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जातिगत टिप्पणियां अपराध कैसे ?

शीर्षक देखकर चौंकिए मत. भारत जैसे महान देश में जाति व्यवस्था को लेकर परस्पर विरोधी चरित्र है देश का, क़ानून का,सियासत का. कथित रूप से जातिगत टिप्पणी करने पर पूर्व क्रिकेटर युवराज सिंह को गिरफ्तार किया जा सकता है उन्हें जमानत कराना पड़ती है लेकिन जाति आधारित जनगणना करने की मांग करने वाले राजनीतिक दलों से देश का कोई क़ानून कुछ नहीं कहता.

जाति व्यवस्था मनुष्यता के लिए आज की तारीख में कलंक है. लेकिन ये कलंक अगर किसी देश की रग-रग में समाया हो तो उसे किसी भी डायलिसिस के जरिये रक्त से बाहर करना आसान नहीं है. जाति की जड़ें इतनी गहरीं और लम्बी हैं की उन्हें समूल उखाड़ने की हमारे मनीषियों, समाज सुधारकों की तमाम कोशिशों को नाकाम कर दिया एक छुद्र राजनीति ने. राजनीति जाति व्यवस्था को लेकर शुरू से दोगले चरित्र की रही है. राजनीति चूंकि राज सत्ता का संचालन करती है इसलिए उसने अपने निहित स्वार्थों के लिए जाति व्यवस्था को कभी मरने नहीं दिया. लेकिन इसका खमियाजा भुगतना पड़ता है युवराज सिंह जैसे लोगों को जो बिना किसी इरादे के जातिगत बात कह जाते हैं.

युवराज ने अपने मित्रों के साथ इंस्ट्राग्राम पर बतरस में कुछ कहा और उसे जाति व्यवस्था को लेकर सजग रहने वाले कथित समाज सुधारक ने पकड़ लिया और थाने पहुंच गए. चूंकि जातिगत और अपमानजनक टिपण्णियों के खिलाफ हमारे पास कभी न इस्तेमाल होने वाला क़ानून है इसलिए पुलिस ने फौरन उसका इस्तेमाल किया क्योंकि ऐसा करने से उसे और फरयादी की सुर्खियां जो हासिल होने वाली थी. चूंकि युवराज एक नामचीन्ह क्रिकेटर है इसलिए बेचारे को फौरन हाईकोर्ट की शरण लेना पड़ी, जमानत करना पड़ी. हमारे,आपके जैसा कोई आम आदमी होता तो अभी हवालात में ही पड़ा होता या बिना किसी सुनवाई के जेल भेज दिया जाता.

भारतीय समाज में जाति हर क्षेत्र में किसी न किसी रूप में मौजूद है. इसे समाप्त होना चाहिए,किन्तु नहीं हो पा रही है .होने नहीं दिया जा रहा जातियों का समापन. जाति राजनीति की धुरी है और कौन होगा जो इस धुरी को तोड़ दे. न जाने कितने राम मनोहर लोहिया चाहिए इस धुरी को तोड़ने के लिए .जाति की धुरी पर वार सब कतराते हैं लेकिन ‘सौ सुनार की, एक लुहार की ‘तरह चोट नहीं करते. अब आप इस कहावत को और इस जैसे तमाम मुहावरों का इस्तेमाल कर यदि जातिगत टीप करने के आरोपी बनाये जा सकते हैं तो आपको इस देश से पलायन करना पडेगा.

हमारे मनीषी सदियों से जाति व्यवस्था के खिलाफ समाज को चेतावनी देते आ रहे हैं. लेकिन उनका कहा कौन मानता है ? वे भले ही साधु से जाति के बजाय ज्ञान पूछने की सलाह देते हों, किन्तु कौन अमल करता है उनकी बात पर. यहां तो पंच,सरपंच से लेकर सांसद तक के चुनाव में जाति पूंछ कर देखकर उम्मीदारी तय की जाति है. मंत्री, मुख्यमंत्री यहां तक पार्टियों के अध्यक्ष तक जाति के आधार पर बनाये जाते हैं. जाति- आधारित आरक्षण के बारे में तो कुछ कहने की जरूरत नहीं है. इसीलिए सवाल उठता है कि क्या जाति आधारित राजनैतिक व्यवस्था में जाति आधारित टिप्पणी क्या सचमुच कोई गंभीर अपराध है ?

