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आशा पारेख :अभिनय के अतीत को सम्मान

aasha bhosale

एक कम अस्सी की आशा पारेख को साल 2020 का दादा साहेब फाल्के सम्मान दिए जाने की घोषणा से आशा पारेख के असंख्य प्रशंसक खुश हैं,ये सम्मान उनकी जगह वहीदा रहमान को मिलता तो शायद ये ख़ुशी और ज्यादा होती ,क्योंकि वे आशा पारेख से हर मायने में अग्रणीय अभिनेत्री हैं .बहरहाल पुरस्कारों की राजनीति में ये हमेशा से होता आया है ,होता रहेगा,फिलहाल हमें किसी विवाद के बजाय आशा पारेख के फ़िल्मी योगदान पर बात करना चाहिए ।

आशा पारेख मौजूदा पीढ़ी के लिए एक अनजान नाम हो सकती हैं लेकिन हमारी पीढ़ी के लिए वे एक सदाबहार अभिनेत्री हैं. आशा पारेख को अभिनय करते 72 साल हो गए,वे 1952 से अभिनय कर रहीं हैं ,अब तो उन्हें अभिनय छोड़े ही कोई एक चौथाई सदी हो गयी है.लेकिन वे आज भी सार्वजनिक जीवन में सक्रिय हैं. 79 साल की आशा पारेख उस जमाने की अति लोकप्रिय अभिनेत्री हैं जिस जमाने में वहीदा रहमान का जादू भी सर चढ़कर बोलता था. दोनों के बीच एक अघोषित प्रतिस्पर्द्धा थी ,जो सांयोग से फिल्म जगत के सर्वोच्च पुरस्कार तक रही ।

आशा पारेख को दादा साहब पुरस्कार

आशा पारेख को दादा साहब पुरस्कार मिलने पर कुछ लोगों ने कहा कि उन्हें ये पुरस्कार गुजराती होने की वजह से मिला,जबकि ये पुरस्कार यदि किसी महिला को ही देना था तो वहीदा रहमान आशा के मुकाबले ज्यादा उचित नाम होता ,मुझे नहीं लगता कि दादा साहब पुरस्कार की चयन समिति ने इस नजरिये से फैसला किया होगा.मान लीजिये की यदि किया भी हो तो कोई क्या कर सकता है ? फिर भी आशा पारेख ऐसा नाम भी नहीं हैं जो दादा साहब पुरस्कार के लायक ही न हों ,आशा 79 की हैं और वहीदा जी 84 की ,पुरस्कार देने में ये भूल-चूक होती है ।

आशा पारेख की फ़िल्में एक जमाने में सफलता की गारंटी हुआ करती थीं, आशा जी बहुत ज्यादा खूबसूरत तो नहीं थीं लेकिन उनके अभिनय और आवाज में जो शोखी थी उसका अपना जादू था, मुझे फ़िल्में देखने की समझ बहुत देर से आयी यानि तब मै ग्यारह साल का हो गया था,उस समय तक आशा पारेख तमाम फिल्मों में काम कर चुकी थीं, उनकी फिल्म ‘ कटी पतंग’ देखने मै न जाने कितनी बार गया. उस जमाने के सर्वाधिक लोकप्रिय उपन्यासकार गुलशन नंदा के उपन्यास पर बनी इस फिल्म में आशा पारेख ने एक विधवा का यादगार किरदार निभाया था ।

वो जमाना था जब आशा पारेख और राजेश खन्ना की जोड़ी सुपरहिट हुआ करती थी, आशा जी एक सिद्धहस्त अभिनेत्री के साथ नर्तकी भी हैं,उनके अभिनय में उनका नृत्य भी चार चाँद लगाता था ,उनकी फिल्म ‘ आन मिलो सजना ‘ के टिकिट मिलना मुश्किल होते थे ,ये फिल्म महीनों तक सिनेमाघरों से नहीं उतरी .जब फिल्मों की समझ आयी तो मायने आशा पारेख की पहली फिल्म आसमान [1952 ] से लेकर आखरी फिल्म आसमान [1995 ] तक देखीं .आशा जी ने कोई 75 फ़िल्में तो की ही होंगी ,संख्या के हिसाब से ये शायद कम ज्यादा हों लेकिन इन फिल्मों के जरिये कई दशकों तक फ़िल्मी परदे पर छाई रहीं

आशा पारेख को शम्मी कपूर की नायिका की भूमिका में

आशा पारेख ने अपने फ़िल्मी जीवन में सब कुछ पाया ,दर्शकों का प्यार और फिल्म जगत में सम्मान हालाँकि वे वहीदा रहमान की तरह पद्मभूषण नहीं बन सकीं,पद्मश्री तक ही रह गयीं,लेकिन दादा साहेब पुरस्कार उन्हें वहीदा रहमान से पहले दे दिया गया. मुमकिन है कि अगला दादा साहेब पुरस्कार वहीदा जी के नाम हो और मुमकिन है की न भी हो ,क्योंकि पुरस्कार हमेशा इसी तरह दिए जाते हैं .पुरस्कारों का कोई एक मापदंड नहीं होता ।

आशा पारेख के अभिनय में उस दौर के निर्देशकों,संगीतकारों और गीतकारों का भी योगदान रहा है,यदि ये न होता तो शायद आशा पारेख वो आशा पारेख न होतीं जो हैं ।

उन दिनों आनंद बख्शी के संवादनुमा गीत आशा के लिए बड़े काम आये.जैसे ‘अच्छा तो हम चलते हैं ‘आशा पारेख को अपने जमाने में उनके विवधतापूर्ण अभिनय की वजह से जुबली गर्ल और टॉम बॉय जैसे नामों से भी जाना गया ,उन्होंने मया नगरी में उंच-नीच का भी सामना किया ,फ़िल्म ‘गूँज उठी शहनाई’ के निर्देशक विजय भट्ट ने आशा जी की अभिनय प्रतिभा को नजरअंदाज़ करते हुए उन्हें फ़िल्म में लेने से इनकार कर दिया। लेकिन अगले ही दिन फ़िल्म निर्माता सुबोध मुखर्जी और लेखक-निर्देशक नासिर हुसैन ने अपनी आगामी फ़िल्म ‘दिल देके देखो’ में आशा पारेख को शम्मी कपूर की नायिका की भूमिका में चुन लिया। यह फ़िल्म आशा पारेख और नासिर हुसैन को एक दूसरे के काफ़ी नजदीक ले आई थी। नासिर हुसैन ने उन्हें अपनी अगली छ: फ़िल्मों, ‘जब प्यार किसी से होता है’, ‘फिर वही दिल लाया हूँ’, ‘तीसरी मंजिल’, ‘बहारों के सपने’, ‘प्यार का मौसम’ और ‘कारवाँ’ में भी नायिका की भूमिका में रखा। @राकेश अचल

 

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