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अध्यक्ष जी के कान और लोकतंत्र

संसद की अवमानना से जुड़ा प्रश्न नहीं है लेकिन कौतूहल से जुड़ा प्रश्न जरूर है ‘ध्वनिमत’. आखिर किसी सदन के सभापति के कान इतने तीक्ष्ण कैसे हो जाते हैं कि वे ध्वनिमत के आधार पर इंकार या स्वीकार का फैसला कर लेते हैं ? संसद में ध्वनिमत एक ऐसा हथियार है जिसकी बिना पर किसी भी सदन का सभापति किसी भी विधेयक के भविष्य का फैसला कर सकता है. इन दिनों राज्य सभा के उप सभापति हरवंश जी तो ध्वनिमत का इस्तेमाल करने की वजह से सबसे ज्यादा चर्चा में हैं.

हरवंश जी चूंकि हमारी पत्रकार बिरादरी से राजनीति में आये हैं इसलिए उनके बारे में चर्चा करते हुए हमें डर नहीं लगता. हालांकि हरवंश जी के फैसलों का विरोध करने पर राज्य सभा के एक दर्जन सदस्यों को पूरे सत्र के लिए सभापति महोदय ने निलंबित कर दिया है. चूंकि निलंबन कोई सजा नहीं है इसलिए राजयसभा के सदस्य इससे खौफ नहीं खाते. निलंबन को सदस्यों के मौलिक अधिकारों का हनन जरूर मानकर इसकी निंदा की जाती है. अक्सर जब पानी सर के ऊपर हो जाता है तब निलंबन जैसी कार्रवाइयां की जाती हैं लेकिन उन्हें एक-दो दिन बाद ही दरियादिली दिखाते हुए वापस ले लिया जाता है.

बात ध्वनिमत को थी, संसद के कायदे -क़ानून में चूंकि ध्वनिमत का प्रावधान है इसलिए इसका इस्तेमाल अवैधानिक नहीं है किन्तु ये सवाल अपनी जगह बारबार मौजूद है कि किसी सभापति के कान इतने तीक्ष्ण कैसे होते हैं कि वे ध्वनियाँ सुनकर अपना फैसला कर लेते हैं. यहां तो बच्चों के हंगामे में ही कुछ साफ़ -साफ़ नहीं सुनाई देता. राज्य सभा के उप सभापति हरवंश ने विवादास्पद कृषि कानूनों को जिस तरह ध्वनिमत के आधार पर मंजूरी दी थी ठीक उसी तरह उन्हें रद्द करने के प्रस्ताव को भी मंजूरी दे दी. उन्होंने न पहले इन विधेयकों पर बहस कराई थी और न बाद में.

लोकतंत्र में बहस-मुबाहिसे महत्वपूर्ण हैं लेकिन यदि सभापति को नहीं लगता कि बहस हो तो सदस्य करते रहें जिद, क्या फर्क पड़ता है लोकतंत्र को ? बहस की खुजली संसद के बाहर सड़कों पर निकाली जा सकती है. निकाली जाती है. क्या जरूरी है कि बहस संसद में ही हो ? बहस से कीमती वक्त जाया होता है संसद का. वैसे भी मंहगाई का वक्त है, हर चीज कीमती हो गयी है. संसद के वक्त की कीमतें भी पहले के मुकाबले बढ़ गयीं हैं. बुजुर्ग हमेशा कहते आये हैं कि कीमती चीज का इस्तेमाल मितव्ययता के साथ करना चाहिए.