हमारे यहां बात-बात पर ‘पंडित वाले, ठाकुर साब,अरे खान कहना अपराध नहीं है लेकिन ओय …. ! कुछ कहने पर युवराज सिंह अपराधी हो जाता है. मै जातिवाद का प्रबल विरोधी हूँ, लेकिन मेरे विरोध का कोई मतलब इसलिए नहीं है क्योंकि राजनीति जाति की सबसे बड़ी पोषक संस्था है. जब तक हम राजनीति को नहीं सुधारते तब तक जाति व्यवस्था को समूल नहीं मिटाया जा सकता. केवल कानून बनाने से कुछ होने वाला नहीं है. जाति निरोधक कानूनों का इस्तेमाल केवल सुर्खियां बनाने के काम आता है. क़ानून से यदि जाति व्यवस्था का समापन होना होता तो कब का हो गया होता.

जाति व्यवस्था सामाजिक समरसता की सबसे बड़ी बाधा है. प्रगति का सबसे बड़ा अवरोध है ये जानते हुए भी सब अपनी-अपनी जाति से चिपके रहना चाहते हैं. जातीय गौरव के प्रदर्शन का कोई अवसर किसी भी जाति का अगुआ नहीं छोड़ना चाहता. इसी के लिए सारे उपक्रम हैं. जातीय गौरव के नाम पर प्रतिमाएं लगायी जा रहीं है, शहरों के नाम बदले जा रहे हैं. योजनाएं चलाई जा रहीं है, फिर कैसे जाति व्यवस्था समाप्त होगी ? एक तरफ जाति व्यवस्था को पोषिये और दूसरी तरफ उसी को कोसिये, ये विसंगति नहीं तो और क्या है ?

दुनिया में जातियां केवल मनुष्यों के बीच ही पहचान का बोध कराती हों ऐसा नहीं है. श्वानों,अश्वों,की भी जातियां होतीं हैं और इन्हीं के आधार पर उनका मूल्य निर्धारण होता है. ये जातियां भी मनुष्यों द्वारा पोषित हैं. और फिर कौन, किस जाति में पैदा हुआ है, इसका निर्धारण किसी के हाथ में नहीं है. मनुष्य की परख जाति से नहीं उसके काम काज से की जाना चाहिए, किन्तु ऐसा हो नहीं रहा. कम से कम हमारे यहां तो नहीं हो रहा.अनेक देश ऐसे हैं जहां आप किसी व्यक्ति के नाम से उसकी जाति का पता नहीं लगा सकते, लेकिन हमारे यहां नाम से ही जाति और धर्म का पता चल जाता है. हम जातियों के साथ ही दूसरे चिन्ह भी धारण करने में संतोष अनुभव करते हैं. पगड़ियां, टोपियां, दाढ़ियां, तिलक, त्रिपुंड यहां तक की वर्दियां भी हमारे यहां [दूसरे तमाम देशों में भी] जातिगत पहचान के उपकरण हैं.इन सबको त्यागे बिना जाति व्यवस्था को निर्मूल नहीं किया जा सकता.

युवराज से पहले अनेक लोग अपनी कथित जातिगत टीपों के लिए हवालातों में जा चुके हैं, उन्हें स्पष्टीकरण देना पड़े हैं, माफियां मांगना पड़ीं हैं. ये सिलसिला अनंत है, अनादि है. इसे रोका जाना चाहिए या नहीं ये आज का सवाल नहीं है. आज का सवाल है कि क्या जाति की पहचान के बिना मनुष्य जीवित रह सकता है या नहीं ? उत्तर सबको मिलकर खोजना होगा. हमारे दांत हाथी के दांतों की तरह दिखाने के और खाने के लिए अलग-अलग नहीं होना चाहिए.
@ राकेश अचल

 

 

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