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रेवड़ियों की राजनीति का तीसरा काण्ड

राजनीति में हर चीज का महत्व है. बगावत, दलबदल, मौन, मुखरता सबके अपने मायने हैं.राजनीति को साधने के लिए राजनीतिक दल जनता की गाढ़ी कमाई पानी की तरह बहाते हैं और कोई विधि-विधान या ‘माई का लाल’ इसे रोक नहीं पाता. ‘सबका साथ, सबका विकास’ असल में राजनीति में ही मुमकिन है. मध्यप्रदेश की बैशाखियों पर खड़ी राजनीति के पहले अध्याय को देखें तो आपको तीसरे काण्ड में रेवड़ियों का महत्व समझ में आ जाएगा.

रामचरित मानस के ‘काण्ड’ सियासत के ‘काण्डों’ से तनिक अलग जरूर होते हैं, किन्तु होते रोचक हैं. गोस्वामी तुलसीदास यदि भक्ति मार्ग पर न चले होते वे तत्कालीन मुगलिया सल्तनत के जो काण्ड लिखते वे आज की राजनीति के काण्डों जैसे ही रोचक और सरस् होते. बहरहाल ये हो न सका. मध्य्प्रदेश की राजनीति में पहला बड़ा काण्ड लिखा गया था मार्च 2018 में जब कांग्रेस ने डेढ़ दशक पुरानी भाजपा की सल्तनत को उखाड़ फेंका था. लेकिन पहले काण्ड में [ जिसे आप मध्यप्रदेश का बालकाण्ड कह सकते हैं ] में ही 18 माह बाद दूसरा काण्ड लिख दिया गया. इसे बगावत का या असंतोष का काण्ड कहा जा सकता है. इस दूसरे काण्ड में तत्कालीन कांग्रेस के युवा नेता ज्योतिरादित्य सिंधिया अपने दो दर्जन समर्थकों के साथ कांग्रेस छोड़ भाजपा में शामिल हो गए थे. इसकी परिणति ये हुयी कि अठारह माह पहले उखड़ी भाजपा की सत्ता का बरगद एक बार फिर से स्थापित कर दिया गया. उप चुनाव हुए बाग़ी जीते और उन्हें मंत्रिपदों से नवाज दिया गया. बगावत का ईनाम ही मंत्रिपद होता है.

मध्यप्रदेश में राजनीति का तीसरा अध्याय 25 माह बाद लिखा गया. इस अध्याय में सिंधिया के साथ भाजपा में आये लेकिन उपचुनाव हारे नेताओं को निगम-मंडलों में अध्यक्ष-उपाध्यक्ष जैसे पद देकर उपकृत किया गया है. राजनीति में जय-पराजय दोनों सम्मान के काबिल मानी जाती है. राज्य के मुख्यमंत्री मामा शिवराज सिंह पर राजनीति की रेवड़ियां बांटने के लिए बेहद दबाव था. उन्होंने जैसे -तैसे 21 माह तो अपनी थैली बंद रखी लेकिन अंतत: रेवड़ियां बांटना पड़ीं.

रेवड़ी मीठी होती है, उसमें तिल भी होता है. रेवड़ी चबाने में भी बड़ा मजा आता है, इसलिए अक्सर सर्दियों में ही इस्तेमाल की जाती है. मुख्यमंत्री ने भी देख लिया की सर्दियां आ गयीं हैं तो उन्होंने रेवड़ियां बाँट दी. रेवड़ियां अक्सर मजारों पर बांटे जाने वाले ‘तबर्रुक’ में इस्तेमाल की जाती हैं. राजनीति में भी कमोवेश इनका इस्तेमाल ‘तबर्रुक’ जैसा ही होता है. सिंधिया के समर्थक खुशनसीब निकले की उन्हें पराजय के बावजूद इनाम में रेवड़ियां मिलीं और कुछ ज्यादा ही मिलीं. इस वजह से भाजपा में सालों-साल फर्स उठाने वाले कार्यकर्ता नाराज हैं.

राजनीति की रेवड़ियां बांटने में जाहिर है कि मुख्यमंत्री शिवराज सिंह चौहान और भाजपा के प्रदेशाध्यक्ष वीडी शर्मा को बहुत मशक्क्त करना पड़ी होगी. दोनों ने सत्ता का सिंहासन सजवाने वाले ज्योतिरादित्य सिंधिया के चोबदारों को जो माँगा गया सो दिया, हालांकि इन तमाम को जनता उपचुनाव में खारिज कर चुकी थी, लेकिन जनता कौन होती है ? जनता के खारिज करने से क्या होता है ? सियासत में जनता द्वारा ख़ारिज नेताओं के लिए तमाम चोर दरवाजे होते हैं. जनता द्वारा ख़ारिज ज्योतिरादित्य सिंधिया को भी सियासत ने आखिर राज्य सभा भेजकर केंद्र में मंत्री बनाया है कि नहीं ?

