इसे मध्यप्रदेश में कोरोना कहर से जूझने में असहायता से उपजा ‘श्मशान वैराग्य’ कहें अथवा एक आध्यात्मिक सत्य का राजनीतिक उद्घोष कि जो उम्रदराज है, उसे जाना ही है। फिर जाने का निमित्त चाहे कोरोना ही क्यों न हो। और जब जाना ही है तो काहे का गम? इस आशय के उद्गार मध्यप्रदेश के एक कैबिनेट मंत्री प्रेमसिंह पटेल के हैं, जिन्होंने ये मीडिया के इस सवाल कि राज्य में कोरोना वायरस से होने वाली मौतों के आंकड़ों को सरकार छिपा क्यों रही है, के जवाब में व्यक्त किए। पटेल आदिवासी बहुल बड़वानी जिले से आते हैं और उन्होंने जो कहा वह ‘सहज अभिव्यक्ति’ ही थी। इस पर राज्य के कांग्रेस नेता व पूर्व मंत्री जीतू पटवारी की टिप्पणी थी कि पटेल ने जो कहा वह कोरोना विभीषिका में राज्य सरकार की असंवेदनशीलता का ही परिचायक है। हालांकि प्रेम सिंह पटेल ने बाद में अपनी सफाई में कहा कि उनके बयान को गलत ढंग से प्रस्तुत किया गया।
उनके कहने का तात्पर्य यह था कि ‘जो मौतें हो रही हैं, इन्हें कोई नहीं रोक सकता। कोरोना से बचने के लिए सब लोग सहयोग की बात कर रहे हैं, विधानसभा में हम सबसे चर्चा कर रहे हैं। हर जगह डॉक्ट रों की व्यहवस्थान की गई है। और आप कह रहे हैं रोजाना बहुत लोग मर रहे हैं तो लोगों की उम्र हो जाती है तो मरना भी पड़ता है।’ बेशक मंत्री पटेल ने जो कहा वह यथार्थ ही है। मध्यप्रदेश में कोरोना से मौतों का आंकड़ा 4300 के पार हो चुका है। यह सिलसिला कम होने का नाम नहीं ले रहा। आलम यह है कि श्मशान में चिता रचने वालों की हथेलियों में छाले पड़ गए हैं और कब्रिस्तान में कब्र खोदने वालों के हाथ थक चुके हैं। शव जलाने के लिए लकड़ी कब्र में डालने के मिट्टी तक का टोटा पड़ गया है। लाशो के बीच जीने वाले इन लोगों को भी अब गश आने लगा है। अस्पतालों में कई मरीज जमीन पर पड़े हैं, क्योंकि बेड ही नहीं हैं। बेड हैं तो दवा और ऑक्सीजन नहीं है। राज्य में कोरोना का नया स्ट्रेन आंतकियों की तरह हमला कर रहा है। इसका व्यवहार डाॅक्टर भी ठीक से नहीं समझ पा रहे हैं। जांच रिपोर्टे भी कई बार भ्रमित कर रही हैं। अब तो अस्पतालों में आॅक्सीजन भी रिश्वत देकर छीनने और नकली रेमडिसीवर इंजेक्शन के मामले सामने आ रहे हैं। कब कौन पाॅजिटिव होकर समुचित इलाज के अभाव में इस फानी दुनिया से रूखसत हो जाएगा, कहना तो दूर सोचना भी मुश्किल है। लगता है मौत चारो तरफ से अपना शिकंजा कसती जा रही है।
