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नौनिहालों की मौत और जश्न की तैयारियां

पिछले दो दिन से मै नवाबों के शहर भोपाल में था. यहां नवाबिई आज भी बरकरार है. एक तरफ एक सरकारी अस्पताल में बदइंतजामी की वजह से आधा दर्जन नवजात आलू-बैगन की तरह आग में झुलस कर मर गए, दूसरी तरफ पूरी सरकार देश के प्रधानमंत्री श्री नरेंद्र मोदी के स्वागत की तैयारी में प्राणपण से जुटा है. मौत के मातम पर सरकार का जश्न भारी पड़ रहा है. हादसे के लिए न किसी ने नैतिकता स्वरूप जिम्मेदारी लेकर अपना इस्तीफा दिया और न किसी के खिलाफ कोई फौरी कार्रवाई की गयी. सरकार ने मृतिकों के परिजनों को चार-चार लाख रूपये का मुआवजा थमाकर अपने पाप का प्रायश्चित कर लिया.

प्रदेश के किसी सरकारी अस्पताल में हुआ ये पहला हादसा नहीं है. हमीदिया अस्पताल राजधानी भोपाल का एक पुराना और प्रतिष्ठित अस्पताल हुआ करता था, लेकिन अब नहीं है. अब यहां जिंदगी बचने के बजाय मौत बांटी जाती है, ये बर्ताव भी उनके साथ होता है जो न बोल सकते हैं, न पुकार सकते हैं. अस्पताल की तीसरी मंजिल पर स्थित पीआईसीयू में शर्त सर्किट से लगी आग में फंसे 40 बच्चों में से 04 की मौत हो गयी जबकि अनेक अभी भी जिंदगी और मौत के बीच झूल रहे हैं. 36 बच्चों का नसीब अच्छा था जो उन्हें समय रहते वार्ड से बाहर निकाल लिया गया.

सरकारी अस्प्तालीन में ये हादसे आखिर क्यों होते हैं. छह माह में शर्त सर्किट की ये तीसरी घटन थी, बावजूद विद्युत संधारण को गंभीरता से नहीं लिया गया. हमारे यहां गंभीरता किस चिड़िया का नाम है, कोई नहीं जानता. मध्यप्रदेश में सरकारी इमारतों के रखरखाव का कोई नियमित रोस्टर नहीं है. न नियमित जांच होती है और न नियमित संधारण. कभी बजट नहीं तो कभी समय नहीं. सरकार का सारा ध्यान स्वागत-सत्कारों पर केंद्रित जो होता है. हादसों के बाद हादसों की उच्चस्तरीय जाँच की घोषणा और मृतकों को सरकारी खजाने से मुआवजा बांटकर मामले पर धुल डालने की परिपाटी पहले से मौजूद है. इन दोनों कामों के बाद सरकार की जिम्मेदारी समाप्त हो जाती है.

दुनिया में बेरहम आतंकवादी तक अपने गुनाहों की जिम्मेदारी लेने का साहस दिखाते हैं किन्तु सरकारों, मंत्रियों और अधिकारियों में इतना साहस और नैतिकता नहीं होती की वे अपने गुनाहों की जिम्मेदारी लेने का साहस दिखा सकें .इस्तीफा देना तो दूर की बात है. हमारे यहां इस तरह के हादसों की जांच के बाद शायद ही आजतक किसी को जेल भेजा गया होगा ? होता उलटा ही है.हादसों के लिए जिम्मेदार लोग समय से पदोन्नति पाते हैं और पहले से बेहतर स्थानों पर उनकी नियुक्तियां की जाती है.

सरकारी अस्पतालों में आगजनी एक सामान्य दुर्घटना है. पिछले साल कोविदकाल में देश के कितने ही सरकारी अस्पतालों के आईसीयू और कोविद वार्डों में अग्निकांड हुए और उनमें कितने ही मरीज मारे गए लेकिन किसी जिम्मेदार अधिकार या मंत्री को जेल नहीं भेजा गया. आपको गुजरात के भरूच और अहमदनगर, यूपी के बरेली, मुंबई के विरार, छग के रायपुर, राजस्थान के अजमेर अस्पतालों में हुए हादसे शायद अब तक भूले नहीं होंगे. विरार में 13 तो भुवनेशर में 20 लोग मारे गए थे.

वापस भोपाल आएं तो हैरानी होगी की हमीदिया के हादसे के बावजूद सरकार की सेहत पर कोई फर्क नहीं पड़ा. पूरी सरकार प्रधानमंत्री के मध्यप्रदेश के दौरे की तैयारियों में व्यस्त हैं. इन कार्यक्रमों को हमीदिया के हादसे की वजह से स्थगित करने का तो सवाल ही पैदा नहीं होता. कारण कोई भी सरकार संवेदनाओं से ऊपर होती है. सरकार का दिल पत्थर का बना होता है. सरकार यदि इस तरह के हादसों से द्रवित होने लागि तो फिर तो हो गया काम. हमीदिया जैसे हादसों के बाद मृतकों के परिजन को मुआवजा देकर यद्द्यपि सरकार अघोषित रूप से अपनी जिम्मेदारी अपने ऊपर ले लेती है लेकिन स्वीकार नहीं करती. सवाल ये है की जब सरकार जिम्मेदार नहीं है तो फिर सरकारी खजाने से मुआवजा क्यों बांटती ही ?

मध्यप्रदेश में विसंगति ये है कि सरकार हबीबगंज रेलवे स्टेशन को तो विश्व स्तरीय बनाना चाहती है किन्तु हमीदिया अस्पताल को स्थानीय स्तर क भी नहीं बनाना चाहती है. इसी विसंगति की वजह से प्रदेश में शिशु मृत्यु दर तेजी से बढ़ी है. इस समय भी मध्यप्रदेश में शिशु मृत्यु दर 46 है, जो सूडान से भी ज्यादा खराब है .भारत में शिशु मृत्यु दर 30 है. दुर्भाग्य ये है कि मध्यप्रदेश में जिम्मेदार चिकित्सा शिक्षा मंत्री अस्पतालों की व्यवस्था देखने के बजाय अपने पिता की स्मृति में आयोजित कार्यक्रमों के इंतजामों में लगे हैं और सरकार प्रधानमंत्री के दौरे की तैयारियों में. हमीदिया के हादसे की तरफ न किसी का ध्यान है और न कोई इस हादसे से सबक लेना चाहता है. @राकेश अचल

 

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