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तराजू और तलवार के विरुद्ध तिलक पर दांव

सियासत पासों का खेल है.इसमें समय-समय पर पांसे बदलने पड़ते हैं.बसपा यानि बहन मायावती की बहुजन समाज पार्टी ने भी उत्तर प्रदेश में योगी आदित्यनाथ का मुकाबला करने के लिए इस बार उसी तिलक को अपने माथे पर लगाने का ऐलान कर दिया है ,जिसे वे अतीत में चार जूते मारने की सीख देती थी.अब बहन जी भाई योगी आदित्यनाथ से ब्राम्हणो और राम मंदिर जैसे प्रतीकों के सहारे लड़ेंगी .इसे आप ‘ कांटे से कांटा निकालना’ या ‘लोहे से लोहा काटना’ भी कह सकते हैं.

बहन मायावती देश में इस समय दलितों की स्वयंभू नेता हैं .अब राजनीति में कोई वर्ग या समाज अपना नेता चुनता नहीं है,उस पर नेता खुद लद जाते हैं .बहन जी की ही तरह बिहार के स्वर्गीय रामविलास पासवान भी दलितों के नेता थे लेकिन उन्होंने दलित प्रेम के चलते अपनी दलित पत्नी को त्याग कर एक ब्राम्हण युवती से भाँवरे डाल ली थीं .ये ठीक वैसा ही मामला है जैसे अल्पसंख्यकों को हिन्दू युवतियां निकाह के लिए मुस्लिम लड़कियों के मुकाबले ज्यादा माकूल लगती हैं .मै ये तमाम उदाहरण केवल सन्दर्भ के तौर पर दे रहा हूँ.मेरा इस तरह के अंतर् संबंधों से कोई दुराव नहीं है.मै तो ऐसे रिश्तों को बहुत इज्जत की निगाह से देखता हूँ.

बात यूपी और यूपी आधारित उस बहुजन समाज पार्टी की हो रही है जो 37 साल बाद भी एक राष्ट्रीय दल के रूप में अपनी पहचान नहीं बना पायी.ये दूसरे दलों जैसा ही दल है जिसका नेता कभी बदला ही नहीं गया .संस्थापक स्वर्गीय कांशीराम के बाद मायावती ही बसपा की सर्वे-सर्वा हैं .शायद इन तीन दशकों में देश में कोई दलित नेता पैदा ही नहीं हुआ .चार बार सत्ता का सुख भोग चुकी बहन मायावती अतीत में भी तिलक के सहारे अपनी डगमग नाव को पार लगा चुकी हैं.

देश में जासूसी और अखबारों पर छापामारी के बीच बहुजन समाज पार्टी अयोध्या से अपने इस अभियान का श्रीगणेश कर चुकी है बसपा की हार्ड डिस्क और दल के ब्राम्हण नेता सतीश चंद्र मिश्रा ने अयोध्या में ब्राम्हणों से यहां तक कह दिया कि अब ब्राम्हणों से हुए ‘एनकाउंटरों’ का बदला लेने का समय आ गया है.[ब्राम्हणों के एनकाउंटरों की कहानी फिर कभी] .इस बार बसपा ने ब्राम्हणों से जुड़ने के लिए अपने अभियान को फिलहाल प्रबुद्ध वर्ग से संवाद बताया है .बसपा ने चारा डाला है कि यदि ब्राम्हणों का साथ मिला तो न सिर्फ यूपी में बसपा की सरकार बनाई जा सकती है बल्कि अयोध्या में भव्य राम मंदिर का निर्माण भी किया जा सकता है.

भाजपा और पूर्व में सपा की सत्ता में उत्पीड़न का समाना कर चुके ब्राम्हण समाज के सामने इस समय रास्ते सीमित हैं. वे भाजपा या सपा में रह सकते हैं लेकिन मुंह पर पट्टी बांधकर या सीने पर पत्थर रखकर .बसपा का साथ देने से उन्हें सुरक्षा तो मिल सकती है ,लेकिन सम्मान उतना ही मिलेगा जितना अतीत में मिल चुका है .अतीत में बसपा ने अपनी सरकार में ब्राम्हणों को हिस्सेदार बनाया था लेकिन उतना ही जितना की दाल में ‘बघार’ के लिए ‘राई’ की भागीदारी होती है.बुंदेलखंड में एक कहावत है कि जब एक के पास हड़िया हो और दूसरे के पास पारा[ढक्क्न] हो तो उन्हें समझौता करना ही पड़ता है .आज उत्तर प्रदेश के ब्राम्हणों और दलितों की दशा ऐसी ही है.

