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बिहार में खेल संख्या बल का – पटना से लवकुमार मिश्रा

बिहार विधानसभा चुनाव में संख्या बल का खेल है।  243 सदस्यों में  किस पार्टी के कितने सदस्य जीतकर विधानसभा में पहुंचते हैं, यह बड़ा मायने रखेगा।  यहाँ पहले चरण का मतदान 28 अक्टूबर से शुरू होगा। एनडीए गठबंधन बीजेपी और जेडीयू ने  6 जून के  अपने  वर्चुअल चुनाव अभियान में “अपनी सरकार के 15 साल बनाम लालू-राबड़ी शासन के 15 साल” को  चुनावी मुद्दा बनाया था। दूसरी ओर, राजद पिछले 15 वर्षों में भ्रष्टाचार, बेरोजगारी, घोटालों को  उजागर करते हुए मतदाताओं को बता रहा है कि कैसे लालू प्रसाद ने वंचितों, दलितों और सबसे पिछड़ी जातियों और समुदायों की आर्थिक और सामाजिक स्थिति को बढ़ावा दिया। तेजस्वी प्रसाद यादव लोगों को यह भी याद दिला रहे हैँ कि लालू प्रसाद ने इन वर्गों के लोगों को राजनीतिक रूप से भी सक्षम बनाया। वे यह भी आरोप लगा रहे हैं कि पिछले 15 वर्षों में नीतीश सरकार ने अत्यंत पिछड़ी जातियों को उनके अधिकारों से वंचित कर दिया। नीतीश कुमार ने सभी क्षेत्रों में जाट (कुर्मी) पुरुष और महिलाओं को ही लाभ पहुँचाया।

बिहार चुनाव के चरम के बीच  स्वर्ग सिधार गए वरिष्ठ समाजवादी नेता रामविलास पासवान के समर्थकों की चुनौतियों का सामना भी नीतीश कुमार को करना पड़ रहा है। पासवान और नीतीश पुराने साथी रहे हैं। लोजपा के अध्यक्ष चिराग पासवान ने भाजपा के राष्ट्रीय अध्यक्ष जेपी नड्डा को छह पन्नों का पत्र सौंपा।  चिराग ने पत्र को सार्वजनिक भी कर दिया। पत्र में खुलासा किया कि उनके पिता रामविलास पासवान को नीतीश कुमार ने लगातार अपमानित किया था। पासवान अस्पताल के बिस्तर पर थे, तब भी नीतीश ने उन्हें नजरअंदाज कर दिया था। चिराग का कहना है कि नीतीश ने पिछले साल भाजपा के समर्थन से पासवान को राज्यसभा भेजने का भी विरोध किया था।

फरवरी 2005 में पासवान ने नीतीश को मदद  करने से इनकार कर दिया था।  और अविश्वास प्रस्ताव के दौरान लोजपा के 29 विधायकों ने नीतीश के पक्ष में वोट नहीं डाला।  नतीजन नीतीश की सरकार  छह दिन ही चल पाई। यहीं से दोनों के बीच खाई बननी शुरू हुई और एक-दूसरे के कट्टर दुश्मन बन गए। 2007 में  नीतीश ने 22 दलित  जातियों को लेकर महादलित समुदाय बनाया, लेकिन जानबूझकर इसमें पासवान जाति को शामिल नहीं किया गया, जबकि पिछले चुनाव में पासवान  लोग महादलित समुदाय में शामिल थे।

बीजेपी पासवान फैक्टर की चपेट में है।  बीजेपी के कुछ नेता पार्टी की टिकट से चुनाव लड़ने से मना कर दिया और बाद में ये असंतुष्ट नेता एलजेपी में शामिल हो गए। ये जेडीयू और बीजेपी उम्मीदवारों के खिलाफ चुनाव भी  लड़ रहे हैं।  बीजेपी ने उनमें से नौ को निष्कासित कर दिया, जिनमें दो वरिष्ठ उपाध्यक्ष, रामेश्वर चौरसिया और श्रीमती उषा विद्यार्थी शामिल हैं। विधानसभा चुनाव लड़ने के लिए पुलिस महानिदेशक का पद छोड़ने वाले गुप्तेश्वर पांडे को जेडीयू ने टिकट नहीं दिया और चुनाव प्रचार के लिए स्टार प्रचारकों की सूची में भी उनका नाम नहीं रखा गया। इस अपमान और चोट से गुप्तेश्वर पांडे जेडीयू में सबसे ज्यादा दुखी और निराश हैं।

2020  का चुनाव लालू प्रसाद यादव, सुशील कुमार मोदी और नीतीश कुमार की तिकड़ी के लिए आखिरी चुनाव हो सकता है, जो रामविलास पासवान के साथ ही  90 के दशक में बिहार की राजनीति के चेहरे के रूप में उभरे थे । इन चार नेताओं ने पिछले 30 वर्षों में  बिहार की राजनीति में कई बदलाव कर नए मानदंड स्थापित किए और परंपराएं शुरू की। चारा घोटाले के आरोप में रांची की जेल में सजा काट रहे  72 साल के लालू  ही राजद का टिकट तय कर रहे हैं। अभी भी राजद का टिकट किसे मिलेगा, या नहीं  इस पर अंतिम मुहर उन्ही की लगती है। जेडीयू के प्रत्याशी  मुख्यमंत्री  नीतीश कुमार तय कर रहे हैं।  जेडीयू ने 115 पार्टी के उम्मीदवारों का चयन किया है, जबकि 68 साल के सुशील मोदी ने राज्य में कम से कम 40 सीटों पर भाजपा प्रत्याशी के चयन को अंतिम रूप देने में महत्वपूर्ण भूमिका निभाई है।  भाजपा नेता रविशंकर प्रसाद, भूपेन्द्र यादव, नित्यानंद राय, अश्विनी चौबे, गिरिराज सिंह और राधा मोहन सिंह जैसे पार्टी के दिग्गज नेता शेष  110 सीटों के लिए अपने-अपने उम्मीदवारों के लिए जोर आजमाइश कर रहे हैं , जहां भाजपा  सीटों के बंटवारे के  तहत अपना प्रत्याशी खड़े करेगी।

