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कुल्लू दशहरा 372 साल की परंपरा, देवी-देवताओं में अटूट आस्था का प्रतीक है

भले ही आधुनिकता के दौर में हर क्षेत्र में परिवर्तन आ गया है। लेकिन अंतरराष्ट्रीय कुल्लू दशहरा उत्सव में 372 साल पुरानी देव परंपराओं का अटूट आस्था का निर्वहन होता है। ढालपुर में होने वाले देवी-देवताओं के महाकुंभ के प्रति लोगों में अटूट आस्था है और आज भी देव और मानस का यह भव्य देव मिलन पूरे विश्वभर में विख्यात है। अठारह करड़ू की सौह ढालपुर में कुल्लू जिला के सैकड़ों देवी-देवता अपनी हाजिरी देवलुओं के साथ भगवान रघुनाथ के दरबार में भरते है। कई किलोमीटर सफर के बाद देवी-देवता आराध्य रघुनाथ के समक्ष देवविधि के अनुसार मिलन करते हैं। 1650 में तत्कालीन राजा जगत सिंह ने कुल्लू दशहरे का आगाज किया था और उन्होंने अपना राजपाठ रघुनाथ के चरणों में समर्पित कर दिया था।

1660 इसवी में शुरू हुई दशहरा उत्सव

कुल्लू की रूपी रियासत के राजा जगत सिंह के वंशज एवं भगवान रघुनाथ के छड़ीबरदार महेश्वर सिंह पारंपरिक राजाओं की वेष भूषा में सज धज कर ढालपुर में लगी चानणी में राजगद्दी पर बैठे और जिला भर से आए हुए देवी देवता बारी-बारी आकर गद्दी पर बैठे राजा के सामने नतमस्तक हो गए। इस दृश्य ने दर्शकों को पूरी तरह से भाव विभोर किया। यह मनोरम नजारा दशहरा उत्सव के छठे दिन देखने को मिला। लिहाजा, 1660 इसवी में शुरू हुई दशहरा उत्सव की परंपरा का आज निर्वाहन किया गया। उस दौरान दशहरा उत्सव का आगाज तत्कालीन राजा जगत सिंह द्वारा किया गया था। राजा ने उस दौरान अपनी गद्दी को नरसिंह भगवान को सौंप दिया था और स्वयं भगवान रघुनाथ के छड़ीबरदार बन गए थे।उस घटना को याद रखने और उस दौरान की परंपरा जिंदा रहे इसके लिए इस घटना को परंपराओं में दोहराया जाता है। लिहाजा, जब राजा गद्दी पर बैठा होता है तो देवता भी अपने हरियानों के साथ ढोल नगाड़ों की थाप पर नाचते हुए राजा की गद्दी के सामने खड़े होकर नमन करते हैं। विश्व के सबसे बड़े देव महाकुंभ अंतरराष्ट्रीय कुल्लू दशहरा पर्व में बुधवार को सभी देवी-देवताओं ने भगवान रघुनाथ जी के अस्थाई कैंप में जाकर हाजरी भरी। यही नहीं सभी देवी-देवताओं का रघुनाथ के रजिस्टर में बाकायदा एंट्री होने के बाद देव महामिलन हुआ। इस देव महामिलन को मौहल्ला कहते है। देवी हिडिंबा माता फूलों का गुच्छा दिया जिसे शेश कहा जाता है उसके मिलते ही मौहल्ला पर्व शुरू हुआ। मौहल्ला पर्व में ही देवी-देवता रघुनाथ के रथ पर हाजिरी भरते हैं और रघुनाथ के पुजारी ने रथ पर बैठकर बाकायदा देवताओं के नाम रजिस्टर में दर्ज किए, लेकिन सबसे पहले हिडिंबा देवी का नाम दर्ज करने की परंपरा है।
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