि अमेरिका और यूरोप के देश अपने देशों में बहुत बड़ी धनराशि कृषि अनुदान, दुग्ध अनुदान के रूप में देते है। एक-एक हेक्टेयर जमीन पर बीस-बीस लाख रू0 का अनुदान देते है। परन्तु अगर दुनिया के दूसरे गरीब देश अनुदान देना शुरू करते है तो न केवल पूंजीवादी मीडिया अन्तर्राष्ट्रीय मुद्रा कोष, वल्र्ड बैंक आदि अमेरिका की ओर पूंजीवादी दुनिया की पिटटू संस्थायें अनुदान के खिलाफ बोलना शुरू कर देती है। वरन् अनुदान से अर्थ व्यवस्था चैपट हो जायेगी – देश भिखारी हो जायेगा – जैसे जुमले और पाठ शुरू हो जाते है। परन्तु जब उन्हीं के देशों की सरकार आईएमएफ और वल्र्ड बैंक तथा पूंजीवादी समृद्ध दुनिया के दबाव में कारपोरेट पर टैक्स कम करती है तब लाखों करोड़ों रूपया कारपोरेटों की तिजोड़ी में जाता है उस वक्त कोई घाटा नहीं बताया जाता है। और न ही अर्थ व्यवस्था पर कोई शिकन आती है। बल्कि इन गुलाम सरकारों की तारीफ में कसीदे पड़े जाते है। उनकी अर्थव्यवस्थाओं को विकासशील, उन्नत जैसे प्रशंसा पत्र बाटे जाते है।

दरअसल सुप्रीमकोर्ट या चुनाव आयोग को चिन्ता का विषय मुफ्त देने के बायदे नहीं होना चाहिए। इनमें हस्तक्षेप करना अलोकतांत्रिक, असंवैधनिक, न्यायिक तानाशाही और वैश्विक पूंजीवाद का नियंत्रण होगा। सारी दुनिया में अब पूंजीवाद लोकतांत्रिक सरकारों को लोकप्रिय कार्यक्रमों से हटाना चाहती है ताकि संबंधित देशों का पैसा उनकी लूट खसोट के लिए बचा रहे।

लंदन के इकनामिस्ट अखबार ने कई माह पहले एक बड़ा लेख छापकर यह अभियान शुरू किया था और यहां तक कहा था कि लोकतांत्रिक सरकारों से बेहतर तो साम्यवादी देशों की तानाशाही सरकारें है जो उनके अनुसार पापुलिस्ट प्रोग्राम को बाध्य नहीं रहती। क्योंकि उन्हें उस प्रकार से चुनाव में जाने की बाध्यता और हार का खतरा नहीं होता। यह सुविदित तथ्य है कि रूस और चीन दोनांे साम्यवादी दलों की तानाशाही द्वारा शासित घोर पूंजीवादी देश है। इकानामिस्ट का यह लेख पंूजीवादी दुनिया की ओर से उनके घोषित – अघोषित अथवा चिन्हित – अचिन्हित सेवकों के लिए अभियान छेड़ने का संकेत था।

श्री अश्विनी उपाध्याय की याचिका और इस अभियान के बीच क्या संबंध है ये तो वहीं बता सकते है? पर यह याद रखना होगा कि पिछले 7 वर्षो में नरेन्द्र मोदी सरकार ने डीजल, पेट्रोल गैस, दवा और अन्य सामाजिक सेवाओं यथा रेलवे, चिकित्सा, शिक्षा आदि में सरकार की हिस्सेदारी को कम करके एकतरफ तो आम जनता पर बोझ़ बढ़ाया है और दूसरी तरफ सार्वजनिक क्षेत्रों को क्रमशः बंद कर निजी क्षेत्र का मार्ग खोला है। पंूजीवाद का सिद्धांत ही है कि जीने का अधिकार केवल ताकतवर को है। वर्ष 2022 के केन्द्र के आम बजट में भी एक तरफ कारपोरेट पर 3 प्रतिशत टक्स कम किया गया है, तथा दूसरी तरफ आम जनता के लिये दिये जाने वाले अनुदानों में कटौती कर दी गई है।

अगर वास्तव में भारतीय सर्वोच्च न्यायालय और केन्द्रीय चुनाव आयोग को लोकतांत्रिक चुनाव प्रणाली को सुधारना है और उसकी विश्वसनीयता कायम रखना है तो यह कानून बनाना चाहिए कि राजनैतिक दलों के घोषणा पत्र और वायदे चुनाव आयोग में पंजीकृत किये जायेगे और अगर कोई दल निर्धारित समय सीमा या अधिकतम 5 वर्ष के अन्दर अपना वायदा पूरा नहीं करता तो उसका पंजीयन तथा मान्यता रद्द कर दी जायेगी।

साथ ही उन दलों के जो मुखिया सत्ता के मुखिया चुने जाते है उन्हें भी आगामी चुनाव लड़ने के लिए अयोग्य घोषित किया जावेगा। इस कानून को न्यायपालिका के अधिकार क्षेत्र में रखा जाना चाहिए कि अगर चुनाव आयोग अपने वैधानिक कर्तव्य को पूरा न करे तो कोई भी नागरिक उच्चतम न्यायालय में जाकर निःशुल्क याचिका दायर कर सकता है तथा न्यायपालिका तत्संबंधी आदेश जारी करे। लोकतांत्रिक समाज वादी पार्टी पिछले दो दशक से घोषणा पत्र के पंजीयन की मांग उठा रही है ताकि राजनैतिक दल एवं निर्वाचित सरकारें उत्तरदायी बन सके।

आज जब हम संविधान प्रदत्त गणतंत्र दिवस का उत्सव मना रहे है क्या हमें अपने गणतंत्र को सच्चा गणतंत्र बनाने के लिए इन जरूरी प्रश्नों पर विचार नहीं करना चाहिए?

दिनांक: 11.02.2022 रघु ठाकुर
लोहिया सदन, जहाँगीराबाद, भोपाल
म्उंपस रू तंहीनजींानत10/लंीववण्पद
डवइण्छवण् रू 9425171797

 

 

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