भाजपा राज्य में नए नेताओं की एक टीम खड़ी करने में सक्षम रही है।  टीम के सदस्य  मोदी के लिए दूसरी भूमिका निभाते हुए फिलहाल  खुश नजर आ हैं , वहीँ जेडीयू में ऐसा कोई नेता या टीम नहीं है, जो नीतीश के  अप्रासंगिक हो जाने के बाद पार्टी को संभाल सकता हो । इस कमी की वजह से जेडीयू अपने  अस्तित्व के  संकट का सामना करने जा रहा है। पटना के राजनीतिक पर्यवेक्षक  भविष्यवाणी कर रहे हैं कि पार्टी इस चुनाव में खराब प्रदर्शन करती है, तो  यह संभावित संकट जल्द ही आने की संभावना है।  नीतीश की  राजनीति  को जानने और समझने वाले  मानते हैं कि वे हमेशा असुरक्षित रहे हैं और यही वजह है पार्टी  के भीतर किसी को अपने से ऊपर उठाने नहीं दिया है।  केसी त्यागी जैसे जेडीयू  के कुछ नेताओं ने यह समझ लिया और अपने दायरे तथा सीमा में रहकर ही राजनीति की, जबकि करियर डिप्लोमैट पवन वर्मा  जैसे कुछ नेताओं को भ्रम हो गया था कि वे जदयू के पीछे दिमाग थे और उसके लिए  उन्हें कीमत चुकानी पड़ी। नीतीश की यह असुरक्षा बताती है कि उनके आसपास नौकरशाह हैं। वर्मा की तरह ही नीतीश के प्रधान सचिव आरसीपी सिंह भी एक उदाहरण हैं।  लगता है नौकरशाहों से नीतीश को अमृत प्राप्त होता है। पर नीतीश के नौकरशाह प्रेम के अपवाद भी हैं, जैसे मुंगेर से पार्टी के लोकसभा राजीव सिंह उर्फ़ ललन सिंह। 2010 में सिंह ने नीतीश के खिलाफ विद्रोह कर दिया था, जिसकी लंबी कहानी है। 69 वर्षीय नीतीश कुमार जैसे व्यावहारिक राजनीतिज्ञ के साथ वास्तव में कोई दिल से जुड़ा नहीं लगता है और न ही उनका कोई वफादार साथी रह गया है।  नीतीश कुमार उन्हीं का समर्थन करते हैं या उन्हीं के समर्थक हैं, जो निकट भविष्य में उनका काम आ सके। किसी को उपकृत करने के मामले में भी  बड़े सोच -विचार करते हैं।  ऐसे में उनके सत्ता से उतरने के बाद कौन साथ रह जायेगा। यह  बड़ा सवाल है। बीजेपी समर्थक मीडिया ही बीजेपी नेताओं के कहने पर एंटी-इंकम्बेंसी फैक्टर को फैला रही है।

अक्टूबर 2018 में पार्टी के राष्ट्रीय उपाध्यक्ष नियुक्त किये गए राजनीतिक रणनीतिकार प्रशांत किशोर को नीतीश का उत्तराधिकारी माना जाने लगा था। नीतीश को जानने वालों का अनुमान था कि  यह रिश्ता ज्यादा दिन नहीं चलने वाला है, और हुआ भी वही।  प्रशांत किशोर को जनवरी 2020 में पार्टी से निकाल दिया गया।  प्रशांत किशोर पार्टी उपाध्यक्ष के तौर पर स्वतंत्र निर्णय लेने लगे थे और पारी के कामकाज में उनकी दखलंदाजी बढ़ गई थी, जिसे न तो नीतीश कुमार ने सराहा और न ही उनके सेवानिवृत नौकरशाह सहकर्मियों ने। यह कुछ अजीब संयोग है कि नीतीश और उनके ब्यूरोक्रेट सहयोगी कुर्मी हैं।   निजी मुलाकातों में नीतीश के करीबी दोस्त कहते हैं उन्हें किसी विशेष प्रतिभा के कारण पद नहीं मिला है, बल्कि बॉस के लिए ‘हां’ और कभी ‘नहीं’ कहने  की क्षमता उनके करीब लाया। जनता की सराहना के बावजूद वे नीतीश की कुछ नीतियों की निजी तौर  पर आलोचना भी करते रहे हैं ।  बिहार चुनाव परिणाम की घोषणा 10 नवंबर को हो जाएगी।  भविष्यवाणी सच निकली और  जेडीयू  की सीटें 30 तक सीमित रह जाती है तो , फिर जेडीयू का विघटन और नीतीश के साम्राज्य का संतुलन बिगड़ना शुरू हो जाएगा।

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