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‘राम-राम’ से ‘जय जुहार’ तक का सफर

भारत में भारतीय जनता पार्टी का सत्ता में बने रहने का फार्मूला अब शायद किसी राजनीतिक दल के पास नहीं है. भाजपा राम-राम करते हुए सत्ता के शीर्ष तक पहुंची थी और अब ‘जय जुहार’ करते हुए अगले एक दशक तक सत्ता में बने रहने की जुगाड़ करने में लगी है. देश की बहु संख्यक जनजातियों की आबादी को भाजपा ने अपनी नयी सीढ़ी बनाया है. कांग्रेस समेत दूसरे दल इस बारे में कल्पना तक नहीं कर पाए है.

मध्यप्रदेश की राजधानी भोपाल में बनाये गए देश के पहले विश्व स्तरीय रेलवे स्टेशन का नामकरण एक भूली-बिसरी जनजातीय सामंत के नाम करने के साथ ही जनजातियों के भगवान और स्वतंत्रता संग्राम के हीरो [2014 के बाद वाला नहीं ] बिरसा मुंडा के नाम पर सार्वजनिक अवकाश घोषित करने हुए आदिवासियों के समग्र विकास के लिए तमाम नयी योजनाएं शुरू करने के साथ ही भाजपा ने अपना जय-जुहार अभियान शुरू कर दिया है. भाजपा को अब ‘राम’ की जरूरत उतनी नहीं है जितनी 2014 के पहले थी.

भाजपा को पता है की उसे सत्ता सिंघासन तक लाने वाले ब्राम्हण-बनिया समाज अब उससे उकता चुका है. भाजपा के नेता मुरलीधर राव ने पिछले दिनों भाजपा के लिए चालीस साल से समर्पित ब्राम्हण और बनियों को अपनी जेब में रखा बताकर उन्हें आईना भी दिखा दिया है. देश के एक दर्जन भाजपा शासित राज्यों में भी ब्राम्हणों और बनियों की स्थिति अब पहले जैसी नई रही है. भाजपा ने सचमुछ धीरे -धीरे यानि योजनाबद्ध तरीके से ब्राम्हण और बनियों का विकल्प तलाशना शुरू कर दिया है, और ये तलाश जनजातियों पर आकर ठहर गयी है.

भारत में जनजातियों की आबादी एक बहुत बड़ा वोट बैंक हो सकता है क्योंकि इनकी संख्या देश की कुल आबादी का 9 प्रतिशत तक है. देश के 54 फीसदी हिस्से में ये जनजातियां निवास करती हैं और आजादी के 75 साल बाद भी इनकी दशा दयनीय है. कंगना रनौत को मिली सात साल पहले की आजादी में भी जनजातियों की दशा में बहुत ज्यादा सुधार नहीं हुआ है. देश की जनजातियां स्वाभाविक तौरपर अतीत में कांग्रेस का वोटबैंक होती थीं, लेकिन बी नहीं हैं. अब जनजातियां अलग-अलग राजनीतिक दलों का औजार हैं, लेकिन भाजपा ने इस बड़े वोट बैबक को हड़पने के लिए व्यापक रणनीति बनाई है और सबसे पहले जनजातियों को उनका गौरव वापस दिलाने का एक खोखला नारा हवा में उछाल दिया है.

देश के जनजातीय वोट बैंक को भाजपा से जोड़ने का प्रयोग मध्यप्रदेश से शुरू हो रहा है. मध्यप्रदेश में 2023 में विधानसभा चुनाव होना है. मध्य प्रदेश में जनजातीय आबादी डेढ़ करोड़ से ज्यादा है यानि प्रदेश की कुल आबादी का 21 प्रतिशत आबादी जनजातियों की है. देश का पहला विश्व स्तरीय रेलवे स्टेशन हबीबगंज जनजातीय समाज की एक रानी कमलापति के नाम कर भाजपा ने एक दांव खेल दिया है हालाँकि प्रदेश का जनजातीय समाज खुद रानी कमलापति के बारे में बहुत नहीं जानता लेकिन भाजपा का प्रचारतंत्र रानी कमलापति को जनजातियों का गौरव बताकर उन तक पहुँचने का प्रयास कर रहा है.

