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वृक्षारोपण से ज्यादा पौधों के संरक्षण एवं संवर्धन की अधिक आवश्यकता है: जन्मजय नायक


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R.O. No. 13250/32

० पौधारोपण सिर्फ सरकारी दिखावे खाना पूर्ति की औपचारिकता भर रह गई है
० पौधरोपण के बाद पलट कर देखने वाला कोई नही
दिलीप गुप्ता



सरायपाली। वर्षाऋतु आते ही सरकार , प्रशासन , वन विभाग , विभिन्न शैक्षणिक व निजी संस्थानों के दिमागों में पौधारोपण का कीड़ा कुलबुलाने लगता है । सभी ऐसा प्रयास व दिखावा करते हैं कि वही सबसे बड़े पर्यावरण के चिंतक है । पौधारोपण कार्यक्रमों में अपना नम्बर बढ़ाने व दिखाने इस तरह सक्रिय दिखाई देते हैं जैसे उन्हें पौधरोपण की गहरी पहचान है ।सुरक्षित पर्यावरण वन हैं तो हम हैं पर लंबी भाषण बाजी के बाद पौधारोपण में वीडियो व फोटो क्लिपों की आवाजें तेज हो जाती है । कार्यक्रम समाप्त होते ही आगे पाठ पीछे सपाट की स्थिति निर्मित हो जाती है । दिखावे व औपचारिकता के लिए बड़े बड़े कथित पर्यावरणविद व आयोजक फिर वापस पलट कर नही देखते की तामझाम के बीच लगाया गया पौधा जिंदा भी है या नही । प्रदेश स्तर पर आकड़ें जारी होंगे जो अविश्वसनीय लगते है। इतने करोड़ पौधे रोपे गए जबकि वास्तविकता कुछ और होती है । जिस तरह प्रतिवर्ष आंकड़े दिए जाते हैं उसके हिसाब से तो जितनी जमीन नही होगी उससे कहीं अधिक पौधरोपण के आंकड़े आ जाते हैं ।

इस संबंध में वंदेमातरम् सेवा संस्थान छत्तीसगढ़ के उपाध्यक्ष जन्मजय नायक ने जसनकारी देते हुवे बताया कि बारिस का मौसम प्रारंभ होते ही हर वर्ष वृक्षारोपण का मौसम आ जाता है।लेकिन,यदि इस आयोजन की जमीनी हकीकत पर नजर दौड़ायें तो यह महज अखबारी सुर्खियां बटोरने अथवा पौधे लगाकर अपने कर्तव्यों की इतिश्री करने का साधन बनते जा रहा है।गौरतलब है कि सरकारी तंत्र एवं कई निजी और सामाजिक संगठन वर्षाऋतु में बड़े पैमाने पर वृक्षारोपण समारोह का आयोजन करते हैं तथा इसमें स्कूल,कॉलेज छात्र सहित जनसामान्य भारी संख्या में हिस्सा लेते हैं।लेकिन विडंबना है कि आयोजन के बाद रोपित पौधों के देखरेख तथा संवर्धन की दिशा में आयोजकगण उदासीन हो जाते हैं।फलस्वरूप चंद दिनों बाद इन पौधों की ठूंठ भी दिखलाई नहीं पड़ती।नायक ने आगे कहा है आखिर इस प्रकार के आयोजन का औचित्य ही क्या है?यह सर्वज्ञात है कि पर्यावरण संरक्षण में वृक्षों का महत्वपूर्ण योगदान है।दूसरी ओर,ग्लोबल वार्मिंग,वर्षा के प्रतिशत में गिरावट तथा जलवायु परिवर्तन जैसे मुद्दे तो अब 5 जून में “विश्व पर्यावरण दिवस”के दिन ही वातानुकूलित सभाकक्ष में बैठकर शब्दों की जुगाली करने का साधन बन चुका है।बहरहाल,उस त्रासदी से निबटने का प्रमुख उपाय केवल वृक्षारोपण एवं वनसंरक्षण ही है।बशर्ते यह हमारी सर्वोच्च प्राथमिकता में हो।

विडम्बना यह है कि हमारे देश में पर्यावरण संरक्षण पर होने वाले प्रयास अथवा आयोजन महज रस्म अदायगी बनकर रह जाते हैं।गौरतलब है कि प्रदेश में वनों के प्रतिशत में कमी आ रही है।आंकडों के अनुसार प्रदेश में 44 प्रतिशत वन क्षेत्र हैं लेकिन सरकारी एवं औद्योगिक उद्देश्य के चलते पेड़ों को काटा जा रहा है जिससे वनों के प्रतिशत में निश्चित गिरावट आई है।विडंबना यह भी है कि वन संरक्षण की तमाम योजनाओं एवं कानूनों के बावजूद देश एवं प्रदेश में वन क्षरण रोकने में सफलता नहीं मिल पाई है।इस असफलता के पृष्ठभूमि में प्रयासों के प्रति उदासीनता एवं प्रतिबद्धता में कमी है।उल्लेखनीय है कि छत्तीसगढ़ प्रदेश में वर्षों पूर्व”हरियर छत्तीसगढ़ “के नाम से महत्वाकांक्षी योजना का आगाज किया था।योजना के तहत प्रदेश के एक जिले के कलेक्टर ने एक दिन में रिकार्ड पौधारोपण का आयोजन किया था,लेकिन अब इन पौधों के निशान भी बाकी नहीं है,ये पौधे या तो मवेशियों के भोजन बन गए अथवा संरक्षण के अभाव में सूख गए,इस योजना के निराशाजनक हश्र के लिए केवल सरकार ही नहीं समाज भी जवाबदेह है।बहरहाल,सरकार और समाज को पर्यावरण संरक्षण कानून के प्रति ज्यादा सजग होना पड़ेगा। नायक ने आगे कहा है “विकास के नाम पर विनाश कतई उचित नहीं है”।विकास शुरू में बहुत लुभावना लगता है लेकिन जब यह विनाश में तब्दील होता है तो यह बड़ा ही प्रलयंकारी होता है।समय रहते यदि प्रकृति की चेतावनी को अनदेखी की गई तो विनाश निश्चित है।हालिया परिप्रेक्ष्य में “वृक्षारोपण से ज्यादा पौध संरक्षण एवं संवर्धन आवश्यक है”तभी वृक्षारोपण अभियान की सार्थकता सिद्ध होगी।उस दिशा में सरकार और समाज दोनों को जवाबदेही निभानी होगी।

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