Close

नर्क में तब्दील होते शहर

मध्य्प्रदेश में दो मर्तबा सरकारें गिराने और बनाने वाले ग्वालियर का दुर्भाग्य है कि ये किसी भी मामले में नंबर वन नहीं हो पा रहा है. यहां से आजादी के बाद से अब तक न कोई मुख्यमंत्री बना और न इस शहर को सफाई के मामले में पहला स्थान मिला. लोग हैरान हैं कि ग्वालियर को कचरा मुक्त शहर के रूप में पुरस्कार कैसे मिल गया, जबकि पूरा का पूरा शहर तो कचरे से अटा पड़ा हुआ है.

ग्वालियर से असीम प्रेम होने की वजह से मै अक्सर ग्वालियर के पिछड़ने पर दुखी होता रहता हूँ. अपने शहर से प्रेम करना भी एक खराब आदत हैं, क्योंकि शहर की दुर्दशा देखकर आप दुखी होने के सिवाय कुछ कर नहीं सकते.जो करना होता हैं वो सब स्वायत्तशासी संस्थाओं के हाथ में होता हैं या फिर स्मार्ट सिटी परियोजना के हाथ में. आप ज्यादा से ज्यादा कचरा फैला सकते हैं इस उम्मीद में कि आपका कचरा आपसे स्वच्छता कर लेने वाली नगर निगम उठा लेगी, लेकिन ऐसा कभी हो नहीं पाता.

शहरों को कचरामुक्त करने के सैकड़ों उपाय किये जाते हैं. लेकिन कचरा हैं कि समाप्त ही नहीं होता. हो भी नहीं सकता क्योंकि शहरों से कचरा समाप्त करने के उपाय ही कचरे की तरह अधकचरे होते हैं. स्थानीय निकाय सारा काम ठेके पर करने के आदी हैं और कचरे को शायद ये ठेकेदारी पसंद नहीं. कचरा ठेकेदारी में ईमानदारी चाहता हैं और ये ईमानदारी हर ठेके में सिरे से गायब होती हैं. ये किस्सा भले ही ग्वालियर का हो लेकिन इसे आप अपने शहर पर भी लागू कर सकते हैं.

एक जमाने में ग्वालियर में कचरा संग्रहण के लिए भैंसा गाड़ियां चलती थीं. लेकिन कचरा निष्पादन का इंतजाम ग्वालियर रियासत के शक्तिशाली शासक भी नहीं कर पाए थे. बाद में कचरा संग्रहण के लिए हाथ से चलने वाली छोटी गाड़ियां भी आयीं. भैंसा गाड़ियों की जगह ट्रेकटर ट्रालियों और बाद में ट्रकों ने ले ली किन्तु कचरा जैसा था वैसा ही रहा बल्कि और ज्यादा हो गया. आबादी बढ़ती हैं तो कचरा बढ़ता ही हैं कचरा और स्थानीय निकायों के बीच सुरसा और हनुमान जैसी स्पर्धा चलती रहती हैं. जस-जस सुरसा बदन बढ़ावा वाली स्पर्धा.

दरअसल कचरा निपटना नहीं चाहता और स्थानीय निकाय इसे निबटना भी नहीं चाहते. वे कभी कचरा संग्रहण में मात खा जाते हैं तो कभी कचरा निपटाने में. कभी संग्रहण नहीं हो पाता तो कभी कचरा निपटने वाले संयत्र काम नहीं कर पाते. कभी ठेकदार भाग जाते हैं कभी उन्हें भगा दिया जाता हैं. बावजूद इसके आंकड़े जुटाकर ईनाम लेने में स्थानीय निकाय हमेशा बाजी मार लेते हैं, क्योंकि आंकड़े उसके नियंत्रण में होते हैं.

ग्वालियर का सपना हमेशा से इंदौर के बराबर खड़े होने का रहा हैं लेकिन ये बराबरी आजादी के बाद से हासिल नहीं हो पायी, क्योंकि ग्वालियर से न कोई मुख्यमंत्री बना और न किसी ने ग्वालियर को इंदौर की तरह प्यार किया. एक मुख्यमंत्री थे बाबूलाल गौर उन्होंने ग्वालियर से कहा कि ष्हे को साफ़ रखना हैं तो डेरियां शहर के बाहर करो. ग्वाला नगर बनाओ.प्रशासन ने ग्वाला नगर के लिए जमीन भी दे दी लेकिन डेरियां आजतक बाहर नहीं गयीं. डेरियां बाहर नहीं गयीं तो गंदगी भी नहीं गयी, भैंसे भी नहीं गयीं, गायों और सांडों को तो बाहर जाना ही नहीं हैं. वे जब-तब अस्पताल के लिए आरक्षित जमीन पर बनी गौशाला तक जाते हैं और ट्रांजिट विजिट कर वापस आ जाते हैं शहर का यातायात बिगाड़ने और गंदगी फैलाने के लिए.

