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हिमालय की गोद में बसा देश भूटान

भूटान से लौटकर रवि भोई

वैसे तो भूटान जनसंख्या की दृष्टि से काफी छोटा देश है। भारत के किसी बी कैटेगरी के शहर की आबादी से इस देश की जनसंख्या कम है, पर हिमालय की गोद में बसे इस देश का मनोरम प्राकृतिक दृश्य,पहाड़-नदियां और शुद्ध एवं ताज़ी हवा व्यक्ति को आल्हादित कर देती है। भूटान, भारत का पड़ोसी देश है और आर्थिक और विदेशी मामलों में भारत पर उसकी निर्भरता ज्यादा है, फिर भी कई मामलों में वह भारत से अलग है। पहाड़ों की ऊंची चोटियों पर बनाए गए बौद्ध मठ भूटान की सांस्कृतिक और धार्मिक विरासत को बयां करते हैं। बौद्ध मठ और मंदिर भूटान को खास बनाते हैं। टाइगर नेस्ट मठ भूटान की पहचान तो है ही। करीब तीन हजार फीट ऊंची पहाड़ी पर बने इस मठ का निर्माण लोगों को दांतों तले अंगुली दबाने को मजबूर करता है। भूटान के दूसरे बड़े शहर पारो से करीब तीन घंटे की यात्रा के बाद यहां पहुंचा जा सकता है। टाइगर नेस्ट दूर से दिखाई तो देता है , पर इस धार्मिक स्थल पर पहुंचने के लिए पगडंडियों के सहारे चढ़ाई करनी पड़ती है। कहते हैं टाइगर नेस्ट के दर्शन में पूरा दिन लग जाता है। टाइगर नेस्ट पर चढ़ाई के लिए सवारी के लिए बेस स्थल पर घोड़े मिल जाते हैं , फिर भी हिम्मत वाले ही वहां तक जा पाते हैं।

अंतरराष्ट्रीय हिंदी सम्मेलन के बैनर तले 103 सदस्यीय भारतीय दल 05 से 11 जून तक भूटान की यात्रा पर रहा। साहित्यिक आयोजन के साथ यह दल भूटान के सांस्कृतिक -धार्मिक और ऐतिहासिक स्थलों का भ्रमण किया। यह दल सड़क मार्ग से पहले भूटान की राजधानी थिम्फू पहुंचा। भारतीय हवाई और सड़क मार्ग से भूटान पहुँच सकते हैं। नई दिल्ली या कोलकाता से भूटान के एकमात्र एयरपोर्ट पारो में पहुंचा जा सकता है। पहाड़ियों के बीच बने पारो एयरपोर्ट में भूटान एयरलाइंस के विमान को ही उतरने की इजाजत है। भारतीयों को सड़क मार्ग से भूटान जाने के लिए भारतीय सीमा जयगांव से भूटान के सीमावर्ती शहर फुएंतशोलिंग में प्रवेश करना होता है। जयगांव पश्चिम बंगाल में है। हासीमारा रेलवे स्टेशन से जयगांव नजदीक है , पर सिलीगुड़ी या बागडोगरा से भी जयगांव पहुंचा जा सकता है। भारतीयों को मतदाता कार्ड के आधार पर भूटान में प्रवेश की अनुमति मिल जाती है, लेकिन पासपोर्ट से अनुमति मिलने में ज्यादा आसानी होती है। भूटान में भारतीयों को प्रवेश के लिए वीजा नहीं लगता, पर पासपोर्ट में सील लगता है और भूटान में रुकने के लिए प्रतिदिन 1200 रुपए की दर से एसडीएफ (स्पेशल डेवलेपमेंट फीस ) भी लगती है। फुएंतशोलिंग के इमिग्रेशन आफिस में पासपोर्ट की जाँच,अनुमति और एसडीएफ भुगतान के बाद हमारा दल 5 जून को शाम साढ़े चार-पांच बजे के आसपास थिम्पू के लिए रवाना हुआ। संकरी सड़कों और घाटी के कारण भूटान में मिनी बसें ही चलती हैं। फुएंतशोलिंग से थिम्फू की दूरी लगभग 170 किलोमीटर है लेकिन यात्रा पूरी करने में हमें लगभग साढ़े छह घंटे लगे। फुएंतशोलिंग में प्रवेश करते ही सड़कें, मौसम, और नजारा सब कुछ बदल गया। हरे -भरे जंगलों और पहाड़ी नदियों को पार करते हम लोग रात करीब साढ़े दस बजे थिम्फू पहुंचे।

