सरकार चलाना हंसी-खेल नहीं है लेकिन मध्यप्रदेश में मुख्यमंत्री श्री शिवराज सिंह चौहान सरकार को हंसी-खेल समझकर ही चला रहे हैं. उनकी सरकार जनादेश की नहीं जुगाड़ की सरकार है और जुगाड़ की सरकार को जुगाड़ से ही चलाया जा सकता है. आजकल मध्यप्रदेश में वजीरेआला सरकार चलाने के बजाय जन सहयोग से प्रदेश की आंगनबाड़ियां चला रहे हैं. मध्य्प्रदेश में इन आंगनवाड़ियों को ‘मामा की आंगनवाड़ी’ का नाम दिया गया है ?
क्या आप कल्पना कर सकते हैं कि मध्यप्रदेश जैसे सात करोड़ से अधिक आबादी वाले राज्य की मुख्यमंत्री के पास इतनी फुरसत हो सकती है कि वो आंगनवाड़ियों कि बच्चों कि लिए जनसहयोग से खिलोने जुटाने कि लिए गली-गली में हाथठेला लेकर घूमे ? लेकिन हकीकत ये है कि नाटक करने में माहिर मध्यप्रदेश कि मुख्यमंत्री शिवराज सिंह चौहान ये सब कर रहे हैं और ख़ुशी-ख़ुशी कर रहे हैं. चूंकि जब खुद मुख्यमंत्री ये सब कर रहे हैं तो पूरे प्रदेश में प्रशासन अब बच्चों कि लिए हाथठेले लेकर निकलने कि लिए मजबूर है.
बच्चों के प्रति संवेदनशील होना कोई बुरी बात नहीं है. मुख्यमंत्री शिवराज सिंह तो बच्चों कि प्रति अपनी संवेदनशीलता की वजह से ‘मामा मुख्यमंत्री’ कि रूप में जाने जाते हैं. उनकी सरकार की अनेक योजनाओं ने प्रदेश में बच्चों की खासकर लड़कियों की दशा और दिशा बदली भी है लेकिन आँगनवाड़ियों कि लिए खिलोने जुटाने कि लिए सरकार का भिक्षाटन पर निकलना कुछ हास्यास्पद लगता है. क्या सरकार की माली हालत इतनी खराब हो गयी है कि वो अपनी आंगनवाड़ियों में बच्चों कि लिए खिलौनों का इंतजाम नहीं कर सकती, या फिर सरकार सस्ती लोकप्रियता हासिल करने कि लिए ये सब कर रही है ?
मध्यप्रदेश में आंगनवाड़ियों की स्थिति किसी से छिपी नहीं है. यहाँ काम करने वाली महिला कार्यकर्ताओं का असंतोष सब जानते हैं. आंगनवाड़ियों में बच्चों को दिया जाने वाला आहार कैसा ये है ये बताने की जरूरत नहीं है किन्तु इन सबको सुधारने कि बजाय मुख्यमंत्री हाथ ठेला लेकर भोपाल कि अशोका गार्डन में खिलोने इकठ्ठे कर रहे हैं तो कुछ अजीब लगता है. मुझे लगता है कि मुख्यमंत्री जी की इस मुहीम की आलोचना करने से उनके समर्थक और पार्टी कार्यकर्ता नाराज जरूर होंगे किन्तु मै इसकी परवाह किये बिना अपनी बात रख रहा हूँ जो थोड़ी कड़वी हो सकती है.
प्रदेश में करीब 97 हजार आँगनवाड़ियाँ हैं। लेकिन इनमें से अधिकाँश की दशा खराब है. ज्यादातर आँगनवाड़ियाँ किराये कि मकानों में हैं. इनके जरिये वितरित किये जाने वाला खाद्यान और अन्य सामान खुले बाजार में बेचा जाता है लेकिन मुख्यमंत्री का ध्यान इन सबकी और नहीं है. वे आंगनबाड़ियों कि जरिये वितरित किये जाने वाले मध्यान्ह भोजन व्यवस्था में घुसे ठेकेदारों को बाहर करने की जुगत नहीं कर सके. वे देश के अन्य 18 राज्यों की तरह इस्कॉन जैसी संस्थाओं कि जरिये मध्यान्ह भोजन कि वितरण की व्यवस्था में रूचि नहीं लेते क्योंकि नौकरशाही और ठेकेदारों का दबाब उनके ऊपर है.
