यह भारतीय क्रिकेट की देवियों का नया अवतार है….
                                अजय बोकिल
आईसीसी महिला वन-डे वर्ल्ड कप 2025 में कप्तान हरमनप्रीत कौर की अगुवाई में भारतीय महिला क्रिकेट टीम का विश्व चैम्पियन बनना दरसअल भारतीय क्रिकेट की देवियों का नया अवतार है। 52 साल पहले शुरू हुए इस टूर्नामेंट में भारतीय बेटियों की इस पहली खिताबी जीत ने 1983 में भारतीय कप्तान कपिल देव के नेतृत्व में पुरूष क्रिकेट टीम द्वारा पहली बार जीते वन-डे विश्वकप की याद दिला दी। जिसने भारत में क्रिकेट को एक धर्म में तब्दील कर दिया। अब भारत की छोरियों ने उसी धर्म को नई ऊंचाइयां और विस्तार देते हुए पुरूष और महिला क्रिकेट में एक नया अद्वैत स्थापित कर दिया है कि मुकाबला कोई-सा भी हो, हम किसी से कम नहीं। यह भारतीय क्रिकेट के कायांतरण का दूसरा अध्याय है। इस अद्वैत का आनंद अवर्णनीय है।
भारत में महिलाएं क्रिकेट तो पचास सालों से भी ज्यादा समय से खेल रही हैं। लेकिन उसे बहुत गंभीरता से शायद ही कभी लिया गया हो। यहां तक कि दो बार अंतरराष्ट्रीय महिला वन-डे कप में फाइनल तक पहुंचने के बाद भी महिला क्रिकेट को तुच्छ भाव से ही देखा जाता रहा। मानो इस खेल पर पुरूषों के एकाधिकार का ठप्पा लगा हो। दुर्भाग्य से हर मामले में महिलाअों को खुद को ‘प्रूव’ करने पुरूषों से ज्यादा मशक्कत करनी पड़ती है। बार-बार अग्निपरीक्षाएं देनी पड़ती हैं। लेकिन बेटियां हैं कि पीछे नहीं हटतीं। नवी मुंबई के डी.वाय.पाटिल स्टेडियम पर 2 नवंबर को यशस्विता का यही पर्व बिल्कुल नए अंदाज में और पूरी दमदारी के साथ लिखा गया।
यूं भारतीय महिला टीम से उम्मीदें तो इस बार भी थीं। लेकिन उसके किसी तरह सेमीफाइनल में पहुंचने की जद्दोजहद के बाद शंका होने लगी थी कि यह सफर अधूरा ही खत्म न हो जाए। लेकिन टीम हरमन की तारीफ करनी होगी कि सेमीफाइनल से उसने अपनी ही ताकत को पहचाना और उसमें लगातार सुधार करते हुए हर हाल में जीत के जज्बे को पुख्ता किया। कप्तान हरमनप्रीत कौर और टीम प्रबंधन ने कई बार जोखिम भरे लेकिन दूरदर्शितापूर्ण निर्णय लिए, जिससे बाजी पलटने में मदद मिली। मसलन आॅस्ट्रेलिया के साथ सेमीफाइनल में जेमिमा रोड्रिग्स को ऊपर के क्रम में भेजना। रिचा घोष की काबिलियत का सही इस्तेमाल करना। टीम की भरोसेमंद अोपनर प्रतिका रावल के चोटिल होने के बाद अचानक युवा शेफाली वर्मा से, जो पहले टीम में ही नहीं थी, को बुलाकर अोपनिंग करवा कर गेंद थमाना वाकई उत्कृष्ट कप्तानी की मिसाल थी। शेफाली मानो धूमकेतु की तरह आई और छा गई। रन भी बनाए और सही मौके पर विकेट भी चटकाए। 22 साल से भी कम उम्र की ये लड़की पहले अपने पहले वर्ल्ड कप के फाइनल में ‘प्लेयर आॅफ द फाइनल’ का खिताब अपने नाम कर गई। भारतीय महिला खिलाडि़यों का प्रदर्शन कई डिपार्टमेंटों में सराहनीय रहा। यही कारण है कि दीप्ति शर्मा को सर्वाधिक विकेटों के साथ उल्लेखनीय रन बनाने के लिए ‘प्लेयर आॅफ द टूर्नामेंट’ की ट्राॅफी मिली। यानी भारत की बेटियों ने केवल आईसीसी ट्राॅफी ही नहीं जीती, बाकी अवाॅर्ड भी जीते। इस मायने में खेल के मैदान में भारतीय टीम की यह चौतरफा जीत है। इस टीम ने अंतरराष्ट्रीय महिला वन-डे विश्वकप टूर्नामेंट में सात बार चैम्पियन रही आॅस्ट्रेलियाई टीम का घंमड भी तोड़ा। साथ ही पहली बार ये ट्राॅफी भारत और एशिया में लेकर आईं।