अमूमन सदन में ये देखा गया है कि महत्वपूर्ण मुद्दों और विधेयकों पर ध्वनि मत से सदन का फ़ैसला सामने आता है और सांसद जब मत विभाजन की माँग करते हैं तो सभापति को इस पर फ़ैसला करना होता है. असहमत सदस्य चाहें तो हरवंशी फैसले के खिलाफ अदालत जा सकते हैं. हमारे एक जानकार मित्र कहते हैं कि “भूमि अधिग्रहण क़ानून के वक़्त स्पीकर ने अपने संवैधानिक अधिकारों का इस्तेमाल करते हुए इसे मनी बिल क़रार दे दिया था और स्पीकर के इस फ़ैसले को अदालत में चुनौती दी गई थी. जहां संविधान और लोकतांत्रिक सिद्धांतों का उल्लंघन हो रहा हो, वहां इसे कोर्ट में चुनौती दी जा सकती है.”. अब विपक्ष को ये तय करना है कि कृषि विधेयक का मुद्दा लेकर वे कोर्ट जाते हैं या फिर सड़क पर.

मुझे लगता है कि ध्वनिमत का इस्तेमाल करते समय सदन प्रमुख ये मानकर चलते हैं कि सत्तारूढ़ दल चूंकि बहुमत में है इसलिए कम से कम उसके सदस्य तो विधेयक के साथ होंगे ही. अब ध्वनिमत के इस्तेमाल को आप किसी के लिए नमकहलाली करना कैसे कह सकते हैं ? आपको तो हरवंशी फैसलों के साथ खड़ा होना चाहिए, क्योंकि उन्होंने तो ध्वनिमत को स्वीकार कर सदन का कीमती समय बचाया.

बहस से हर सत्ता बचती है इसलिए केवल भाजपा को दोष देना ठीक नहीं है. मुझे याद है कि महाराष्ट्र में अल्पमत की सरकार ने विश्वासमत का प्रस्ताव बिना बहस के पास कर लिया था. आप कह सकते हैं कि ध्वनिमत विववादस्पद विधेयकों के लिए एक रक्षा कुछ है. कृषि क़ानून हो या जम्मू -कश्मीर के पुनर्गठन का विधेयक ध्वनिमत से ही तो पारित हुए हैं. ध्वनिमत को पहचानने की क्षमता पर शोध जरूर हो सकता है. सदन प्रमुखों के श्रवण यंत्रों की विशिष्टताएं अवश्य जांची-परखी जा सकती हैं. समझदार सदस्यों को सदन के समक्ष इस प्रकार के गंभीर प्रस्ताव लेकर आना चाहिए.

सदन के सदस्य अनुपूरक बजट,पेंशन बढ़ाने का विधेयक, यूपी में लव जिहाद कानून जैसे प्रस्ताव ध्वनिमत से ही तो पारित करते आये हैं .ध्वनिमत सुविधा का औजार है. कभी-कभी ही इस औजार के इस्तेमाल को लेकर विवाद खड़ा होता है, अन्यथा बहुत से प्रस्ताव बिना बहस के मेजे थपथपाकर भी पारित कर दिए जाते हैं. यूं भी हमारे जीवन में ध्वनियों की अहम भूमिका है.

सियासत में तो करतल ध्वनि न सुनाई पड़े तो नेता बेहोश हो जाएँ. ध्वनियाँ हमारे जीवन को तरंगित करतीं हैं. संसद में भी यदि ध्वनिमत न हो तो सदस्य बहस करते-करते उबासियाँ लेने लगें. हमने देखा है कि सदन के अनेक सत्रों की दशा हमारी कवि गोष्ठियों जैसी होती है. जिसका कविता पाठ होता है वो ही मौजूद रहता है, बाकी सब अपनी-अपनी कहकर चलते बनते हैं.

अवतारी प्रधानमंत्री के रहते हुए भी सदन में कभी शत-प्रतिशत उपस्थिति नजर नहीं आती. क्योंकि सदस्य जानते हैं हैं कि गैरहाजरी के बावजूद कोई उन्हें न अयोग्य घोषित कर सकता है और न उनके वेतन-भत्ते ही रोक सकता है. मै तो कटा हों कि सदनों में बहस के लिए शुल्क की व्यवस्था करना चाहिए.जो सदस्य बहस में रूचि रखते हैं वे फीस भरें और बहस कराएं. बिना पैसे की बहस का क्या अर्थ ?
@ राकेश अचल

 

 

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