जून के महीने में हम लोग जयगांव में पसीने से लथपथ थे, वहीं भूटान की पहाड़ियों पर सफर करते ठण्ड इतनी लगने लगी कि हमें शाल का सहारा लेना पड़ा। फुएंतशोलिंग में दाखिल होते ही हमें ऊंचाई का अहसास होने लगा। फुएंतशोलिंग से कुछ दूरी पर फिर हम लोगों के पासपोर्ट और परमिट की जांच की गई। रास्ते में हमें भारतीय सेना के कई वाहन आते-जाते नजर आए। बताया गया कि भारतीय सेना के वाहन इसी मार्ग से डोकलाम तक जाते हैं। डोकलाम में भारत, चीन और भूटान कि सीमा मिलती है। फुएंतशोलिंग से थिम्फू तक सफर में पहाड़ के ऊपर और नीचे एक डिजाइन के मकान नजर आए। कहते हैं वहां की सरकार का फरमान ही होता है एक ही आकार और रंगरूप के मकान बनाने का। हमें रेस्टोरेंट भी लगभग एक जैसे देखने को मिले। भूटान में प्रवेश के सफर में हमें मसाला चाय ने तरोताजा कर दिया और ठंड से भी कुछ राहत दिला दी। हल्की -फुल्की बारिश के बीच गर्मागर्म सिंके भुट्टे का भी आनंद लिया। भारत के 40-42 डिग्री तापमान को झेलकर पहुंचे थिम्फू में 18 -20 डिग्री तापमान भारी सुकून भरा लगा। रात का तापमान 16 डिग्री के आसपास रहा और सुबह तो अच्छी खासी ठंड रही।

अगले दिन यानी छह जून को नाश्ता के बाद दोचू ला पास गए। यह भूटान के भीतर बर्फ से ढंके हिमालय में थिम्फू से पुनाखा तक की सड़क पर एक पहाड़ी दर्रा है , जहां 108 स्मारक चोर्टन या स्तूप हैं ,जिन्हें “ड्रुक वांग्याल चोरटेन” के नाम से जाना जाता है। दोचू ला दर्रा में उल्फा और बोडो उग्रवादियों के हमले में दिसंबर 2003 में दक्षिण भूटान में शहीद भूटानी जवानों की याद में बनाया गया स्मारक है। उल्फा और बोडो उग्रवादियों को भूटान से खदेड़ने के लिए रॉयल भूटान आर्मी ने आपरेशन चलाया था। इस आपरेशन को भारत सरकार का सहयोग था। इसका निर्माण रानी मां आशी दोरजी वांग्मो वांगचुक द्वारा कराया गया है। दर्रे पर मौसम आम तौर पर ठंडा रहता है। यह 3,100 मीटर ऊंचाई पर स्थित है। दोचुला दर्रा दुनिया के सबसे खूबसूरत दर्रों में से एक है। हरी-भरी पहाड़ी पर छोटे-छोटे चौकों से सजा यह स्थान आध्यात्मिकता, बहादुरी और भूटानी संस्कृति की एक दिलचस्प कहानी बताता है। दर्रे के पूर्व में हिमालय की बर्फ से ढंकी पर्वत चोटियाँ प्रमुखता से दिखाई देती हैं। दोचू ला दर्रे पर हिमालय के दर्शन और प्रकृति के अनुपम सौंदर्य का आनंद लेने के बाद पुनाखा के लिए रवाना हुए।

