आज का शीर्षक पढ़कर आप चौंकेंगे,क्योंकि ये शीर्षक एक गीत की ध्रुव पंक्ति का हिस्सा है जो दशकों पहले राष्ट्रीय गीतकार स्वर्गीय वीरेंद्र मिश्र ने लिखा था .ये पंक्तियाँ आज इसलिए दोहराई जा रही हैं क्योंकि नदियों के आसपास बसे देश के तमाम शहरों में बाढ़ का हा-हाकार मचा हुआ है. नदियों में आई बाढ़ की वजह से सैकड़ों लोग काल कलवित हो गए हैं और एक बड़ी अधोसंरचना ध्वस्त हो गयी है. देश को न जाने कितने अरब रुपयों का नुक्सान हुआ है सो अलग.
दर असल बाढ़ की विभीषका किसी एक राज्य की समस्या नहीं है ,ये राष्ट्रीय समस्या है किन्तु दुर्भाग्य से इसे राष्ट्रीय स्तर पर हल करने की कोई कोशिश नहीं की गयी. आज भी जब बाढ़ अपना रौद्र रूप दिखाकर मनुष्यता को सिसकने पर विवश कर देती है तब बहते हुए आंसू और तबाही देखने का एक हवाई अभियान शुरू होता है. हमारे प्रधानमंत्री से लेकर स्थानीय मंत्री तक हैलीकाप्टरों में बैठकर बाढ़ में डूबे गांवों,टोलों मजरों का हवाई मुआयना करते हैं और लौटकर बाढ़ पीड़ितों को इमदाद की घोषणा कर फोटो सेशन करते हैं, लेकिन समस्या की तह में कोई नहीं जाना चाहता.
हाल ही में बाढ़ ऐसे राज्यों में भी आयी जो अक्सर सूखे के लिए अभिशप्त माने जाते हैं. बाढ़ के लिए मैदानी राज्य उत्तर प्रदेश,उत्तराखंड,मध्यप्रदेश ,हरियाणा,पंजाब ,राजस्थान गुजरात समेत अनेक राज्यों में हर साल भारी तबाही हुयी है.इस तबाही से बचने का कोई फुलप्रूफ सिस्टम नहीं है जिससे की इस तबाही को बचाया जा सके .बाढ़ से होने वाले नुक्सान का शत-प्रतिशत सही पता लगाने का कोई सिस्टम हमारे पास नहीं है.मैदानी राजस्व अमले के पास भी सिर्फ हवा-हवाई जानकारी होती है मुझे याद है की 20019 में हमारे सूबे मध्यप्रदेश में आयी बाढ़ से कम से कम 12 हजार करोड़ रूपये का नुक्सान हुआ था. हाल की बाढ़ में देश और दुनिया की बाढ़ से हुए नुक्सान का अभी कोई पता नहीं है बाढ़ आती है तो अपने साथ घर,मकान,सड़कें,नदी पर बने पुल,पुलियाँ,मकान,स्कूल,रेल पटरियां सब क्षतिगस्त होते हैं .सरकारों के लिए बाढ़ से निबटने का कोई अनुभव् नहीं है और अगर है भी तो बहुत सीमिति.
बाढ़ से निबटने के लिए दुर्भाग्य से कोई वैज्ञानिक सिस्टम हम तैयार नहीं कर पाए .हम बाढ़ की विभीषिका से निबटने के लिए लगभग एक सदी से कोशिश कर रहे .बीते 1858 साल से इस देश में नदियों को जोड़ने का कीड़ा कुनमुना रहा है.दरअसल, नदियों की इंटरलिंकिंग का विचार 161 वर्ष पुराना है. 1858 में ब्रिटिश सैन्य इंजीनियर आर्थर थॉमस कॉटन ने बड़ी नदियों के बीच नहर जोड़ने का प्रस्ताव दिया था, जिससे ईस्ट इंडिया कंपनी को बंदरगाहों की सुविधा प्राप्त हो सके एवं दक्षिण-पूर्वी प्रांतों में पुनः-पुनः पड़ने वाले सूखे से निपटा जा सके.
देश के पहले गैर कांग्रेसी सरकार के मुखिया अटल बिहारी बाजपेयी ने इस दिशा में गंभीर प्रयास किये थे,लेकिन उन्हें भी कोई ख़ास कामयाबी नहीं मिली.उलटे बांस बरेली को वाली कहावत हो गयी .वजह ये है कि नदियाँ एक प्राकृतिक संरचना हैं जो जबरन अपना प्रवाह नहीं बदलतीं.सबके उदगम हैं और सब समुद्र में जाकर मिलना चाहती हैं .नदियों के पारस्परिक रिश्ते भी कोई आज के नहीं हैं,लेकिन जब भी इनके साथ कोई छेड़छाड़ की जाती है तो नदियां बिदक जातीं हैं .बिदकी हुई नदियाँ ही बाढ़ की एक वजह मानी जाती हैं.
