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क्या बाबुओं से भी गए बीते हैं सांसद

बेशक संसद नियम-कायदों से चलती है, लेकिन संसद में जनता की आवाज बनकर आने वाले सांसदों के साथ सरकारी दफ्तर के बाबुओं जैसा व्यवहार भी तो नहीं किया जा सकता. लगता है कि राजयसभा के सभापति ने सदन के सदस्यों को सरकारी दफ्तर का बाबू समझकर निलंबित कर दिया है और अब उनकी बहाली को अपनी प्रतिष्ठा का प्रश्न बनाकर अड़े हुए हैं.

संसद के सदनों में हंगामा कोई नयी और अप्रत्याशित घटना नहीं है. जबसे संसद बनी है तब से संसद में हंगामे होते आये हैं. बिना हंगामों के संसद मसान जैसी लगती है. हंगामा सदस्यों की असहमति का ‘पंचम स्वर’ है और इसका सम्मान किया जाता रहा है. संसद के दोनों सदनों में बहुत कम सदस्य ऐसे हैं जिन्होंने अपने जीवनकाल में हंगामे के हथियार का इस्तेमाल न किया हो. ऊर्जावान सदस्य ज़रा वेग से हंगामा करते हैं और गंभीर सदस्य शालीनता के साथ. लेकिन हंगामा करने वाले सदस्यों को सदन से पूरे सत्र के लिए निलंबित करने क कठोर दंड कदाचित कम ही दिया जाता है.

लोकसभा में गणेश वासुदेव मावलंकर से लेकर ओम बिरला तक और राज्य सभा में सर्वपल्ली राधाकृष्णन से लेकर वैंकया नायडू तक जितने भी सदन प्रमुख रहे हैं, सभी ने हंगामों का सामना किया है. हंगामा करने वाले सनसद निलंबित भी किये गए हैं, लेकिन उन्हें एक अच्छे अभिभावक की तरह सदन प्रमुखों ने सदन में वापस भी बुला लिया है. सदन में सद्भावना बनाये रखने के लिए सदन प्रमुख की दरियादिली पहली शर्त है. जो सदन प्रमुख अभिभावकों के बजाय हैड मास्टरों जैसा बर्ताव करते हैं उन्हें कभी याद नहीं किया जाता.

अतीत में झांककर देखिये तो पता चलेगा की कैसे-कैसे दिग्गजों ने हंगामा करने पर निलंबन का स्वाद चखा. समाजवादी राजनारायण को सबसे बड़ा हंगामेबाज कहा जाता था. वे सबसे अधिक अवसरों पर निलंबित भी किये गए. राजनारायण को 1966, 67 और 1974 में निलंबित किया गया, लेकिन बाद में भाल भी किया जाता रहा. एक थे गौड़े मुरहरि. वे भी राजनारायण जैसे हामंगामाइड थे. उन्हें भी तीन मर्तबा निलंबन का सामना करना पड़ा किन्तु उन्हें भी ज्यादा दिन सदन से बाहर नहिंन रखा गया, बहाली दे दी गयी. भूपेश गुप्ता, बीएन मंडल जैसे असंख्य नाम हैं जो हंगामा करने में सिद्धस्त थे. ऐसे सदस्य यदि सदन में नहीं होते थे तो सदन में एक नीरसता छायी रहती थी.

प्रत्येक सदन में हंगामेबाज सदस्य चिन्हित होते हैं. इससे पहले भी कभी एक दर्जन तो कभी डेढ़ दर्जन सदस्य निलंबित किये गए लेकिन हल्की से मान-मनौवल के बाद सदन प्रमुख ने उन्हें बहाली दे दी. संसदीय इतिहास में लोकसभा में सबसे बड़ा निलंबन 1989 में हुआ था. सांसद पूर्व प्रधानमंत्री इंदिरा गांधी की हत्या पर ठक्कर कमीशन की रिपोर्ट को संसद में रखे जाने पर हंगामा कर रहे थे. अध्यक्ष ने 63 सांसदों को निलंबित कर दिया था. चार अन्य सांसद उनके साथ सदन से बाहर चले गए थे. कहने का आशय ये है की सदन में हंगामा करने वाले कांग्रेसी या वामपंथी अकेले नहीं है.जब जो विपक्ष में होता है अपनी-अपनी समझ और क्षमता के हिसाब से हंगामा करता है.

