अजय बोकिल
गुजरात में भूपेन्द्र भाई पटेल जैसे गुमनाम से चेहरे के मुख्यमंत्री बनने के पीछेकई कारण बताए जा रहे हैं, लेकिन जिस तरह उनकी ‘लाॅटरी’ लगी है, उससे पूरे देश के हजारों नगरीय निकायों के पार्षदों और ग्राम पंचायत सदस्यों के अरमानों को पंख लग गए हैं। क्योंकि भूपेन्द्र भाई की राजनीतिक और प्रशासनिक योग्यता यही बताई जा रही है कि वो अहमदाबाद नगर निगम के पार्षद और अहमदाबाद शहर विकास प्राधिकरण स्थायी समिति के अध्यक्ष रहे और पिछले चुनावों में पहली बार घाटलोडिया सीट पर भाजपा से विधायक बने। यह सीट भी उन्हें उनकी ‘अच्छाई’ के कारण पूर्व मुख्यमंत्री आंनदी बेन पटेल के राज्यपाल बनाए जाने पर नसीब हुई थी। हालांकि भूपेन्द्र पटेल उस पर रिकाॅर्ड मतों से जीते। विधायक दल की बैठक में भी जब उनके नाम की अधिकृत घोषणा हुई तब भी वे आखिरी पंक्ति के अंतिम विधायक के रूप में बैठे थे और जब उनका नाम केन्द्रीय पर्यवेक्षक व मंत्री नरेन्द्र सिंह तोमर ने घोषित किया तो वो मंद मुस्कान के साथ ‘वी’ का निशान बनाते दिखे। मुख्यमंत्री नामजद होने के बाद भी उनका भाषण बेहद संक्षिप्त था। उन्होंने इतना ही कहा कि वे सबको साथ लेकर चलेंगे।
जहां तक भाजपा शासित राज्यों में मुख्यमंत्री बनाने या केन्द्र में मंत्री बनाने की बात है तो प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी देश को चौंकाने में ज्यादा भरोसा करते हैं। जो फैसला वे और अमित शाह लेते हैं, उसके पीछे ठोस कारण कौन से होते हैं, कितनी दूरदर्शिता और व्यावहारिक समझ होती है, इसकी माथापच्ची विश्लेषक करते रहते हैं। फिर भी सही उत्तर पाना मुश्किल ही होता है। भूपेन्द्र पटेल के बारे में कहा गया कि वो गुजरात भाजपा में ‘अजातशत्रु’ नेता हैं, सर्वमान्य हैं, इसलिए उन्हें विधानसभा चुनाव से सवा साल पहले पार्टी ने मुख्यमंत्री बनाया। इसके पहले दो बार सीएम रहे और कुल मिलाकर पांच साल पूरे करने वाले विजय रूपाणी को सीएम पद से हटा दिया गया। वो विवादों में घिर गए थे और माना जा रहा था कि दूसरी बार पार्टी को जिताने की कूवत उनमें नहीं है। वैसे भी गुजरात राज्य के गठन के बाद से कांग्रेस के माधवसिंह सोलंकी ही ऐसे मुख्यमंत्री रहे हैं, जिन्होंने सलंग पांच साल का कार्यकाल पूरा किया। उनके बाद नरेन्द्र मोदी सीएम रहे, जो साढ़े 12 साल तक पद पर रहे और देश का प्रधानमंत्री बनने के बाद ही हटे। आज भी गुजरात में भाजपा से भी बड़ा फैक्टर खुद नरेन्द्र मोदी ही हैं।
भूपेन्द्र भाई पटेल के चयन के पीछे यह भी बताया जा रहा है कि वो उस कडवा पाटीदार समुदाय से हैं, जिनकी बड़ी आबादी उत्तर गुजरात और सौराष्ट्र में फैली है। नरेन्द्र मोदी के जमाने में अजेय मानी जानी वाली भाजपा को मोदी के पीएम बनने के बाद गुजरात में 2017 के विधानसभा चुनाव में तगड़ा झटका लगा, जब उसकी सीटें 115 से घटकर 99 रह गईं। पार्टी काफी जोर मारने के बाद सत्ता में तो आ गई, लेकिन आगामी चुनाव के लिहाज से यह खतरे की घंटी थी। पिछले विस चुनाव में भाजपा ने शहरी क्षेत्रों में अच्छा प्रदर्शन किया था, लेकिन ग्रामीण क्षेत्रों में विपक्षी कांग्रेस ने बेहतर परफार्म किया और अपनी 16 सीटें बढ़ा लीं। सौराष्ट्र अंचल में भाजपा को सबसे ज्यादा नुकसान हुआ। इसके पीछे एक मुख्य कारण पाटीदारों की नाराजी भी रहा, जो राज्य में अपने लिए आरक्षण की मांग कर रहे थे। हालांकि यह आंदोलन अब ठंडा पड़ चुका है। पाटीदार समुदाय भी तीन उप जातियों में बंटा है। लेउआ, कडवा और आंजने। इनमें से आंजने पाटीदारों को काफी पहले आरक्षण मिल गया था। लेकिन कडवा और लेउआ ज्यादातर जमीनों के मालिक हैं या फिर दूसरे कई व्यवसायों में हैं।
