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बड़ी अदालत के बड़े सदके

राकेश अचल

बड़ी अदालत बड़ी ही होती है । बड़ी अदालत का बड़ा बड़प्पन होता है। बड़ी दृष्टि होती है,बड़ा दिल होता है । शायद इसीलिए बड़ी अदालत बड़ी अदालत कही जाती है। गुरुवार को बड़ी अदालत ने भारत में ही नहीं अपितु पड़ौसी पाकिस्तान में भी अपनी गुरुता का परिचय अपने फैसलों के जरिये दिया । बड़ी अदालतों के बड़े फैसले भारत और पाकिस्तान की राजनीतिक दशा और दिशा को बदलने वाले हो सकते हैं ,बाशर्त की सब इन फैसलों का सम्मान करें और अदालत की मंशा के मुताबिक़ काम करें।

दुनिया में हो न हो लेकिन भारत और पाकिस्तान में छोटी-बड़ी अदालतों के लिए ये सबसे बुरा दौर है। अदालतों का सत्ता से निरंतर टकराव हो रहा है । अदालतों के फैसलों पर उंगलियां उठाई जा रहीं हैं और तो और दूसरे संवैधानिक संस्थानों की तरह अदालतों को भी अविश्वसनीय बनाने की नाकाम कोशिश की जा रही है। अदालतों को प्रभावित किया जा रहा है ,लालच दिए जारहे हैं। बावजूद इसके अदालतें अपना काम कर रहीं हैं.। कहीं कम तो कहीं ज्यादा। अदालतें राहत भी देतीं हैं,निराश भी करतीं है और नजीरें भी पेश करतीं हैं । इसीलिए मुझे अदालतों पर आज भी यकीन है । दूसरों को भी होगा ही। .
भारत की सबसे बड़ी अदालत ने दिल्ली सरकार को राहत दी और केंद्र के नुमाइंदे लेफ्टिनेंट जनरल के अधिकारों को स्पष्ट करते हुए दिल्ली की निर्वाचित सरकार के वे अधिकार बहाल किये जिनका अतिक्रमण लेफ्टिनेंट जनरल अक्सर किया करते हैं। कभी-कभी तो लगता है जैसे दिल्ली में चुनी हुई सरकार है ही नहीं । सबसे पहले दिल्ली की बात कोई जाये। मुख्य न्यायाधीश डीवाई चंद्रचूड़ की अगुआई वाली पांच सदस्यीय संविधान पीठ ने फैसला सुनाते हुए कहा कि दिल्ली में जमीन, पुलिस और कानून-व्यवस्था को छोड़कर बाकी सारे प्रशासनिक फैसले लेने के लिए दिल्ली की सरकार स्वतंत्र होगी। अधिकारियों और कर्मचारियों का ट्रांसफर-पोस्टिंग भी कर पाएगी। उपराज्यपाल इन तीन मुद्दों को छोड़कर दिल्ली सरकार के बाकी फैसले मानने के लिए बाध्य हैं।
एक तरह से ये फैसला दिल्ली की केजरीवाल सरकार के लिए बड़ी जीत है। वहीं, केंद्र सरकार और उपराज्यपाल को बड़ा झटका लगा है। केंद्र को इस तरह के झटके की जरूरत थी ,क्योंकि केंद्र ने राजनीतिक अदावतों को भुनाने के लिए उप राज्यपाल को अपना औजार बना रखा है। केवल दिल्ली में ही नहीं बल्कि जहां -जहां दिल्ली जैसी स्थितियां हैं वहां-वहां .उम्मीद है कि अब केंद्र सरकार के एजेंट तमाम उप राज्यपाल अपनी हदों में रहेंगे .उन्हें हदों में रहना चाहिए ,क्योंकि लोकतंत्र के लिए ऐसा आवश्यक है .उप राज्यपाल और राज्यपालों के केंद्र के इशारे पर राज्यों की निर्वाचित सरकारों से टकराने और उन्हें परेशान करने के असंख्य किस्से हैं. उन पर चर्चा फिर कभी।
बड़ी अदालत का दूसरा बड़ा फैसला महाराष्ट्र में लोकतंत्र के साथ मजाक से जुड़ा है। यहां सत्ता लोलुपता और नैतिकता के बीच जंग थी । बड़ी अदालत ने महाराष्ट्र विधान सभा अध्यक्ष और राज्यपाल की भूमिका पर उँगलियाँ उठाएं लेकिन बड़ी अदालत महाराष्ट्र के पूर्व मुख्यमंत्री उद्धव ठाकरे को बहाल नहीं कर सकी,क्योंकि ठाकरे ने नैतिकता के आधार पर खुद इस्तीफा दिया था । सत्ता हथियाने में नैतिकता की जरूरत नहीं पड़ती और ये दौर नैतिकता का है भी नहीं। ऐसे में ठाकरे साहब को बड़ी अदालत के फैसले पर संतोष करने के अलावा कोई दूसरा विकल्प नहीं है। अब उन्हें जनता की अदालत के फैसले का इन्तजार करना चाहिए।
गनीमत है कि देश में अभी कुर्सी की लड़ाई ही अदालतों तक पहुंचती है। सरकारों के उत्तरदायित्व की नहीं ,अन्यथा बड़ी अदालत में आज मणिपुर की हिंसा भी फैसले के लिए आ सकती थी । मणिपुर में राज्य सरकार पूरी तरह नाकाम रही है । केंद्र का इंजन भी मणिपुर की मदद नहीं कर सका। वहां सब कुछ भगवान भरोसे हैं। .मणिपुर में क्या चल रहा है,कोई नहीं जानता ,क्योंकि खबरें छन-छन कर आ रहीं हैं।