इस शानदार जीत से भारतीय महिला क्रिकेट को यकीनन नई उड़ान और लोकप्रियता मिलेगी। इसका पहला प्रमाण तो फाइनल मैच के दिन दर्शकों से खचाखच भरा स्टेडियम था, जिसमें महिलाअों से ज्यादा तादाद पुरूषों की थी। संदेश साफ है कि अब महिला क्रिकेट को ‘हल्के में’ नहीं लिया जा सकेगा। आइंदा वक्त में ये मैच उतने की रोमांचक और दर्शनीय होंगे, जितने िक पुरूषों के क्रिकेट मैच होते हैं।
भारतीय महिला क्रिकेट टीम की यह ‘विश्व विजय’ स्त्री शक्ति की पुरूष वर्चस्व को खुली चुनौती है तथा समुचित सम्मान और स्वीकार्यता का खेल भावना में पगा आग्रह भी है। यह एक अलार्म भी है कि दुनिया किसी की लैंगिक बपौती नहीं है। खासकर खेल तो नहीं ही है। क्रिकेट की ‘जेंटलमैन’ दुनिया में ‘जेंटलवीमेन’ का यह सुंदर और जानदार हस्तक्षेप है। इसमे यह चेतावनी भी निहित है कि बात प्रतिस्पर्द्धा की हो तो बेटियां भी उतनी ही आक्रामक, निर्मम और जुझारू हो सकती हैं। यही भारतीय महिला क्रिकेट का नया अवतार है। देवी के शक्ति रूप का नया विस्तार है। यह अदम्य आकांक्षा को जीने वाली भारतीय बेटियों की महत्वांक्षाअों के साम्राज्य में स्पष्ट मुनादी है कि कोई क्षेत्र अब उनसे अछूता और अविजित नहीं है। बस, जरूरत है, उन्हें अवसर देने और उनकी क्षमताअों को मन से स्वीकार करने की।
जहां तक क्रिकेट की बात है तो पुरूष महिला समानता के संवैधानिक मूल्य की व्यावहािरक इबारत तभी लिख दी गई थी, जब 2006 में बीसीसीआई द्वारा आईसीसी के निर्देश पर भारत में अलग महिला क्रिकेट बोर्ड को भंग कर सभी को बीसीसीआई के छाते तले लाया गया। महिला खिलाडि़यों को भी पुरूष खिलाडि़यों के समान धनराशि और सुविधाएं देने की शुरूआत हुई। उन्हें पुरूष टीम के जैसी ही कोच व सहायता उपलब्ध कराई गईं। पुरस्कार और प्रोत्साहन की राशि एक-सी कर दी गई। महिला खिलाडि़यों के लिए डब्लूपीएल शुरू हुआ। इससे महिला खिलाडि़यों का उत्साह बढ़ा और जीत की जिद भी पक्की होती गई। उन्हें लगा कि क्रिकेट में भी कॅरियर और कमाई हो सकती है। इस का नतीजा धीरे-धीरे दिखने लगा। 2007 और 2015 के अंतरराष्ट्रीय महिला वन-डे वर्ल्ड कप में भारतीय टीम फाइनल तक पहुंची। लेकिन बेटियों के इस पराक्रम पर स्वर्ण कलश चढ़ना अभी बाकी था, जो टीम हरमनप्रीत कौर ने प्रतिष्ठापित कर दिखाया। क्रिकेट की वीरागंनाएं समाज के अलग वर्गों से और कुछ तो बहुत ही साधारण गरीब परिवारों से आई हैं, लेकिन उनमें संघर्ष और जीत का जज्बा आकाश जैसा है। न भूलें कि मध्यम और निम्न वर्ग से उठकर आने वाली प्रतिभाओं ने ही भारत में पहले पुरूष क्रिकेट को ताकतवर बनाया, अब वही महिला क्रिकेट की संजीवनी बनकर उभर रहा है। जाहिर है िक भारत में महिला क्रिकेट के नए अवतार का यह मंगलाचरण है। गौरवशाली शुरूआत है। अभी तो कई क्षितिजों को छूना है। जिस तेजी से प्रतिभाशाली युवा बेटियां राष्ट्रीय स्तर पर क्रिकेट के दरवाजे खटखटा रही हैं, उसे यह भरोसा और पुख्ता होता है कि हम इस क्षेत्र में भी वैश्विक ताकत बनते जा रहे हैं। एक देश को इससे ज्यादा क्या चाहिए ?
        