उनकी आर्थिक स्थिति काफी अच्छी है। यद्यपि बदली परिस्थिति में उनके लिए भी रोजगार व अन्य समस्याएं खड़ी हुई हैं। गुजरात में पाटीदारों (पटेल) की आबादी कुल का करीब 12 से 14 फीसदी मानी जाती है। लंबे समय से यह जाति भाजपा से जुड़ी है। लेकिन गैर पाटीदार मुख्यमंत्री बनाए जाने से इस वर्ग में नाराजी थी। भूपेन्द्र पटेल को सीएम बनाए जाने से पाटीदारों को फिर साधा जा सकेगा, ऐसा बीजेपी का गणित है। चूंकि भूपेन्द्र पहली बार विधायक और पहली बार ही सीएम बने हैं, इसलिए विपक्ष के पास उनके खिलाफ बोलने के लिए कुछ नहीं होगा, बशर्ते भूपेन्द्र पटेल खुद कोई गलती न करें। यह खुला रहस्य है कि गुजरात विधानसभा चुनाव का रिमोट कंट्रोल भी असल में नरेन्द्र मोदी और अमित शाह के हाथ में ही होगा। इसमें संघ की भी अहम भूमिका होगी, क्योंकि गुजरात उसके लिए एक ‘हिंदुत्व का माॅडल स्टेट’ है। गुजरात में भाजपा की हार की कल्पना भी उसके लिए असहनीय है। जाहिर है कि भूपेन्द्र भाई पटेल वही कुछ करेंगे, जो उन्हें करने के लिए कहा जाएगा। तयशुदा रणनीति का ईमानदारी से अनुपालन ही उनसे अपेक्षित होगा।
उपलब्ध जानकारी के अनुसार गुजरात विधानसभा में सबसे ज़्यादा विधायक पटेल समुदाय से ही चुने जाते हैं। 2017 में पटेल विधायकों की संख्या 44 थी। जिसमें से 28 विधायक बीजेपी के और 23 विधायक कांग्रेस से चुने गए थे। जबकि 2012 के चुनाव में गुजरात में 47 विधायक पटेल समुदाय के जीते थे,उनमें से 36 बीजेपी के टिकट पर जीते थे। इसका निहितार्थ यही था कि पटेल समुदाय में भाजपा की पकड़ कमजोर होने लगी थी। कांग्रेस के अलावा भाजपा की दूसरी चिंता राज्य में ‘आम आदमी पार्टी’ का जड़ पकड़ना भी है। इसकी झलक ‘आप’ ने गुजरात के स्थानीय निकाय चुनावों में दिखा दी है। लोग उसे तीसरे विकल्प के रूप में देखने लगे हैं। दिल्ली प्रदेश और पंजाब की तरह अगर गुजरात में भी ‘आप’ पैर पसारने लगी तो इसका नुकसान कांग्रेस के साथ साथ भाजपा को भी होगा।
भूपेंद्र पटेल के सामने पहली चुनौती तो सरकार की छवि को सुधारना, भाजपा कार्यकर्ताओं की नाराजी दूर करना और पटेल समुदाय में भाजपा की पकड़ को और मजबूत करना है। हालांकि उन्होंने जाति की राजनीति नहीं की है, लेकिन पाटीदारों में भाजपा के वोट बैंक को मजबूत करने का जिम्मा उनके कंधों पर रहेगा ही। भूपेन्द्र पटेल स्वयं एक इंजीनियर, बिल्डर और धार्मिक आंदोलन से जुड़े भक्त भी हैं। वो देश में शायद पहले बिल्डर होंगे,जो सीएम के पद पर पहुंचा हो। कहते हैं कि जब मोदी गुजरात के मुख्यमंत्री थे, तभी पटेल उनकी निगाह में आ गए थे। कोविड काल में उन्होंने लोगों की काफी मदद की थी। इसके विपरीत पूर्व मुख्यमंत्री विजय रूपाणी के खाते में कई गलतियां थीं, जिनमें सबसे चर्चित मामला अहमदाबाद के सरकारी अस्पताल में घटिया वेंटीलेटरों की सप्लाई का था। रूपाणी की प्रदेश भाजपा अध्यक्ष सी.आर.पाटील से भी नहीं बनती थी। पाटिल ने बीजेपी दफ्तर में समानांतर सरकार चलाना शुरू कर दी थी।