संसद में हंगामा न हो तो सवाल ये है कि हंगामा कहाँ हो ? संसद में ही देश की तकदीर गढ़ी जाती है इसलिए बहस-मुबाहिसे और हामंगामे भी संसद में होते हैं, लेकिन हर हंगामे के बाद सदन का सौहार्द बहाल करने की जिम्मेदारी सदन प्रमुख पर होती है. विपक्ष भी इस सौहार्द के लिए जिम्मेदार होता है और अक्सर कटुता बढ़ने से पहले ही समस्या का समाधान हो जाता है. लेकिन ऐसा पहली बार हो रहा है जब हंगामे के बाद 10 सदस्यों के निलंबन को लेकर गतिरोध निरंतर जारी है, इसे तोड़ने की कोशिशें नाकाम होती दिखाई दे रहीं हैं.

संसद में हंगामे की पहली घटना शायद 1963 में हुई थी। तब कुछ लोकसभा सांसदों ने तत्कालीन राष्ट्रपति सर्वपल्ली राधाकृष्णन के भाषण को बाधित किया और फिर जब वे दोनों सदनों को संयुक्त भाषण दे रहे थे तो वाक आउट कर गए। इन सांसदों को फटकार लगाते हुए लोकसभा खत्म हुई। 1989 में ठाकर आयोग की रिपोर्ट की चर्चा पर 63 सांसदों को लोकसभा से निलंबित कर दिया गया था। हाल ही में 2010 में, मंत्री से महिला आरक्षण बिल छीनने के लिए 7 सांसदों को राज्यसभा से निलंबित कर दिया गया था। उसके बाद तो ऐसे कई मामले हर सत्र में आते रहे हैं।

राज्यसभा के सभापति वेंकैया नायडू ने निलंबन वापसी की विपक्ष की मांग पर यह स्पष्ट कर दियाहै कि 12 विपक्षी सांसदों का निलंबन वापस नहीं होगा। उन्होंने कहा कि सांसद अपने किए पर पश्चाताप होने की बजाय, उसे न्यायोचित ठहराने पर तुले हैं। ऐसे में उनका निलंबन वापस लेने का सवाल ही नहीं उठता है। संसद के शीतकालीन सत्र के पहले दिन ही राज्यसभा के 12 सदस्यों के खिलाफ कड़ी कार्रवाई हुई है। उन सांसदों ने पिछले सत्र में किसान आंदोलन एवं अन्य मुद्दों के बहाने सदन में जमकर हो-हंगामा किया था और खूब अफरा-तफरी मचाई थी।

सदन के किसी भी सदस्य का निलंबन सदन के नियमों के अनुसार है या नहीं ये विवाद का विषय है और इस पर विवाद हो भी रहा है, किन्तु सबसे महत्वपूर्ण बात ये है कि इस विषय पर सदन प्रमुख से लेकर सरकार तक सदन सदस्यों के प्रति अपना वात्सल्य भाव खो चुकी है. आपको याद होगा कि संसद सत्र के पहले ही दिन राज्यसभा के 12 सदस्य पूरे सत्र से निलंबित कर दिए गए थे। इनमें कांग्रेस के 6, शिवसेना और टीएमसी के 2-2 जबकि सीपीएम और सीपीआई के 1-1 सांसद शामिल हैं- फुलो देवी नेताम, छाया वर्मा, आर बोरा, राजमणि पटेल, सैयद नासिर हुसैन और अखिलेश प्रताप सिंह (कांग्रेस), प्रियंका चतुर्वेदी और अनिल देसाई (शिवसेना), शांता छेत्री और डोला सेन (टीएमसी), एलमरम करीम (सीपीएम) और विनय विश्वम (सीपीआई)।

मुझे ये सौभाग्य प्राप्त है कि मै राजयसभा के एक दर्जन सभापतियों में से कम से कम 07 से सीधे मिल चुका हूँ और उनके कार्यकाल को मैंने देखा भी है. एम हिदायतुल्ला और शंकर दयाल शर्मा तो हमारे मध्यप्रदेश से ही आते थे. वर्तमान सभापति नायडू साहब को भी मै एक उदार नेता मानता हूँ लेकिन हाल की घटना में उनका निर्णय मुझे चौंकाता है. वे नियम कायदों से बंधे हैं या उनके साथ राजनीतिक प्रतिबद्धता ज्यादा महत्वपूर्ण हो गयी है, इसकी समीक्षा की जा सकती है .उन्होंने जो किया उनका अधिकार था, लेकिन वे सदन में सौहार्द बहाली के लिए यदि सदस्यों का निलंबन समाप्त कर देते हैं तो मुझे नहीं लगता कि कोई उनके हाथ पकड़ सकता है. उन्हें क्या करना चाहिए ये वे जानें लेकिन हर देशवासी को लगता है कि निलंबन समाप्त होना चाहिए. यही संसदीय लोकतंत्र की मांग है.
@ राकेश अचल

 

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