बहरहाल जो अभियान मुख्यमंत्री ने शुरू किया है वो काम स्वयंसेवी संस्थाओं का है. सरकार प्रदेश की दूसरी समस्याओं कि निबटारे की दिशा में काम करे. प्रदेश में बिजली संकट है. क़ानून और व्यवस्था की खराब स्थिति को सुधारने की जरूरत है, नौकरशाही की मुश्कें कसने की जरूरत है, लेकिन ये सब न कर सरकार हाथ ठेले लेकर खिलोने जुटाने में लगी है. पूरा प्रदेश उनका अनुकरण करता तो ठीक है लेकिन उनकी पार्टी कि लोग ही इस अभियान को गति नहीं दे पा रहे. मजबूरी में अब प्रशासन इस अभियान में जुट रहा है. उसकी अन्य प्राथमिकताएं जहाँ की तहाँ रह गयीं.
भोपाल कि एक मित्र बता रहे थे की मुख्यमंत्री कि इस जनसहयोग अभियान में दान दाताओं ने आंगनवाड़ियों कि लिए खिलोने ही नहीं बल्कि गीजर जैसे सामान भी दिए, लेकिन स्थानीय निकायों कि पास पहुँचते ही इनकी बंदर बाँट शुरू हो गयी. मुख्यमंत्री कि साथ चलने वाला अमला खुद दान के माल की बंदरबांट में जुट गया. एक फिल्म अभिनेता ने प्रदेश की खराब माली हालत पर तरस खाकर सरकार को दो करोड़ रूपये का चैक थमा दिया. लेकिन जो भी दान देने वाले हैं वे दान कि एवज में कुछ न कुछ वसूलना चाहते हैं और सरकार को वो आज नहीं तो कल देना पडेगा.
जनभागीदारी एक बेहतर प्रयोग है लेकिन इसे नाटक की तरह इस्तेमाल करना बेहतर तरीका नहीं है. कुछ वर्षों पहले इसी तर्ज पर प्रदेश में आनंदम का अभियान चलाया गया था. अलग से विभाग बनाया गया था. पूरी सरकार जनता को आनंद में डुबोने में लगी थी, किन्तु आज उस आनंद विभाग का कोई माई-बाप नहीं है. क्योंकि शायद पूरे प्रदेश में आनंद ही आनंद है, कहने का आशय ये है कि जनता का ध्यान असली मुद्दों से भटकाने कि लिए नाटक सबसे सरल तरीका है. लेकिन सरकारें नाटकों से नहीं, इकबाल से चलतीं हैं.
मुख्यमंत्री जी रोजाना दो कलेक्टरों से रूबरू होते हैं, उन्हें डाटते-फटकारते हैं लेकिन उनके मुख्य सचिव बड़े बाबू की तरह वल्ल्भ भवन की शोभा बने बैठे हैं. आजतक किस मुख्य सचिव या प्रमुख सचिवों को जिला तो छोड़िये संभाग स्तर पर बैठकें करते या मैदान में हकीकत जानने की कोशिश करते नहीं देखा गया.
बच्चों कि प्रति संवेदनशील सरकार कि मुख्यमंत्री गुना में शिकारियों की हत्या कि आरोपियों को गिरफ्तार करने के बजाय उन्हें इरादतन मार देने वाले पुलिस अफसरों कि खिलाफ कार्रवाई तब करती है जब अदालत आँखें तरेरती है, अन्यथा पहले जिस एसपी कि खिलाफ कार्रवाई की जाना थी उसे बचाया जाता है और आईजी की बलि ले ली जाती है और अब एसपी से लेकर नीचे तक कि पुलिस अफसरों कि खिलाफ कार्रवाई की जा रही है. समझ में नहीं आता की सरकार आखिर कैसे और किसके कहने पर चल रही है ?
प्रदेश में पिछले दिनों बुलडोजर संहिता का जमकर प्रदर्शन किया गया,सरकारी स्तर पर जमकर रथयात्राएं निकाली गयीं.मेला प्रादीकरण की और से ओरछा में समारोह किये गए, लेकिन प्रदेश में जल संकट को लेकर कोई अभियान नहीं चलाया गया. कोई रणनीति नहीं बनाई गयी, क्योंकि इसकी जरूरत ही नहीं है. जनता अपने मुख्यमंत्री को खिलोने जमा करते हुए देखकर खुश है. जनता खुश है तो सरकार खुश है. और इस ख़ुशी के माहौल में हम जैसे लोगों को खलल डालने का कोई हक नहीं है.
@ राकेश अचल
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