पुनाखा 1955 तक भूटान की राजधानी थी । इसके बाद भूटान की राजधानी थिम्फू स्थानांतरित हो गई । थिम्फू की अपेक्षा पुनाखा में सर्दियों में कम सर्दी और गर्मियों में अधिक गर्मी रहती है। पुनाखा सफ़ेद और लाल चावल के लिए प्रसिद्द है। यहां की फ़ो चू और मो चू नदियों की घाटी में ये दोनों प्रकार के धान पैदा होते हैं। यह दोनों नदियां भूटान की महत्वपूर्ण नदियां हैं। पहाड़ियों पर धान की खेती के लिए छोटे-छोटे खेत नजर आए। खेतों का निर्माण ढलान के मुताबिक़ किया जाता है, जिससे पानी ऊपर के खेत में आवश्यकता के अनुसार जमा हो जयस, फिर नीचे के खेत में जाए। दो चुला दर्रे से पुनाखा की यात्रा में हमें जगह-जगह रंग-बिरंगे झंडे देखने को मिले। वैसे तो पूरे भूटान में जगह-जगह रंग-बिरंगे झंडे लगे नजर आते हैं। बताते हैं ये झंडे पुरखों की याद और उनकी आत्मा की शांति के लिए लगाए जाते हैं। प्राकृतिक शक्तियों का प्रतिनिधित्व करने वाले झंडे पांच रंगों, “नीला (आकाश), सफेद (बादल), लाल (अग्नि), हरा (जल) और पीला (पृथ्वी)” में होते हैं। इन झंडों में बौद्ध धर्मग्रंथ की प्रार्थनाएं अंकित होती हैं। पुनाखा में नदी किनारे दोपहर का भोजन करने के बाद पुनाखा दज़ोंग देखने गए। इसे महान खुशी या आनंद का महल के नाम से भी जाना जाता है। यह भूटान में दूसरा सबसे पुराना और दूसरा सबसे बड़ा दज़ोंग है और सबसे राजसी संरचनाओं में से एक है। इसका निर्माण 1637-38 में न्गवांग नामग्याल , प्रथम झाबद्रुंग रिनपोछे द्वारा कराया गया था। अब यह पुनाखा जिले का प्रशासनिक केंद्र है। नदी किनारे बने द्ज़ोंग में बौद्ध मठ व मंदिर भी है। पुनाखा दज़ोंग पहले ड्रुक ग्यालपो के रूप में सर उग्येन वांगचुक के राज्याभिषेक का स्थल था । पुनाखा दज़ोंग के मुख्य भवन तक पहुंचने के लिए नदी पर बने पुल को पार करना होता है , फिर कई सीढ़ियां चढ़ने के बाद मुख्य भवन में पहुंचा जा सकता है।

सात जून को नाश्ता के बाद मंदिर और स्मारकों के दर्शन के लिए निकले। सबसे पहले मेमोरियल स्तूप थिम्फू गए। इसे थिम्फू चोर्टेन के नाम से भी जाना जाता है। इसका निर्माण 1974 में तीसरे ड्रुक ग्यालपो , जिग्मे दोरजी वांगचुक (1928-1972) के सम्मान में किया गया था। यह अपने सुनहरे शिखरों और घंटियों के कारण एक प्रमुख स्थल है। इस स्मारक में हिंदू संस्कृति की छाप दिखाई देती है। यहां पर काली मां के कई रूप देखने मिले और लोगों को मोमबत्ती के रूप में ज्योत जलाते भी देखा गया। इसके बाद भगवान बुद्ध की विशालकाय प्रतिमा के दर्शन के लिए पहुंचे। कमल के फूल की आकृति में विराजे भगवान बुद्ध की कांस्य प्रतिमा 169 फीट (52 मीटर) ऊँची है।यह प्रतिमा सोने से मढ़ी हुई है। इस मूर्ति का उल्लेख आठवीं शताब्दी में स्वयं गुरु रिनपोचे उर्फ पद्मसंभव के काल में किया गया था। ग्रेट बुद्ध डोरडेनमा कुएन्सेल फोडरंग के खंडहरों के बीच स्थित है। विशालकाय बुद्ध प्रतिमा का निर्माण 47 मिलियन की लागत से एक चीनी कंपनी ने किया है। यहाँ पर एक लाख से अधिक छोटी बुद्ध की कांस्य प्रतिमाएं हैं, ये भी सोने से मढ़ी हुई हैं। भूटान के लोग भगवान बुद्ध की वज्रयान शाखा को मानते हैं। वज्रयान बौद्ध धर्म राज्य धर्म है और जे खेंपो राज्य धर्म के प्रमुख हैं। भगवान बुद्ध की विशालकाय प्रतिमा के दर्शन के बाद हम लोग रॉयल टेकिंग प्रिजर्व सेंटर पहुंचे। यहाँ पर पहाड़ों से फिसलकर गिर पड़े जानवरों को सुरक्षित रखा गया है। यह कोई अभयारण्य नहीं है , लेकिन यहां पर भूटान में पाए जाने वाले कई जानवर देखने को मिल जाते हैं। रॉयल टेकिंग प्रिजर्व सेंटर में भूटान का राष्ट्रीय पशु ताकिन (takin) भी देखने को मिल गया। ताकिन भारत के अरुणाचल प्रदेश में भी पाया जाता है।