बेशक राज्य सरकार जागी है, लेकिन देर से। मुख्यशमंत्री शिवराजसिंह चौहान ने अपने हाथ में कमान सम्हाली है। राज्य के स्वास्थ्य आयुक्त को हटा दिया गया है। कोरोना से जूझने सलाह देने एक उच्चस्तरीय कमेटी नोबेल विजेता कैलाश सत्यार्थी की अगुवाई में बनाई गई है। लेकिन कोरोना के तांडव को रोकने के लिए जरूरी कदम दो माह पहले ही उठाए गए होते तो शायद स्थिति इतनी खराब नहीं होती। लेकिन सरकार की प्राथमिकताओं में तब शायद चुनाव और दूसरे मुद्दे ज्यादा थे। कोरोना की दूसरी लहर इतनी विनाशकारी सिद्ध होगी, इस बारे में अपेक्षित गंभीरता से सोचा ही नहीं गया। लग रहा था कि कोरोना से लड़ाई केवल नसीहतों और उत्सवों की ताल पर ज्यादा लड़ी जा रही है। अब जब हालात बेकाबू होते दिखे, तब हेलीकाॅप्टर से इंजेक्शन, दवाइयां और वैक्सीन मंगवाने की व्यवस्था की जा रही है। जब तक ये जरूरतमंदों तक पहुचेंगे तब तक कितनी सांसें थम चुकी होंगी, यह सोच भी डरावनी है। सबसे बड़ा संकट प्राणवायु ऑक्सीजन का है।
वह भी हम ठीक से नहीं दे पा रहे हैं। उधर नेताओं का चुनावी उत्साह भी अब जाकर ठंडा पड़ा है, जबकि कितने ही ‘वोट’ सदा के लिए वोटर लिस्ट से बाहर हो चुके हैं। यूं सरकार जनता को यकीन दिलाने की पुरजोर कोशिश कर रही है कि वह कोरोना को लेकर गाफिल नहीं है, जितना बन पड़ रहा है, किया जा रहा है और िकया जाएगा, लेकिन जो जमीनी हकीकत है, उसे देखते हुए सरकार की बातों पर वो भरोसा फिर भी नहीं बन पा रहा, जो बनना चाहिए। यह सोचकर भी दिमाग सुन्न हुआ जाता है कि अगर कोरोना की तीसरी या चौथी लहर भी आई तो हममे से कितने लोग परिजनों को अंतिम विदाई देने के लिए जिंदा रहेंगे? यह जवाबी तर्क नाकाफी है कि मप्र ही क्यों, बाकी राज्यों में कौन-सी बेहतर स्थिति है?
कह सकते हैं कि जब चौतरफा ऐसी असहायता और अनिश्चय की स्थिति है तो राजनेता भी इंसान ही हैं। सार्वजनिक बयानों में वो कुछ भी शगूफेबाजी करें, भीतर की बात तो आत्मा ही जानती है। यह सही है कोरोना के रूप में ऐसी भारी विपदा आन पड़ी है कि उसका अंदाजा शायद किसी को नहीं था। लेकिन अब तो यह दूसरी बार है। पिछले साल हमे काफी अनुभव हुए हैं। लिहाजा ऐसी विपदा आने पर क्या, कैसे और कितना करना चाहिए, इसकी आयोजना तो होनी ही चाहिए। विपक्ष का अारोप है कि जब राज्य में कोरोना की लहर तेज हो रही थी, उस वक्त प्रदेश के स्वास्थ्य मंत्री चुनाव प्रचार में ही उलझे हुए थे। और जब वो अपने असल काम पर लौटे तब तक बहुत देर हो चुकी है। इधर लोग अस्पतालों में बेड, रेमडिसीवर, वैक्सीन और ऑक्सीजन के लिए तरस रहे थे, उधर राजनीतिक दल चुनावी रैलियों, सभाओं और हर कीमत पर सीट जीतने का जौहर दिखाने पर आतुर थे। लेकिन मनुष्य की जीवन रक्षा के लिए ये बुनियादी व्यवस्थाएं करने की जिम्मेदारी किसकी है? अगर यह दायित्व भी जनता का ही है तो उसे किसी को वोट देने की भी क्या जरूरत है? तिस पर लोगों के ऐसे तमाम आर्त सवालों का जवाब समझाइशों और सियासत न करने की नसीहतों से दिया जा रहा था। सचमुच काल के अट्टहास के बीच ऐसा आत्ममुग्ध जश्न मना सकने के लिए भी जिगर चाहिए .