बड़ी अदालत का तीसरा बड़ा फैसला पड़ौसी देश पाकिस्तान का है। हिंसा की आग में जल रहे पकिस्तान की बड़ी अदालत ने पूर्व प्रधानमंत्री इमरान खान की गिरफ्तारी को गैरकानूनी करार देते हुए खान साहब को फौरन रिहा करने के निर्देश दिए हैं । पकिस्तान में अदालतों की दशा भारत जैसी नहीं है ,फिर भी जैसी है उल्लेखनीय है । गनीमत है कि पाकिस्तान की हुकूमत और सेना ने बड़ी अदालत का फैसला मानते हुए इमरान खान साहब को रिहा कर दिया है । अगर वे रिहा न भी किये जाते तो शायद अदालत भी हाथ खड़े कर देती। .

इमरान खान की गिरफ्तारी और रिहाई से मुमकिन है कि सीधे तौर पर हमारा कोई लेना-देना न बनता हो किन्तु पड़ौसी देश की सियासी हरकतें हमारे लिए भी महत्वपूर्ण हैं क्योंकि पाकिस्तान हमारा पड़ौसी ही नहीं बल्कि एक अमित्र राष्ट्र भी है । वहां कौन नेता है इसका असर हमारे रिश्तों पर पड़ता है । कभी कम तो कभी ज्यादा। ऐसे में इमरान खान की रिहाई पाकिस्तान की जम्हूरियत के लिए एक शुभ लक्षण है और इसके लिए पाकिस्तान की सबसे बड़ी अदालत का शुक्रिया अदा किया जाना चाहिए । आप जानते हैं कि अदालतें किसी से कोई शुकराना नहीं मांगतीं ,हाँ उन्हें अपने कामकाज में किसी भी दखल पसंद नहीं । अदालतों को कोई आँखें दिखाए ये भी उचित नहीं है। .हमारे यहां ये काम पिछले कुछ वर्षों से हो रहा है। बड़ी बेशर्मी से हो रहा है । सरकार के संरक्षण में हो रहा है ।

बहरहाल बड़ी अदालतों के बड़े फैसलों की इन दिनों सब दूर चर्चा है । मुमकिन है इन फैसलों से जनता में अदालतों के प्रति विशवास और बढ़े । विश्वास का संकट अदालतों के सामने भी है और सत्ता के सामने भी। दूसरी संवैधानिक संस्थाएं भी विश्वास के संकट से जूझ रहीं हैं । जब तक संविधानिक संस्थाओं के प्रति जनता में विश्वास है तभी तक दुनिया में लोकतंत्र सुरक्षित है .बाक़ी तो भगवान सबका मालिक है ही।

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