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सिलगेर हादसे से उपजे कई सवाल

सीआरपीएफ कैंप के ख़िलाफ़ सड़कों पर आदिवासी, पुलिस फायरिंग में तीन लोगों की मौत से मामला गरमायासिलगेर गांव से संजयसिंह ठाकुर  नक्सलियों के सफाए के लिए बस्तर में जगह -जगह सीआरपीएफ कैंप आम है, पर ऐसा क्या हो गया कि सुकमा ज़िले के सिलगेर में सीआरपीएफ कैंप के ख़िलाफ़ ग्रामीण सड़कों पर आ गए और पुलिस को उन्हें नियंत्रित करने के लिए फायरिंग करनी पड़ी, जिसमें तीन लोगों की मौत हो गई। कहा जा रहा है कि सिलगेर में सीआरपीएफ कैंप होने से जवान आसानी से नक्सलियों के मांद घुस पाएंगे, तो क्या नक्सली ग्रामीणों को पुलिस के खिलाफ भड़का रहे हैं या फिर पुलिस की रणनीति फेल हो गई। बस्तर के आईजी पुलिस सुंदरराज पी. का कहना है कि पुलिस कैंप के कारण माओवादियों का अस्तित्व ख़तरे में पड़ रहा है, इसलिए वे गाँव वालों पर दबाव डालकर कैंप का विरोध करने के लिए बाध्य करते हैं।

पुलिस का कहना है कि 17 मई की फ़ायरिंग में मारे गए तीनों लोग भी माओवादी संगठन से जुड़े हुए थे। ग्रामीणों का सवाल है कि अगर मारे गये लोग माओवादी थे तो सरकार ने मुआवज़ा क्यों दिया ? सर्व आदिवासी समाज के अध्यक्ष प्रकाश ठाकुर का दावा है कि मारे गये तीनों माओवादी नहीं थे और गोली कांड में घायल लगभग दो दर्जन लोग भी माओवादी नहीं हैं। मारे गये लोग भी कुछ दिन पहले ही तेलंगाना से मिर्च तोड़ कर लौटे थे। पुलिस ने आठ लोगों को हिरासत में भी लिया है।

सुकमा और बीजापुर की सीमा से लगे सिलगेर में सीआरपीएफ़ का कैंप बनाए जाने की ख़बर मई महीने के शुरुआत में सामने आई तो गाँव वाले विरोध के लिए पहुँचे, लेकिन उनसे कहा गया कि अभी कोई कैंप स्थापित नहीं किया जा रहा है लेकिन 12 मई को कैंप बन गया। आरोप है कि जहाँ कैंप बनाया गया है, वह ग्रामीणों की ज़मीन है। इसके दो दिन बाद आस-पास के कुछ गाँवों के आदिवासी विरोध प्रदर्शन के लिए कैंप के पास सड़क पर बैठ गए।

ग्रामीणों का कहना है कि 17 मई को आदिवासियों और सुरक्षाबल के जवानों के बीच बहस शुरू हुई और जवानों ने लाठी चार्ज कर दिया। गाँव के लोगों का आरोप है कि लाठी चार्ज के बाद भी जब वे नहीं माने और कैंप की ओर बढ़े तो जवानों ने फ़ायरिंग शुरु कर दी। हालाँकि पुलिस का दावा है कि पहले भीड़ में शामिल माओवादियों ने फ़ायरिंग की, जिसके जवाब में सुरक्षाबलों ने बाद में फ़ायरिंग की। आदिवासी महासभा के नेता और पूर्व विधायक मनीष कुंजाम कहते हैं- “प्रदर्शनकारियों पर गोलीबारी की घटना बहुत दर्दनाक है। इस घटना को टाला जा सकता था, लेकिन सुरक्षाबल के लोगों ने ऐसी कोई कोशिश नहीं की। ” उनका कहना है कि “असल में नक्सल मुद्दे पर काम करने वाले पुलिस अधिकारियों की यह धारणा है कि इस तरफ़ जितने भी लोग हैं, वे सब माओवादी हैं। इस ख़तरनाक धारणा के आधार पर ही पुलिस आदिवासियों के साथ ऐसा बर्ताव कर रही है। मनीष कुंजाम ने पूरे मामले की न्यायिक जाँच कराने और दोषी पुलिस अधिकारियों के ख़िलाफ़ मुक़दमा दर्ज करने की मांग की है। बिलासपुर हाईकोर्ट की अधिवक्ता प्रियंका शुक्ला का आरोप है कि पुलिस ने बिना जाँच के ही कह दिया कि तीन माओवादी मारे गये, लेकिन उनका नाम तक नहीं बता सकी।