देश के सबसे बड़े राज्य उत्तर प्रदेश में टुकड़ों में करीब सात साल सत्ता सुख भोग चुकी बसपा के लिए आगामी विधानसभा चुनाव ‘करो या मरो ‘जैसे होंगे बसपा 2012 से सत्ता से दूर है ,और लगातार सत्ता से उसकी दूरियां बढ़ती ही जा रही हैं .बसपा का वोट बैंक भी इन दस सालों में तितर-बितर होता दिख रहा है .वोट बैंक को साधने के साथ ही अपना राजनीतिक भविष्य बचाने के लिए अब बसपा के लिए सत्ता बहुत आवश्यक हो गयी है ,लेकिन बीते 500 दिनों में भाजपा के मुख्यमंत्री योगी आदित्यनाथ ने सत्ता पर ऐसी पकड़ बना ली है कि अब बहन जी को दिन में तारे दिखाई दे रहे हैं.

इतिहास बताता है कि ‘तिलक’,’तराजू’ और ‘तलवार’ को चार जूते मारने का नारा देने वाली बसपा ब्राम्हणों की कटटर विरोधी रही है किन्तु जब उसे सत्ता से छिटका गया था तो उसने ब्राम्हणों को लालीपाप थमाकर एक बार फिर अपना उल्लू सीधा कर लिया था .2022 के विधानसभा चुनावोंमें बसपा एक बार फिर गाय की पूछ [ब्राम्हणों ] पकड़कर चुनावी वैतरणी पार करना चाहती है .यूपी की सत्ता हासिल किये बिना बसपा 2024 में लोकसभा चनावों का समाना भी नहीं कर सकती .आज भी यूपी से ही बसपा के पास लोकसभा में सर्वाधिक 10 सांसद हैं .

यूपी के मौजूदा परिदृश्य में विधानसभा चुनावों में मुकाबला त्रिकोणीय ही होगा .सत्तारूढ़ भाजपा को बसपा और सपा के मुकाबले खड़ा होना है.

कांग्रेस को पैरों पर खड़ा करने के लिए श्रीमती प्रियंका बाड्रा बीते कुछ वर्षों से लगातार काम कर रहीं हैं लेकिन उनकी पार्टी अभी भी मुकाबले से काफी दूर है.कांग्रेस भी बाबू जगजीवन राम के बाद कोई मजबूत दलित नेता पैदा नहीं कर पाई .कम से कम यूपी में तो नहीं कर पाई,यही वजह है कि आज यूपी में बसपा है ,भीम सेना है यूपी में हाल में हुए पंचायत चुनावों से भी इसके संकेत मिल चुके हैं .राज्य में भाजपा को हराने या सत्ताच्युत करने के लिए बसपा,सपा और कांग्रेस में ‘एका’ होना जरूरी है. इन तीनों दलों में से एक भी दल ऐसा नहीं है जो अपने बलबूते पर भाजपा को सत्ताच्युत कर सके .हाँ बसपा की तुरुप चली और ब्राम्हण वोटर बसपा के साथ खड़े हुए तो कोई चमत्कार मुमकिन है.

देश की राजनीति में इस समय सभी राजनीतिक दल ‘काठ की हांडी’ जैसे हैं .जो आग पर चढ़ने के लिए तैयार तो हैं लेकिन उनके जलने के खतरे लगातार मौजूद हैं. ये ‘काठ की हांडियां’ एक ही सूरत में अपनी रक्षा कर सकती हैं जब चूल्हे की आंच को कम-ज्यादा करने की तकनीक इनके पास हो .यूपी की बदकिस्मती है कि उसकी कमान बीते पांच सौ दिनों से एक ऐसे राजनेता के पास है जो विधानसभा से चुनकर नहीं आया .विधानपरिषद से उसे भेजा गया है .यूपी का ये चोर दरवाजा बीते सत्तर साल में किसी ने भी बंद करने की कोशिश नहीं की,क्योंकि ये सभी के लिए मुफीद है. बहन मायावती हों या अखिलेश यादव सभी इस दरवाजे का इस्तेमाल कर चुके हैं.

मुझे लगता है कि आने वाले विधानसभा चुनाव में बसपा का ब्राम्हण प्रेम भाजपा को भी रणनीति बदलने पर विवश कर सकता है. मुमकिन है कि एन मौके पर भाजपा योगी जी को वापस ‘मठ’ में भेजकर किसी नए चेहरे को सामने ले आये या फिर पूरा चुनाव महामना प्रधानमंत्री श्री नरेंद्र मोदी जी के नाम पर लड़े .देश की राजनीति को जातिवाद के चंगुल से मुक्त करने का जब भी समय आता है जातिवाद का शेषनाग अपने सहस्त्र फन फैलाकर खड़ा हो जाता है .यूपी इसका उदाहरण है.@ राकेश अचल

 

 

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