शहर को साफ़ रखना नागरिकों का नैतिक कर्तव्य हैं लेकिन नैतिकता तो कब की घास चरने गयी हैं. नैतिकता नागरिकों में नहीं हैं तो नगर निगम के पास कहाँ से होगी. नगर निगम न सड़कों का कचरा उठा पाता हैं और न स्वर्ण रेखा का. दोनों सनातन काल से गंदे हैं. शायद अभिशप्त हैं गंदगी के लिए मै तो कहता हूँ कि यदि नगर निगम रोज कचरा नहीं उठा पाता तो उसे हफ्ते में एक बार कचरा उठाना चाहिए. हफ्ते भर गीला-सूखा कचरा संग्रहित करने के लिए काले-नीले बड़े-बड़े डिब्बे हर घर वाले को रखने के लिए विवश कर देना चाहिए लेकिन ये उसी शर्त पर हो सकता हैं जबकि नगर निगम कचरे के सनाग्रहण और उसके निष्पादन की गारंटी दे. कहते हैं कि – न नौ मन तेल होगा और न राधा नाचेगी.

कचरा राक्षस कहता हैं कि हमसे पार पाना नेताभक्त प्रशासन के बूते की बात नहीं हैं. कचरा हटाने के लिए कलेजा चाहिए और कलेजा अब भाप्रसे के अफसरों के पास होता नहीं हैं. वे अपना सारा समय नेताओं की अगवानी, स्वागत, बैठक और विदाई में ही खर्च कर देते हैं. न करें तो नौकरी न कर पाएं, भाप्रसे के अफसरों की निष्ठा जनता के प्रति नहीं नेताओं के प्रति होती हैं, क्योंकि उनकी पदस्थापना नेताओं के हाथों में होती हैं, न कि जनता और कचरे के .नेताओं के कृपाकांक्षी प्रशासन से आप अपने शहर को स्वच्छ बनाने की उम्मीद नहीं कर सकते.

सबका साथ, सबका विकास एक नारा होता हैं हकीकत नहीं. यदि हकीकत होती तो जैसा विकास इंदौर का हो रहा हैं,ग्वालियर या दूसरे शहरों का भी होता ? सरकार का सारा ध्यान इंदौर पर ही केंद्रित हैं, क्योंकि वहां ‘हनी’ और ‘मनी’ दोनों हैं. दूसरे शहरों के पास ये सब कहाँ ? अन्यथा क्या इंदौर की तरह ग्वालियर या दूसरे शहरों में विकास प्राधिकरण तथा नगर निगम नहीं हैं. वहां आबादी नहीं बढ़ी ? क्या दूसरे शहरों के विकास के लिए इंदौर मॉडल पर काम नहीं किया जा सकता ? सब मुमकिन हैं लेकिन जब नेता एकमत हों. उनमने नगर को विकसित करने कि ललक हो.
पिछली आधी सदी से मै ग्वालियर के विकास और बदहाली दोनों का साक्षी हूँ. यहां विकास की गति कछुआ जैसी हैं. यहां राजनेता गाल बजाने वाले हैं.

वे अपनी जय-जयकार करने में ही मस्त रहते हैं. उन्हें पता हैं कि ग्वालियर के लोग कचरे के बीच,आवारा मवेशियों के साथ, प्रदूषित आवोहवा में भी बिना किसी प्रतिकार के रह सकते हैं. ग्वालियर कि स्पर्धा किसी से हैं ही नहीं. इंदौर मिनी मुंबई बन गया लेकिन ग्वालियर मिनी दिल्ली बनने की तरफ एक कदम भी आगे नहीं बढ़ा, जबकि उसे काउंटर मैग्नेट सिटी बनाने के लिए तीस साल पहले चुना गया था. ग्वालियर या ग्वालियर जैसे शहरों की जनता को जागना होगा, अपने जनप्रतिनिधियों और प्रशासन के कान पकड़ना होंगे अन्यथा ये तमाम शहर आज नहीं तो कल नर्क में तब्दील हो जायेंगे. @ राकेश अचल

 

 

यह भी पढ़ें- देश में पिछले 24 घंटों में कोरोना के 7 हजार 579 नए केस दर्ज, 543 दिनों बाद सबसे कम

scroll to top