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उत्तराखंड में समय ने खुद को दोहराया, सत्ता पलटने में माहिर त्रिवेंद्र रावत की कुर्सी गई

देहरादून: समय कैसे खुद को दोहराता है इसके लिए पृष्ठभूमि पर गौर करना होगा. त्रिवेंद्र सिंह रावत एक समय भगत सिंह कोश्यारी कैंप के ‘लेफ्टिनेंट’ होते थे. खंडूरी की सरकार को अस्थिर करने के लिए भगत सिंह कोश्यारी ने त्रिवेंद्र से 2008 में ही अभियान चलाने को कहा. उस समय भी त्रिवेंद्र के नेतृत्व में विधायकों की खंडूरी के ख़िलाफ़ ऐसी ही दिल्ली दौड़ हो रही थी जैसी आज उनके ख़िलाफ़ हो रही थी. अंतत: 2009 में कोश्यारी अपने ‘लेफ्टिनेंट’ त्रिवेंद्र सिंह रावत और दिवंगत प्रकाश पंत के सहारे सत्ता पलटने में कामयाब रहे.

हालांकि उस समय भी भगत सिंह कोश्यारी को पार्टी ने सत्ता की कमान देने से इंकार कर दिया और खंडूरी ने निशंक की पीठ पर हाथ रख दिया और निशंक मुख्यमंत्री बन गए. लेकिन भगत कैम्प ने फिर निशंक को हटाने का अभियान छेड़ा, लेकिन इस बार तस्वीर बदली हुई थी. सत्ता पाने के बाद निशंक ने खंडूरी की अनदेखी शुरू कर दी जिससे वो बहुत आहत हुए. लेकिन उनकी यह पीड़ा और भगत सिंह कोश्यारी की महत्वकांक्षा दोनों को नजदीक ले आई. इसी बीच कट्टर राजनीतिक शत्रु रहे भगत सिंह कोश्यारी और खंडूरी ने हाथ मिला लिया और निशंक को हटाने के लिए जंग शुरू हो गयी.

इस बार निशंक को हटाने के लिए भी भगत सिंह कोश्यारी ने यह जिम्मेदारी त्रिवेंद्र सिंह रावत और प्रकाश पंत को दी. अंतत: निशंक को हटवाकर 2011 में फिर से खंडूरी की ताजपोशी की है. भगत और खंडूरी के बीच में यह संधि हुई थी कि निशंक को हटाकर फिलहाल खंडूरी और चुनाव जीतने के बाद कोश्यारी मुख्यमंत्री बनेंगे.

इसीलिए वो चुनाव दोनों के नेतृत्व में लड़ा गया लेकिन बीजेपी एक सीट से पीछे रह गयी और सरकार कांग्रेस की बन गयी. लेकिन यहां यह महत्वपूर्ण है कि पूर्व में अपनी ही बीजेपी की सरकार को अस्थिर करने वाले त्रिवेंद्र सिंह रावत को भी उसी तरह से बीच में हटना पड़ा जैसे वो दूसरो को हटाते आये थे. इसलिए इस आज समय ने खुद को दोहराया है.

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