सिंधिया का लोहा मानना पडेगा कि उन्होंने अपने तमाम चोबदारों के मान-सम्मान का ख्याल रखा. श्रीमती इमरती देवी से लेकर गिर्राज दंडोतिया तक को मंत्री समकक्ष पद दिलवा दिए. ऐदल सिंह कंसाना को भी अब पैदल नहीं चलना पडेगा, मुन्नालाल गोयल भी अब पराजय की टीस से उबर जायेंगे. राजनीति के रण में हारे रणवीर जाटव भी अब राजसुख भोग सकेंगे. ये कुछ नाम हैं ऐसे अनेक नाम हैं जो जनता द्वारा खारिज किये जा चुके हैं किन्तु सिंधिया की कृपा उन पर बनी रही.

निगम-मंडलों में अध्यक्ष और उपाध्यक्षों के पद दरअसल प्रशासनिक दक्षता या जरूरत के हिसाब से नहीं बल्कि अपने-अपने समर्थकों को उपकृत करने के लिए बनाये गए हैं. कांग्रेस के जमाने में ये प्रयोग किया गया था जो बाद में डेढ़ दशक सत्ता में रही भाजपा के भी खूब काम आया. भाजपा सरकार ने सिंधिया के समर्थकों को उपकृत करने के साथ ही अपने कार्यकर्ताओं को भी रेवड़ियां बांटी हैं. रेवड़ी वितरण में थोड़ा-बहुत असंतोष तो होता ही है सो आज भी है और कल भी रहेगा. राजनीति में यदि असंतोष समाप्त हो जाए तो राजनीति नीरस न हो जाये ? नए अध्याय भी फिर न लिखे जाएँ.

रेवड़ियों पर सत्तारूढ़ भाजपा के नेताओं और समर्पित कार्यकर्ताओं का तो पहला अधिकार बनता ही है लेकिन ये पहली बार हुआ की दल-बदल कर भाजपा में आये पुराने कांग्रेसियों को रेवड़ियां कुछ ज्यादा मिल गयीं. भाजपा के एक तपोनिष्ठ नेता का तो कहना है कि अब भाजपा में रहकर सत्ता सुख हासिल करना है तो बारास्ता कांग्रेस आना चाहिए. निश्चित ही ये असंतोष की ही अभिव्यक्ति है, ऐसे छोटे-मोठे असंतोष झेलने की क्षमता हर मुख्यमंत्री में होती है. शिवराज सिंह चौहान में भी है. बड़े असंतोष को शांत करने के लिए छोटे असंतोष तो सहना ही पड़ते हैं.

भाजपा के इस तीसरे अध्याय से जाहिर हो गया है कि सिंधिया की राजनीतिक महात्वाकांक्षाएं किस कदर हिलोरें मार रहीं हैं. उन्होंने अपने सभी चोबदारों को सत्ता में शामिल कर अपनी भावी लड़ाई के लिए तैयारी कर ली है. सिंधिया अपनी इस फौज के साथ आने वाले दिनों में किसी भी चुनौती का सामना करने का साहस कर सकते हैं. फिर चाहे वो चुनौती लोकसभा चुनावों की हो या उससे पहले विधानसभा चुनावों की. लेकिन देखना होगा की सिंधिया ने जिस तरह से जनता द्वारा खारिज लोगों को मान-प्रतिष्ठा दिलाई है उसे जनता बर्दाश्त करेगी या नहीं ? साथ ही क्या ये लोग सचमुच सिंधिया के लिए राजनीति दृष्टि से उपयोगी साबित हो पाएंगे ?

मुख्यमंत्री शिवराज सिंह चौहान की पोटली में कुछ और रेवड़ियां पड़ी हैं जिन्हें कभी भी बांटा जा सकता है. रेवड़ियां बनी ही बांटने के लिए हैं. मुझे लगता है की शिवराज सिंह चौहान अपना बाक़ी का कार्यकाल इन्हीं रेवड़ियों के सहारे पूरा कर लेंगे, ये बाद की बात है की अगला अध्याय उनके लिए लिखा जाएगा या उनके बिना लिखा जाएगा. फिलहाल आप नए 25 चोबदारों को बधाई और शुभकामनाएं अवश्य दीजिये.
@ राकेश अचल

 

 

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