० कहा हमें अब सिर्फ सरकार और कंपनी का चाहिए हस्तक्षेप
साल्हि।उदयपुर तहसील में स्थित परसा ईस्ट और केते बासेन (पीईकेबी) कोयला खदान परियोजना के बंद होने की खबर से सरगुजा के जिला मुख्यालय सहित आस पास के ग्रामों के व्यापारियों को एक बार फिर चिंता होने लगी है। वहीं परियोजना में बाधा पहुंचाने के उद्देश्य से बाहरी एनजीओ द्वारा इन ग्रामों में हस्तक्षेप करने की कोशिश से भी स्थानीय ग्रामीणों में रोष व्याप्त है। पीईकेबी के आसपास के ग्राम परसा, साल्हि, फत्तेपुर, घाटबर्रा इत्यादि ग्रामों के ग्रामीण अब रोज रोज के आंदोलनों और खदानों में काम सुचारु रूप न चल पाने से परेशान होकर अब लामबंद हो गए हैं। वे अब अपनी इस समस्या के स्थायी समाधान के लिए कंपनी और खासकर प्रदेश सरकार के हस्तक्षेप की बात कह रहे हैं। और हो भी क्यों न ? पिछले एक दशक से जिस परियोजना से सभी लाभान्वित रहे हैं, जिसके कारण अंचल के व्यापार के दायरे बढ़ गए और जो गांव देश के मानचित्र में कोयला खदानों के लिए पहचाना जाने लगा है। उन क्षेत्रों के विकास में अब काले बादल मंडराने वाले हैं,वजह पीईकेबी के द्वितीय चरण के लिए अपेक्षित भूमि का उपलब्ध न हो पाना।
असल में परियोजना के विरोध में कुछ बाहरी तथाकथित एनजीओ द्वारा आंदोलन किया जा रहा है जिसमें कुछ मुट्ठी भर लोगों द्वारा स्थानीय ग्रामीणों को भड़काने का प्रयास अब ग्रामों में घूमकर – घूमकर कर किया जा रहा है। ऐसे ही तथाकथित एनजीओ के एक सदस्य सरदार साहेब सिंह को ग्राम फत्तेपुर और ग्राम साल्हि में ग्रामीणों ने पकड़ा जो कि यहां घूमकर अपने संस्था द्वारा चलाये जा रहे विकास विरोधी मनसूबे को ग्रामों में प्रचारित करने का प्रयास कर रहा था। ग्राम फत्तेपुर के युवा ग्रामीण मदन सिंह पोर्ते, केश्वर सिंह, जगपाल, शिवरतन इत्यादि तथा ग्राम साल्हि के सुमुन्द उइके, चंद्रकेश्वर सिंह पोर्ते, मनोज पोर्ते, मोहर पोर्ते इत्यादि द्वारा साहेब सिंह की इस कोशिश का जमकर विरोध किया और एनजीओ वापस जाओ के नारे लगाकर इस तरह के कृत्य के लिए अपना विरोध दर्ज कराया।
इस दौरान ग्राम फत्तेपुर के युवा ग्रामीण मदन सिंह पोर्ते, जगपाल, तथा अन्य साथियों ने बताया कि, “हम सभी लोग पिछले दस सालों से इस परियोजना में नौकरी कर रहे हैं, कंपनी आने के पहले विकास क्या होता है, कैसे होता है,और इसे ग्रामों में कैसे कराया जा सकता है, इसके बारे में हम कभी सोच भी नहीं सकते थे। लेकिन आज हमें घर बैठे नौकरी के साथ-साथ हमारे बच्चों को उत्कृष्ठ शिक्षा उपलब्ध होने लगी तथा अन्य विकास के कार्य भी बड़ी ही रफ्तार से हुए हैं। लेकिन हमें डर है कि इन विरोधियों के कारण विकास की यह रफ्तार कहीं धीमी न हो जाए।”
“पिछले कई महीनों से इन बाहरी एनजीओ द्वारा पास के ग्राम में कुछ बाहरी लोगों को इकट्ठा कर हमारे ग्राम की इस महत्तवाकांछी परियोजना का विरोध कराया जा रहा है। जबकि यह परियोजना हमारे क्षेत्र के लिए एक वरदान की तरह है। लेकिन इसके समाधान के लिए हमें किसी बाहरी नहीं अपितु कंपनी प्रबंधन और खासकर के प्रदेश सरकार को हस्तक्षेप करने की मांग करते हैं।” ग्राम साल्हि के चंद्रकेश्वर सिंह और इनके साथियों ने कहा।
