वृंदावन। श्रीमद्भागवत के चरम श्लोक के रूप में उल्लेख है कि समस्त ब्रह्मांड को ज्ञान देने और उद्धार करने के लिए ही सूर्य जब सिंह राशि में थे, रोहिणी नक्षण और अष्टमी तिथि थी, भगवान कृष्ण ने उसी रात 12 बजे जन्म लिया था। श्री रामानुज संप्रदाय इसी मूल मंत्र के आधार पर दक्षिण भारतीय परंपराओं को निर्वहन करते हुए सदियों से श्रीकृष्ण की आराधना और सेवा-पूजा करता आ रहा है। दावा है कि वृंदावन में रंगजी मंदिर उत्तर भारत का सबसे बड़ा और भव्य मंदिर है। यहां सभी देवी-देवताओं को विशेष रूप से तिथियों और नक्षत्रों के अनुसार ही पूजा जाता है। प्रभु को नाबालिग मान कर उनके संरक्षक के रूप में आहार-विहार और व्यवहार की सभी क्रियाएं विधि-विधान से संपन्न होती हैं।
धार्मिक नगरी वृंदावन में द्रविड़ शैली में निर्मित सबसे भव्य और बड़ा ऐसा अद्भुत मंदिर है, जिसके निर्माण में उत्तर भारत की कलात्मकता का संगम दिखाई देता है। इसे रंगजी मंदिर और रंगनाथजी मंदिर के नाम से भी जाना जाता है। जन जन की आस्था के केंद्र इस मंदिर में मंगलवार को जन्माष्टमी मनाई जाएगी। यहीं पर भगवान विष्णु मां लक्ष्मी को कृष्ण रूप में प्राप्त हुए।
श्रीरंगम से पधारे रामानुज वैष्णव संप्रदाय के रंगदेशिक स्वामीजी के मार्गदर्शन में लक्ष्मीचंद जैन ने संवत् 1901 में इसका निर्माण शुरू कराया था। दक्षिण भारतीय कारीगरों के साथ उत्तर भारत के कारीगरों ने लगातार 12 वर्षों में उत्तर भारत के इस सबसे बड़े और भव्य मंदिर का निर्माण पूरा किया। यह मंदिर प्रमुख रूप से यह भगवान श्री गोदा-रंगमन्नार (मां लक्ष्मी-भगवान विष्णु) को समर्पित है। यह मंदिर तमिलनाडु के श्रीरंगम में स्थित रंगनाथस्वामी मंदिर से प्रेरित होकर बनाया गया है।
लक्ष्मीजी ने वृंदावन में पाने के लिए किया था उपवास, दूल्हे के रूप में होती है पूजा
मंदिर के सेवक तिरुपतिजी ने बताया कि मान्यता के अनुसार, मां गोदा देवी ने भगवान रंगमन्नार या भगवान विष्णु को वृंदावन में पाने के लिए उपवास और प्रार्थना की थी। वे यमुना किनारे साधनारत रहीं। भगवान रंगनाथ ने उनका दूल्हा बनकर उनकी इच्छा पूरी की। यहां भगवान रंगनाथ को दूल्हे के रूप में पूजा जाता है। मंदिर के निर्माण की परिकल्पना वैकुंठधाम में निवासरत देवी-देवताओं पर की गई थी, ताकि श्रद्धालुओं को वैकुंठधाम में प्रभु की दिनचर्या, पूजन-पाठ, आहार विहार के दर्शन सुलभ हो सकें।
मंदिर में मुख्य अचल प्रतिमाओं के साथ हैं अलग-अलग पांच मूर्तियां
1. विशाल विग्रह – अचल प्रतिमाएं
2. उत्सव मूर्ति – ये चल प्रतिमाएं हैं, इन्हें विभिन्न अवसरों पर विहार के लिए निकाला जाता है। प्रभु को विहार कराने की परंपरा का उद्देश्य है कि समस्त ब्रह्मांड का कल्याण हो, सभी जीव-जंतु, वृक्ष व जगत प्रभु के दर्शन कर सकें। साल भर में मंदिर में 400 से अधिक बार प्रभु को विहार कराया जाता है।
3. यज्ञ मूर्ति – मंदिर में समय-समय पर होने वाले यज्ञ-अनुष्ठानों के दौरान प्रभु के मूल स्वरूप की ये लघु प्रतिमाएं विराजित की जाती हैं।
4. बलि प्रदान मूर्ति – ये वे प्रतिमाएं हैं, जिन्हें छोटी पालकी में विराजित कर नित्य रूप से प्रातः और संध्या में मंदिर परिसर की परिक्रमा कराई जाती है। इस दौरान पारंपरिक वाद्य यंत्र और मंत्र गूंजते हैं। परिक्रम के दौरान सूर्यादिक ग्रहों को प्रसादम् अर्पित किया जाता है।
5. शयन मूर्ति – शयन आरती के बाद सोने के झूले और चांदी के पलंग पर प्रभु शयन करते हैं।
पुष्करणी के पवित्र जल से मंदिर में ही बनता है प्रसाद
तिरुपतिजी ने बताया, प्रभु की सेवा-पूजा और अनुष्ठान का जिम्मा दक्षिण भारत के पंडित और उनके सहयोगी करते हैं। पूर्ण स्वच्छता और विधि-विधान से पीतल के बर्तनों में प्रसाद बनाया जाता है। मंदिर परिसर में मंडपम के एक छोर पर पुष्करणी (जलाशय/ बावड़ी) है, जिसमें भूगर्भ से स्वतः ही जल एकत्र होता है और इसी का जल प्रभु के प्रसाद को बनाने में काम आता है। वहीं, मंडपम् के दूसरी ओर लक्ष्मी जी की बगीची (शुक्रवारी बगीची) है, जिसमें भगवान को विहार कराया जाता है।