हो सकता है जब चीजें हाथ से फिसलती महसूस हों तो इंसान का विश्वास उस सर्वशक्तिमान में और बढ़ जाता है, जिसके बारे में माना जाता है कि वही इस संसार चक्र को चला रहा है। सत्ता के मोह में रात-दिन डूबने-उतराने वाले राजनीतिज्ञों में भवसागर के प्रति यह ‘विरक्ति भाव’ कभी-कभार झलक ही जाता है। कुछ साल पहले व्यापमं घोटाले में होने वाली लगातार मौतों को लेकर प्रदेश के एक पूर्व मुख्यमंत्री (अब स्वर्गीय) ने बेबाक टिप्पणी की थी। उन्होंने मीडिया के सवाल के जवाब में कहा था कि ‘भइया जो आया है, सो जाएगा।‘ अर्थात किसी की मौत क्या दुख मनाना। यह तो मनुष्य की नियति है। जन्म के साथ मृत्यु अटल है। कब और किस रूप में आएगी, यह भर तय होना है। एक बार नेटवार्किंग टूटी और काम खल्लास। जिनकी जीवन रेखा का ही डेड एंड आ गया हो, उन्हे डाॅक्टर, सरकार या समय पर मिली ऑक्सीजन भी नहीं रोक सकती। आप चाहें तो किसी को भी दोषी ठहरा सकते हैं, लेकिन जो घटना है वो तो घटित होगा ही।
बहरहाल प्रेमसिंह पटेल ने जो कहा वह एक राजनीतिक चरित्र की ‘आध्यात्मिक अवस्था’ है। ऐसी अवस्था जो राजदंड हाथ में रखकर भी खुद को दीन-हीन रूप में प्रस्तुत करती है। जन्म और मृत्यु शाश्वत सत्य होते हुए भी जिस संदर्भ में यह बात कही गई, वह भी उतना ही महत्वपूर्ण है। क्योंकि राजनीति और सत्तानीति कोई हिमालय में धूनी रमाने या कर्तव्य मुक्ति का गंगास्नान नहीं है। राजनीति व्यवस्था के संचालन सूत्र अपने हाथ में रखने और राजदंड का इकबाल बुलंद रखने की इच्छा से संचालित होती है। ‘बूढ़े हैं तो मरेंगे ही’, यह कहना जनता की विवशता और लाचारी का क्रूर उपहास है, न कि लौकिक सत्य का पारायण। काल के भरोसे ही अगर जिंदा रहना है तो इन तमाम व्यवस्थाओं का जंजाल और आडंबर क्यों? सत्ता की सेज केवल हार फूल पहनने के लिए तो नहीं है। यकीनन कोरोना की चुनौती भयानक और बहुआयामी है। इसका सामना भी मिलकर ही करना होगा। लेकिन पूरी संवेदनशीलता और मानवीयता के साथ। अगर लोग इलाज और जरूरी संसाधनो के अभाव में असमय दम तोड़ रहे हैं तो यह महज अफवाह या दुष्प्रचार नहीं है, हकीकत है। इसे नकारना या उसे कम करके आंकना खुद को धोखा देने के समान है। हमारी व्यवस्थाएं अपूरी साबित हो रही हैं, इस कटु सत्य को विनम्रता से स्वीकारना चाहिए।
माना कि आत्मा अमर है, शरीर नाशवान है। गीता में कहा गया है- न हन्यते हन्यमाने शरीरे। जो शरीर दुनिया छोड़ गया, उसका शोक कैसा? यह उपदेश देने और आध्यात्मिक सांत्वना के लिए ठीक है। लेकिन लोकतंत्र में इसे जनता की वेदना का मजाक उड़ाना कहा जाता है। विधि का लेखा छोडि़ए, एक विधायक और शासन के मंत्री के तौर पर आपका क्या कर्तव्य है, लोगों को तो इसका जवाब चाहिए।
वरिष्ठ संपादक ‘राइट क्लिक’