गुजरे जमाने में नदियों के किनारे संस्कृतियां विकसित होतीं थी,आज के जमाने में नदियों के किनारे अपसंस्कृतियाँ विकसित हो रहीं हैं .नदियों के साथ छेड़छाड़ के सौ तरीके इनसान ने ईजाद कर लिए हैं.अब तो इनसान मशीनों के जरिये नदियों की कोख खंगालने में जुटा हुआ है .नदियों पर बाँध बनाये जाते हैं तो वे बिदकतीं हैं.देश में जिन बड़ी-छोटी नदियों पर बाँध बनाये जाते हैं. मानवीय मूल्यों की अनदेखी कर जहाँ-जहां भी ऐसी कोशिशें हुईं ,वहां-वहां बाढ़ आयी .हमने नदियों कसे पता नहीं किस जन्म की अदावत का बदला लेना शुरू कर दिया है.
बाढ़ आने के जितने भी कारण हो सकते हैं उन सबके बारे में इनसान जानते हैं ,इसलिए मै उन्हें दोहराना नहीं चाहता .मै सिर्फ इतना कहना चाहता हूँ कि दुनिया में नदियों के साथ जितना बुरा सलूक भारत में किया जाता है उतना दुनिया में शायद ही किया जाता है. हम अपनी नदियों को पतित पावन और मोक्षदायनी तक कहते हैं किन्तु उन्हीं नदियों में साबुन ,शेम्पू लगाकर नहाते हैं,मल साफ़ करते हैं,शव बहते हैं,कल–कारखानों का जानलेवा रसायन इन्हीं नदियों में प्रवाहित कर देते हैं नदियां हमारे लिए कचरा पेटी के समान हो गयीं हैं ,अन्यथा क्या वजह है कि पहाड़ों से एकदम निर्मल होकर निकलने वाली नदियाँ मैदान में आते-आते जहरीली सर्पिणी जैसी हो जाती हैं.
बाढ़ से होने वाली तबाही की भरपाई हो ही नहीं पाती,की ही नहीं जा सकती,क्योंकि बाढ़ जिस निर्ममता के साथ विकास और मनुष्यता को रौंदती हुई आगे बढ़ती है वो वर्णातीत है किसी भी सरकार का पूरा बजट बाढ़ से हुए नुक्सान की न तो भरपाई कर सकेगी और न ही पुरानी स्थितियों को बहाल कर सकती है. देश में पूर्व से पश्चिम तक देश में जितनी भी नदियां हैं वे सब की सब मनुष्य की अराजकता का शिकार हैं केंद्र सरकार और राज्य सरकारें बाढ़ पीड़ितों के लिए हजारों करोड़ के पैकेज जारी करती है ,लेकिन ये तमाम राहत ऊँट के मुंह में जीरे जैसे होते हैं. सरकारी पैकेजों से देश में कोई बाढ़ न रुकी है और न रोकी जा सकती है.
भारत में बाढ़ से 2021 में कितनी क्षति हुई है इसका कोई आधिकारिक आंकड़ा नहीं है ,हो भी नहीं सकता.हमारे यहां भारत में बंगाल, उड़ीसा, आंध्रप्रदेश, केरल, असम, बिहार, गुजरात, उत्तरप्रदेश, हरियाणा और पंजाब ऐसे राज्य हैं जिनमें बाढ़ का ज्यादा असर होता है। इस वर्ष तो सूखे के लिए जाना जाने वाला राजस्थान भी बाढ़ की चपेट में आ गया है। मानसून की होने वाली बहुत अधिक बरसात दक्षिण पश्चिम भारत की नदियां जैसे ब्रहमपुत्र, गंगा, यमुना आदि बाढ़ के साथ इन प्रदेशों के किनारे बसी बहुत बड़ी आबादी के लिए खतरे और विनाश का पर्याय बन जाते हैं।
आज बाढ़ की वजह से देश की दशा कोढ़ में खाज जैसी हो गयी है.देश की अर्थव्यवस्था डेढ़ साल स कोरोना प्रकोप की वजह से जर्जर हो चुकी है और अब ऊपर से बाढ़ ने मिट्टी पलीद कर दी .जरूरत इस बात की है कि बाढ़ से बचने के लिए पहले हम अपनी नदियों को बचाएं,उनके रास्ते खाली करें .आपको जानकार हैरानी होगी कि बीते पचास साल में देश में अनेक नदियों का वजूद खत्म हो गया है और जो बच गयीं हैं उनमे से भी प्रदूषित नदियों की संख्या 302 से बढ़कर 351 हो गयी है .याद रखिये कि -‘नदी के अंग कटेंगे,तो नदी रोयेगी. @राकेश अचल