राज्य में जन संगठनों के समूह ‘छत्तीसगढ़ बचाओ आंदोलन’ के संयोजक आलोक शुक्ला का कहना है कि सामाजिक कार्यकर्ताओं, वकीलों और मानवाधिकार कार्यकर्ताओं को सिलगेर जाने से रोकने की कोशिश से लगता है कि राज्य सरकार कुछ छिपाने की कोशिश कर रही थी। आरोप है कि सामाजिक कार्यकर्ता और वकील बेला भाटिया, अर्थशास्त्री ज्यां द्रेज़ और आदिवासी कार्यकर्ता सोनी सोरी को घटना के दूसरे दिन सिलगेर जाने से जवानों ने रोक दिया। आलोक शुक्ला का मानना है कि आदिवासी किसानों को माओवादी बताना उन्हें माओवादियों के पाले में धकेलने की तरह है। वैसे कहा जाता है कि बस्तर में पिछले साल भर में सुरक्षाबलों के कैंप के ख़िलाफ़ दर्जन भर से अधिक आंदोलन हो चुके हैं। कई-कई दिनों तक चलने वाले इन प्रदर्शनों में हर बार पुलिस यही आरोप लगाती है कि यह माओवादियों के इशारे पर हो रहा है।

सीआरपीएफ़ ने कारली, बारसूर, नेरली, पतुरपारा, गीदम, फुंडरी, नयापारा, नैमेड, बीजापुर, बीजापुर घाटी, कमलापदर, सेवडा, गीदम नाला, कोंडागांव, जगदलपुर, इंजरम, दोरनापाल, सुन्नेमगुड़ा, कामेपेद्दागुड़ा,करनपुर, कोंटा, पैदागुड़ेम और फंदीगुड़ा जैसे कई इलाक़ों में पिछले कुछ बरसों में एक के बाद एक कैंप बनाए हैं। इसकी बदौलत सुरक्षाबलों ने उनकी गढ़ में सेंध भी लगाई है, लेकिन ‘गुरिल्ला वॉर’ की रणनीति में भरोसा रखने वाले माओवादी हर बार पीछे हटते हैं और फिर उसी तीव्रता से दुबारा हमला करके अपनी स्थिति को मज़बूत बताने की कोशिश करते रहते हैं।

प्रदर्शनकारियों में शामिल अरलमपल्ली गांव के सोडी दुला कहते हैं, “सरकार कहती है कि सड़क बनाने के लिए कैंप बनाया गया है, लेकिन इतनी चौड़ी सड़क का हम आदिवासी क्या करेंगे?” वे कहते हैं, “हमें हमारी सुविधा के लायक़ सड़क चाहिए, आंगनबाड़ी चाहिए, स्कूल चाहिए, अस्पताल चाहिए, हैंडपंप चाहिए. क्या इसके लिए पुलिस कैंप की ज़रुरत होती है?” आरगट्टा बोडडीगुड़ा गांव के सोयम सुब्बा कहते हैं, “कैंप नहीं, स्कूल और अस्पताल चाहिए, उसी से हमारा भला होगा। बस्तर पाँचवीं अनुसूची का क्षेत्र है, जहाँ पंचायत क़ानून लागू है और ग्रामसभा की अनुमति के बिना कोई भी निर्माण नहीं किया जा सकता। इसके बावजूद यहाँ किसी कैंप के लिए ग्रामसभा नहीं की गई। “

बस्तर आईजी पुलिस सुंदरराज पी. की चिंता है कि फ़िलहाल किसी तरह से कैंप हटाने का आंदोलन टले। उन्होंने गांव वालों से अपील कर रहे हैं कि मौसम ख़राब है और कोरोना के संक्रमण का भी ख़तरा है, ऐसे में प्रदर्शनकारियों को अपने-अपने गांव लौट जाना चाहिए। सुकमा ज़िले के कलेक्टर विनित नंदनवार कहते हैं, “ग्रामीणों ने हमें जो भी बताया गया है, उससे राज्य सरकार को अवगत करा दिया जाएगा, जिन मसलों का हल ज़िला स्तर पर निकलना होगा, वो ज़िला स्तर पर निकलेगा। “सिलगेर में सुरक्षाबल का कैंप रहेगा या हटाया जाएगा? इस सवाल पर हर तरफ़ चुप्पी है।

उधर, तमाम विरोधों के बीच एक भी कैंप नहीं हटाये जाने के पुराने अनुभव के बाद भी सिलगेर में सुरक्षाबल के कैंप के ख़िलाफ़ आदिवासियों का संघर्ष जारी है। कैंप खुलने पर उनके साथ अत्याचार का भय भी आदिवासियों को सता रहा है।

सिलगेर घटना की दण्डाधिकारी जांच

मुख्यमंत्री भूपेश बघेल ने सिलगेर घटना की दण्डाधिकारी जांच की जा रही है और क्षेत्र के लोगों की विकास से जुड़ी जरूरतों को पूरा करने के लिये राज्य सरकार पूरी तरह से तत्पर है। मुख्यमंत्री सिलगेर घटना के संबंध में ग्रामीणों से मुलाक़ात कर सकते हैं। मुख्यमंत्री ने जनसंगठनों से आगे आकर राज्य सरकार के साथ विकास के काम में सहयोग करने की अपील की। मंगलवार को मुख्यमंत्री भूपेश बघेल से मानवाधिकार कार्यकर्ता बेला भाटिया, छत्तीसगढ़ बचाव आंदोलन के संयोजक आलोक शुक्ला, छत्तीसगढ़ किसान सभा के अध्यक्ष संजय पराते व अन्य लोग मिलने गए थे। सिलगेर घटना के संबंध में कांग्रेस के जाँच दल ने मुख़्यमंत्रो को कल ही अपनी रिपोर्ट सौंपी है।

 

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