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ऐसे पद्मभूषण का क्या लाभ ?

पद्मभूषण पंडित राजन मिश्र न राजकुमार बंसल की तरह साधारण आदमी थे और न इतने अनाम कि उन्हें पद्मभूषण देने वाली सरकार सांस लेने के लिए आक्सीजन का एक सिलेंडर तक मुहैया नहीं करा सकी । कोविड-19 ने हमसे राजन मिश्र को ऐसे छीन लिया जैसे कोई दिन-दहाड़े किसी को धक्का मारकर किसी के गले से कंठहार छीन ले । प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी को उनके यूं असहाय होकर जाने के लिए शोक जताने के बजाय देश से माफी मांगना चाहिए ।

राजन मिश्र हिन्दुस्तानी संगीत की ऐसी चोखी महक थे जो कोसों तक उसी ऑक्सीजन की तरह व्याप्त हो जाती थी जो संगीत रसिकों को नवजीवन देती थी । मिश्र बंधुओं की इस जोड़ी को परिभाषित करना बहुत आसान नहीं है,उन्हें केवल सुनकर ही समझा जा सकता था। संगीत की राजधानी ग्वालियर का वासी होने के कारण मुझे ये सौभाग्य था कि मैंने राजनमिश्र को उनके भाई साजन के साथ युवा वस्था में ही सुन लिया था। राजन मिश्र की भारत में पहली प्रस्तुति कहाँ हुई ये मुझे नहीं पता लेकिन आज से कोई चार दशक पहले मैंने उन्हें ग्वालियर की कला बीथिका में सुना था । तब से अब तक गंगा में न जाने कितना पानी बह चुका है ।

कोविड ने हमसे राजन मिश्र नहीं छीना बल्कि भारतीय शास्त्रीय संगीत की एक ऐसी विरासत छीन ली जिसके लिए सिर्फ और सिर्फ आज का सिस्टम, आज की बेशर्म सत्ता जिम्मेदार है। मेरा बस नहीं चलता वरना इस जघन्यता के लिए मै इस सिस्टम के चेहरे पर थूक कर अपना गुस्सा प्रकट करता ,लेकिन अच्छा ये है कि सिस्टम का कोई एक चेहरा नहीं है सिस्टम बहुरूपिया है समय के साथ अपना रंग,ढंग बदलता है, उसे इस बात से कोई फर्क नहीं पड़ रहा है कि ऑक्सीजन की कमी से मरने वाला कोई आम आदमी है या किसी सांस्कृतिक विरासत का उत्तराधिकारी/संवाहक या देश के श्रेष्ठतम नागरिक अलंकरण पद्मभूषण को धारण करने वाला कोई और । दिल्ली में राजन मिश्र भी वैसे ही ऑक्सीजन के अभाव में तड़फ-तड़फ कर मरे जैसे ग्वालियर में भाजपा के एक वरिष्ठ नेता राजकुमार बंसल, बंसल जी को कोई नहीं जानता होगा लेकिन राजन मिश्र को तो सब जानते थे, लेकिन सिस्टम किसी को पहचानता ही नहीं है। सिस्टम परदे के पीछे से संचालित होता है उस पर कोई वार नहीं कर सकता सिस्टम से कोई सवाल नहीं कर सकता सिस्टम आखिर सिस्टम है अजेय,अमोघ अलीक ,अधम .आप सिस्टम के आगे-पीछे चाहे जितने अलंकार,प्रत्यय लगा लीजिये उसका कुछ बिगड़ने या बनने वाला नहीं है ।

सिस्टम के लिए आदमी एक अंक है मरने वाले राजन मिश्र हैं या नरेंद्र कोहली या कोई न्यायाधीश या राजकुमार बंसल इससे कोई फर्क नहीं पड़ता वे सब 195116 उन लोगों में शामिल हैं जिन्हें कोविड-19 अब तक लील चुका है । सिस्टम के लिए हर मौत एक नीयति है .सिस्टम के पास इसे रोकने के लिए न अस्पताल हैं,न डाक्टर हैं, न दवाएं हैं, न आक्सीजन है और तो और इन सबके न होने के लिए कोई शर्म भी नहीं है कोई खेद या लज्जा भी नहीं है। सिस्टम के चेहरे के हाव-भाव उसके इर्द-गिर्द उगा श्वेत केशों का जंगल छिपा लेता है ।