देश की जनजातियों को भाजपा से जोड़ने का प्रयोग इसलिए भी किया जा रहा है क्योंकि मध्य प्रदेश की 230 विधानसभा सीटों में से 47 सीटें आदिवासी समुदाय के लिए आरक्षित हैं जो सरकार बनाने में बहुत बड़ी भूमिका अदा करती आयी हैं. प्रदेश में करीब 22 परसेंट वोट आदिवासियों के हैं. पिछले कई चुनावों से आदिवासी समुदाय मध्य प्रदेश की राजनीति के केंद्र में रहा है. मध्यप्रदेश में 18 साल पहले 2003 में दिग्विजय सिंह के खिलाफ भाजपा की जीत में आदिवासी समुदाय की बड़ी भूमिका रही थी. आदिवासियों का कांग्रेस से मोहभंग होना पार्टी की हार का बड़ा कारण रहा. उस वक्त गोंडवाना गणतंत्र पार्टी ने न केवल 6 विधानसभा सीट पर जीत दर्ज की थी, बल्कि आदिवासी सीटों पर कांग्रेस के वोट भी काटे थे.

प्रदेश का जनजातीय समाज कांग्रेस को सत्ता से बाहर करने और डेढ़ दशक बाद दोबारा वापस लेन में अपनी ताकत दिखा चुका है. कांग्रेस से छिटकने के बाद आदिवासी वोट 2013 तक के चुनाव में बीजेपी के साथ बना रहा. इस चुनाव में बीजेपी को 31 सीटें मिली थीं, वहीं कांग्रेस को 16 सीट पर संतोष करना पड़ा था. लेकिन 2018 का चुनाव कांग्रेस के लिए फिर बड़ी राहत लेकर आया. उसका परंपरागत आदिवासी वोटर उसके पास लौट आया. चुनाव में कांग्रेस का भाग्य बदलने की बड़ी वजह आदिवासी समुदाय के वोट थे. इस चुनाव में उनका बीजेपी से मोह भंग हो गया. इस बार का नतीजा 2013 से बिलकुल उलट था. कांग्रेस के खाते में आदिवासी समुदाय की 31 सीटें आ गयीं वहीं 16 सीटें बीजेपी को मिलीं.

दशकों से हर राजनीतिक दल के लिए सत्ता का ईंट-गारा बना जन जातीय समाज की 52 फीसदी आबादी गरीबी की रेखा के नीचे है और चौंका देने वाली बात यह है कि 54 फीसदी आदिवासियों की आर्थिक सम्पदा जैसे संचार और परिवहन तक कोई पहुंच ही नहीं है। भाजपा की मौजूदा सरकार भी हाल के उप चुनावों में जनजातियों का रुख देखकर चौकन्नी है. आदिवासियों को लुभाने के लिए सौ करोड़ की लागत वाले हबीबगंज रेल स्टेशन को रानी कमलापति के नाम करने के साथ ही जनजातीय गौरव दिवस के नाम पर 28 करोड़ रूपये खर्च करने के साथ ही प्रधानमंत्री से लेकर मुख्यमंत्री तक ने जनजातीय वेशभूषा अपनायी. इतना ही नहीं वे और भाजपा के अनेक मंत्री आदिवासियों के साथ नाचते भी देखे गए, केंद्रीय मंत्री ज्योतिरादित्य सिंधिया ने मादल बजायी.

ऐसा माना जाता है की यदि मध्य्प्रदेश की जनजातियां आने वाले समय में भाजपा से जुड़ गयीं तो दूसरे जनजातीय भूल प्रदेशों में भी मध्यप्रदेश के फार्मूले को आगे बढ़ाया जा सकता है. इसके लिए जनजातियों के नामालूम राजा-रानियों के अलावा इस समाज के दूसरे नायकों की तलाश भी की जा रही है ताकि उनके माध्यम से जनजातियों में भाजपा के लिए जगह बनाई जा सके. कांग्रेस समेत किसी दूसरे दल के पास फिलहाल भाजपा की इस जनजातीय चुंबक का कोई तोड़ नहीं है. हालाँकि कांग्रेस भी अब नींद से जाएगी है. लेकिन पिछले 65 साल में कांग्रेस और भाजपा ने किसी आदिवासी को मुख्यमंत्री नहीं बनने दिया. जबकि इस समाज के डॉ शिवभानु सिंह सोलंकी और जमुना देवी मुख्यमंत्री नंबर दो बनकर रह गए. भाजपा के पास भी कांग्रेस छोड़ आये दिलीप सिंह भूरिया और भाजपा के अपने फग्गन सिंह कुलस्ते मुख्यमंत्री बनने का सपना देखते रहे लेकिन किसी ने इन दोनों को अवसर नहीं दिया. आने वाले दिनों में कोई जनजातीय नेता मध्यप्रदेश के मुख्यमंत्री पद तक पहुँच जाये तो कहा नहीं जा सकता.  @ राकेश अचल

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