भूटान एक संवैधानिक राजतंत्र है जिसमें राज्य का प्रमुख राजा ( ड्रुक ग्यालपो ) और सरकार का प्रमुख प्रधानमंत्री होता है। वर्तमान में जिग्मे खेसर नामग्याल वांगचुक भूटान के राजा हैं। सांगायगैंग व्यू प्वाइंट से राजा के सरकारी कार्यालय ,भूटानी संसद, सुप्रीम कोर्ट और अन्य संवैधानिक संस्थाओं का अवलोकन कराया गया। भूटान की नेशनल लाइब्रेरी भी देखी। नेशनल लाइब्रेरी में रखे पत्थर के औजार, हथियार और अन्य अवशेष इस बात का सबूत देते हैं कि भूटान 2000 ईसा पूर्व में बसा हुआ था। अपने बनाए नियम कानून पर चलने वाला भूटान अपनी संस्कृति और परंपरा को बचाए हुए है। लोगों में भी अनुशासन है। भूटान के किसी शहर में चौक -चौराहे पर रेड लाइट नहीं लगी है , वहां ट्रैफिक के जवान भी तैनात नहीं रहते , फिर भी लोग ट्रैफिक नियमों का पालन करते दिखते हैं। क्रासिंग से रोड पार करते वक्त किसी व्यक्ति को देखकर चालक स्वयं ही रुक जाते हैं। भूटान ऐसा देश है जहां के नागरिकों के लिए ड्रेस कोड तय है। राजा से लेकर हर महिला और पुरुष ड्रेस कोड का कड़ाई से पालन करते हैं। प्रकृति की निर्मलता की तरह यहां के लोगों का दिल और मन निर्मल लगता है। इस कारण यह देश अपने विकास को जीडीपी की जगह लोगों की ख़ुशी से मापता है।

खाने-पीने की चीजों से लेकर श्रमिकों के लिए भारत पर भी निर्भरता

भूटान में खेती होती है। धान-आलू से लेकर सब्जियां पैदा होती हैं, लेकिन मांग की तुलना में उत्पादन कम होने के कारण चावल-आटा से लेकर सब्जियां और नान-वेज तक जयगांव से थिम्फू और पारो जाता है। कोलड्रिंक्स से लेकर मिनरल वाटर और चाय भी भारत से भूटान जाता है। वहीं भूटान में पैदा होने वाली पूरी बिजली भारत में खाप जाती है। भूटान से भारत बिजली खरीदता है। पहाड़ों से लगातार पानी रिसने के कारण यहां की नदियों में हमेशा पर्याप्त पानी रहता है, जिससे भरपूर बिजली तैयार हो जाती है। भारत के जयगांव और आसपास के इलाकों से रोजाना काम के लिए श्रमिक भूटान जाते हैं और शाम को काम कर लौट आते हैं। भूटान में चल रहे कई प्रोजेक्ट में भी भारतीय श्रमिक काम कर रहे हैं।

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