वैसे गुजरात में भाजपा के मुख्यमंत्री बदलने की कीमत राज्य के एक पत्रकार को भी चुकानी पड़ी है। गुजराती समाचार पोर्टल ‘फेस ऑफ द नेशन’ के संपादक धवल पटेल ने पिछले साल राज्य में कोरोना वायरस से निपटने में असफलता को लेकर गुजरात में सीएम विजय रूपाणी को हटाने का सुझाव देने वाली एक रिपोर्ट लिखी थी। जिसको लेकर 11 मई 2020 को उनके ख़िलाफ़ राजद्रोह का केस दर्ज किया गया था। हालांकि स्थानीय अदालत ने उन्हें जमानत दे दी थी। लेकिन धवल पटेल को बिना शर्त माफी मांगनी पड़ी तब जाकर उनके खिलाफ राजद्रोह का मामला रद्द किया गया। अंतत: धवल भारत छोड़ अमेरिका चले गए। मीडिया के लिए सबक यह है कि नेतृत्व परिवर्तन की बात लिखना भी ‘राजद्रोह’ हो सकता है।
यहां सवाल पूछा जा सकता है कि भूपेन्द्र पटेल का राजनीतिक भविष्य क्या होगा? क्या वो गुजरात के शिवराजसिंह चौहान, डाॅ.रमनसिंह या योगी आदित्यनाथ, या फिर दूसरे नरेन्द्र मोदी बनकर उभरेंगे या फिर एक और रूपाणी, येद्दियुरप्पा या तीरथ सिंह साबित होंगे। क्या उनका दीया केवल चुनाव जीतने तक ही रोशन रहने वाला है? शिवराज, रमन सिंह और योगी के नाम इसलिए उल्लेखनीय हैं क्योंकि तीनों को सीएम बनाकर भाजपा ने तब देश को चौंकाया था, लेकिन तीनों ने अपनी कार्यशैली से गहरी और मजबूत पकड़ बना ली। हालांकि योगी यूपी में भाजपा को सत्ता में लौटा पाते हैं या नहीं, यह अभी देखना है। वैसे भी शीर्ष पद पाने में किस्मत की भूमिका भी होती है। अर्जुनसिंह तमाम काबिलियत के बाद भी प्रधानमंत्री नहीं बन सके तो गुजरात में यही कहानी नितिन पटेल की है। उनके हिस्से में सिर्फ आंसू ही हैं।
देश में जब भी केन्द्र में मजबूत सरकारें होती है, तब-तब राज्यों में क्षत्रपों को ‘अंगद का पांव’ नहीं बनने दिया जाता। इस संदर्भ में कांग्रेस और भाजपा में खास फर्क नहीं है। मोदी, शिवराज और रमन सिंह लंबे समय तक सीएम पद पर इसलिए भी टिक पाए, क्योंकि उनके कार्यकाल के दौरान केन्द्र में ज्यादातर समय कांग्रेस गठबंधन की सरकारें रही। दूसरा सवाल यह है कि भाजपा द्वारा विधानसभा चुनावों के पहले मुख्यमंत्री परिवर्तन अभियान का भाजपाशासित मप्र व अन्य राज्यों के लिए क्या संदेश है? क्या मध्यप्रदेश में भी आगामी विधानसभा चुनाव के पहले ऐसी कोई स्थिति बन सकती है? मप्र में नेतृत्व परिवर्तन की पहल सामयिक या जोखिम भरा फैसला होगा? संदर्भित नेताओं की देहबोली क्या इशारा करती है? बदलाव होगा तो नया चेहरा कौन होगा ? अभी इस बारे में कुछ भी कहना जल्दबाजी होगी। क्योंकि मप्र में एक माह पहले चली ऐसी ही एक मुहिम की हवा निकल चुकी है। इसके बावजूद देश के तीन भाजपाशासित राज्यों के मुख्यमंत्री बदल कर एक संदेश तो दिया ही गया है। अर्श और फर्श की दूरियां मानो मिटा दी गई हैं। और फिर नरेन्द्र मोदी जिस तरह झटका देने वाले निर्णय करते हैं ( फिर अंजाम चाहे जो हो), उसे देखते हुए कुछ भी असंभव नहीं है।