ग्राम फत्तेपुर के शिवरतन सिंह और इनके साथियों ने इस परियोजना को कभी बंद नहीं होने देने की बात कहते हुए बाहरी एनजीओ से पूछा कि दो वर्ष पहले कोरोना महामारी काल के दौरान आप लोग कहाँ थे जब हमें दवाइयों और डॉक्टरों की सबसे ज्यादा जरुरत थी। तब तो आप लोग में से कोई भी हमारी मदद के लिए नहीं आया। तब कंपनी ने ही हमें सहारा दिया और इस महामारी से हम सबको बचाने में मदद की थी। और आज आप लोग पर्यावरण हितैषी बनकर लोगों को भड़काते हैं। हम इसे सुरक्षित रखने में खुद ही सक्षम हैं। आप बाहरी लोगों को इसकी चिंता करने की कोई जरुरत नहीं है।
अब अगर कोयला खदानों की बात करें तो पुरे भारत में 530 कोल ब्लॉक है,जिनमें से 18 निजी कंपनियों को आवंटित हैं। सिर्फ छत्तीसगढ़ में ही 68 कोल ब्लॉक है। इनमें से आठ ब्लॉक ऐसे हैं जिनमें खनन का कार्य और उपयोग निजी कंपनियों द्वारा अपने संयत्रो के लिए किया जाता है। बचे हुए 60 कोल ब्लॉक में दक्षिण पूर्व कोलफील्ड लिमिटेड (SECL) खनन करता है। लेकिन कुछ तथाकथित पर्यावरण एक्टिविस्ट्स द्वारा आरआरवीयूएनएल की परसा स्थित कोल ब्लॉकों का ही लक्षित किया जाता रहा है। क्या इस विरोध का कारण अदाणी द्वारा इन खदानों का खनन और विकास करना है? या फिर विरोध के बहाने किसी और लक्ष्य की प्राप्ति करना है ?
दरअसल आरआरवीयूएनएल को सरगुजा जिले के उदयपुर विकासखंड में तीन कोल ब्लॉकों का आवंटन भारत सरकार द्वारा वर्ष 2008 में किया गया था। वर्ष 2013 में चालू हुए इस खुली कोयला खदान में लगभग पांच हजार से भी अधिक लोगों को प्रत्यक्ष रूप से रोजगार प्राप्त है। तो वहीं इससे 15 हजार लोग अप्रत्यक्ष रूप से विभिन्न स्वरोजगारों से जुड़े हुए हैं। जबकि अन्य दो ब्लॉकों के शुरू होने से यह संख्या तीन गुनी से भी ज्यादा हो सकती है। किन्तु विगत कई माह से सभी विधि सम्मत तथा जरुरी अनुमति मिलने के पश्चात भी यहां खनन के दूसरे चरण का कार्य पूरी तरह शुरू नहीं किया जा सका है। जिसकी वजह से आरआरवीयूएनएल की खनन और विकास प्रचालक (एमडीओ) कंपनी द्वारा कोयला लोडिंग के कुल करार को ठेका कंपनी के कार्य में कटौती करना शुरू कर दिया था। अब चूँकि ठेका कंपनियों में कर्मचारी स्थानीय ग्रामीण ही हैं, जिन्हें एक दशक से नौकरी मिली है। उनके आय अर्जन पर भी कटौती करनी पड़ रही थी। इसके बाद बड़े ही जतन से ग्रामीणों के द्वारा इसे शुरू कराने के करीब तीन माह के बाद पुरानी स्थिति अब पुनः खड़ी हो रही है।
वहीं एनजीओ का ग्रामीणों को बरगलाने की यह मुहीम इस मुसीबत में आग में घी डालने के का काम कर रही है। अब देखना यह कि ग्रामीणों की इन परेशानियों का कंपनी प्रबंधन और खासकर प्रदेश सरकार क्या हल निकालती है। क्यूंकि यह सवाल अब सिर्फ सरगुजा ही नहीं बल्कि छत्तीसगढ़ के उन दूर-दराज में रहने वाले हरेक ग्रामीणों का भी है जो रोजगार, स्वरोजगार, आजीविका विकास तथा उत्कृष्ठ शिक्षा के लिए शहरों का रुख करने को मजबूर हो जाते हैं।