सच मानिये आज जीवन के 62 वर्ष पूरे होने के मौके पर मेरे मन में अपने होने या न होने का कोई अहसास है ही नहीं मुझे लगता है कि मेरे होने या न होने से सिस्टम पर कोई फर्क नहीं पड़ने वाला। मै भले रोज आम जनता के सुर में अपना सुर मिलकर गागरोनी गाता रहता हूँ किन्तु इसका कोई अर्थ नहीं है सिस्टम प्रतिरोध से डरना भूल चुका है सिस्टम प्रतिरोध से दूर भगवान से भी नहीं डरता और जो भगवान से नहीं डरता वो किसी से भी नहीं डरता। डर सिस्टम के शब्दकोश में होता ही नहीं है पिछले कुछ सालों में सिस्टम और ज्यादा निडर हुआ है। सिस्टम जो चाहे सो कर सकता है और जो न चाहे नहीं करता ।

कोविड-19 आने वाले दिनों में पता नहीं कितने आम और ख़ास लोगों की बलि लेगा लेकिन सिस्टम का हृदय पसीजने वाला नहीं है। आने वाले दिनों में आपके जीवन के लिए सिस्टम रत्ती भर जिम्मेदार नहीं है आप किए या मरें, ये आपकी किस्मत है .सिस्टम की इसमें कोई भूमिका नहीं है सिस्टम आहों,कराहों,चीखों रुदन और आंसुओं से आहत नहीं होता। सिस्टम वैराग्य की स्थिति में है, उसके लिए सब एक समान है अब ये आपके ऊपर है की आप इसी सिस्टम में रहें या इसे बदल लें सिस्टम बदलने के लिए घर में बैठने से बात नहीं बनने वाली जो जहाँ, जिस भूमिका में है वहां अपना काम करना शुरू कर दे तो शायद सिस्टम बदल जाये। अब सिस्टम के सुधरने के दिन गए बदलाव ही अंतिम विकल्प है।

ग्वालियर में जिन राजन मिश्र को बीते साल हमने तानसेन सम्मान से अलंकृत किया था, वे अनंत में विलीन हो चुके हैं। वे सिस्टम को गरियाने या सिस्टम की शिकायत करने नहीं आएंगे लेकिन जो बचे हैं उन्हें राजन मिश्र या उन जैसे असंख्य लोगों की शिकायत को आगे बढ़ाना चाहिए । हर वो दरवाजा खटखटाना चाहिए जहां से न्याय मिलने की रत्ती भर भी उम्मीद हो ‘मौत का एक दिन मुअय्यन है’ मानकर चलने से बात नहीं बनेगी। मौत का दिन तय होता है किन्तु तब जब दवा हो,डाक्टर हो ऑक्सीजन हो, लेकिन जब ये कुछ नहीं है तब मौत को क्या दोष देना,उसे तो चाहे,अनचाहे अपना काम करना ही पड़ेगा .इस अयाचित मौत का सारा जिम्मा सिस्टम का है आप में साहस है तो लड़िये, जूझिये इस सिस्टम से।.इसमें आपकी विचारधारा कहाँ आड़े आ रही है । सिस्टम की ही जब कोई विचारधारा नहीं है तो फिर आप कहाँ लगते हैं ?

हम देश के प्रधानमंत्री जी के आभारी हैं की वे इन दुर्दिनों में भी अपनी पूरी ताकत से काम कर रहे हैं, उन्हें भी सारा दोष सिस्टम का ही नजर आता है लेकिन वे अकेले क्या करें ?पूरा सिस्टम एक तरफ यही और वे एक तरफ उन्हें सिस्टम बदलने के लिए एक और जनादेश चाहिए वे जनादेश के बिना कुछ नहीं करते और जो करते हैं उसके लिए उन्हें जनादेश की जरूरत नहीं पड़ती । उन्होंने अब तक जो किया है वो सब जनादेश से नहीं किया, हाँ जनहित में जरूर किया है आप माने या मेरी तरह न मानें। प्रधानमंत्री जी को कोरोना काल में अद्वितीय साहस का प्रदर्शन करने के लिए अगला भारतरत्न सम्मान दिया जाना चाहिए। आजादी के बाद वे पहले पंत प्रधान हैं जिनकी दाढ़ी-मूछ जनहित की चिंता करते न सिर्फ बढ़ी है बल्कि काली से सफेद भी हो गयी है । त्याग का ये अनुपम उदाहरण है।

लेखक – राकेश अचल

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