पश्चिम बंगाल विधानसभा चुनाव के चौथे दौर का मतदान आते-आते राज्य में सत्ता की लड़ाई कर्कश सियासी आरोप-प्रत्यारोपों और खून खराबे से कुछ हटकर लजीज पकवान प्रतीकों तक आ गई है। सत्तारूढ़ तृणमूल कांग्रेस (टीएमसी) सुप्रीमो और राज्य की मुख्यमंसत्री ममता बैनर्जी ने राज्य के श्रीरामपुरा में एक चुनावी सभा में भाजपा नेताअों( अमित शाह) को बतौर चेतावनी कहा कि ‘हम हमारा रसगुल्ला ही खाएंगे, तुम तुम्हारा ढोकला खाओं !’ इसका राजनीतिक भावार्थ यही है कि बंगाली आदमी अपनी बंगाली पसंद और चरित्र नहीं छोड़ेगा और दीदी के साथ ही रहेगा, भले ही बीजेपी के (गुजराती) नेता उसे कुछ भी सब्ज बाग दिखाते रहें। ममता दीदी ने यह संदेश देने की कोशिश भी की कि जौ बात रोशोगुल्ले में है, वो ढोकले में कहां? ममता के इस ‘व्यंजक’ आरोप का कोई जवाब अभी बीजेपी खेमे से नहीं आया है। शायद इसलिए कि भाजपा नेताओं का ध्यान अभी दीदी और उनके तेवरों पर ही केन्द्रित है। पकवानों की राजनीतिक प्रतिद्वंद्विंता पर उनकी नजर अभी नहीं पड़ी है। यह भी संभव है कि चूंकि दीदी का सियासी वार सीधे ढोकले पर है, इसलिए भाजपा का कोई भी नेता जवाबी हमले से बच रहा है। बहरहाल ममता के इस नई जुमलेबाजी से सियासी कढ़ाही में नया उबाल तो आ ही गया है।
गौरतलब है कि अभी तक गुजरातियों के खिलाफ सबसे ज्यादा राजनीतिक रोष महाराष्ट्र में दिखता रहा है। मराठी बनाम गुजराती लड़ाई ने ही पूर्ववर्ती बाॅम्बे राज्य को दो भाषा आधारित राज्यों में बांट दिया था। मराठियों को दिक्कत थी कि गुजराती उन पर हावी होने की कोशिश कर रहे हैं। धंधा जमाने के साथ साथ वो जहां जाते हैं, अपने पैर भी जमा लेते हैं। बंगाल में भी कुछ गजराती रहते हैं,लेकिन उनका विरोध मारवाडि़यों जितना नहीं रहा है। लेकिन कभी लेफ्टा के गढ़ रहे बंगाल की सियासत में भाजपा के चोले में गुजराती अमित शाह की आक्रामक राजनीति ने इस चुनावी लड़ाई को बंगाली बनाम गैर बंगाली के समांतर बंगाली बनाम गुजराती में भी तब्दील कर दिया है। भाजपा जिस साम, दाम, दंड भेद की जिस आक्रामक रणनीति के साथ चुनाव लड़ रही है, दीदी उसी अनुपात में इस लड़ाई को बंगाली बनाम गैर बंगाली की शक्ल देने में जुटी है। इसके पीछे ममता का यह (आत्म) विश्वास है कि बंगाली आदमी कुछ भी हो जाए अपने बंगालीपन से गद्दारी नहीं करेगा। वो बंगालीयत, जो उसके सोच, समझ,रहन सहन खान पान और संस्कारों में साफ दिखती है।
इसमें शक नहीं कि भाजपा की प्रतीको की राजनीति का ममता भी उसी शैली में जवाब दे रही हैं। उनके लिए यह चुनाव ‘करो या मरो’ वाला है। प्रतीकों की यह राजनीति कई स्तरों पर हो रही है। ममता दीदी चुनाव प्रचार के शुरूआती दौर में पैर में लगी चोट का प्लास्टर अभी तक सहेजे हुए हैं और इसी को आगे करके इलेक्शन कैंपेन चला रही है।( कुछ आलोचक इसे दीदी का पाॅलिटिकल प्लास्टर भी बता रहे हैं।) कुछ उसी तर्ज पर चुनाव में एक भाजपा प्रत्याशी भी कर रहे हैं। खबर आई कि राज्य के बीरभूम जिले के लाभपुर विधानसभा क्षेत्र में भाजपा प्रत्याशी विश्वजीत साहा को प्रचार के दौरान लोगो ने जूता और झाड़ू मारकर पीटा। साहा ने भी लगे हाथ दीदी की तरह इस आपदा को अवसर में तब्दील करते हुए ऐलान कर डाला कि अब सिर पर जूता रखकर ही चुनाव प्रचार करेंगे। उन्होंने ऐसा किया भी। साहा का आरोप था कि यह जूतामारी विरोधी तृणमूल कांग्रेस के लोगों ने की है। ठीक वैसे ही जैसे दीदी ने पैर में चोट के लिए भाजपा को जिम्मेदार ठहराया था।
वैसे ‘बंगाली बनाम गुजराती’ की लड़ाई एकदम नई भी नहीं है। दो साल पहले जब जाने-माने अर्थशास्त्री अभिजीत बनर्जी को अर्थशास्त्र का नोबेल पुरस्कार मिला था, उस वक्त भी ट्विटर पर यूजर्स के बीच ‘बंगाली वर्सस गुजराती’ वाॅर देखने को मिला था। अभिजीत को नोबेल की घोषणा होते ही एक बंगाली यूजर ने गर्व के साथ ट्वीट किया था- हमने ( बंगाल) दुनिया और देश को 4 नोबेल पुरस्कार दिए, 1 आस्कर दिया, दो राष्ट्रगीत दिए ! ( इसमें छुपा सवाल था कि तुमने क्या दिया ?)। इस कटाक्ष भरे गर्वीले ट्वीट का तुरंत जवाब एक गुजराती यूजर ने दिया। उसने ट्वीट किया- हमने (गुजरात) दुनिया और देश को महात्मा गांधी, सरदार पटेल, मोरारजी देसाई, नरेन्द्र मोदी, भारतीय अंतरिक्ष विज्ञान के पितामह विक्रम साराभाई और इस्माइल मर्चेंट ( 6 ऑस्कर विजेता) दिए। अब वर्तमान संदर्भ को ध्यान में रखते हुए दोनो ट्वीट्स में एक अलिखित लाइन भी जोड़ी जा सकती है- बंगाल ने देश को रसगुल्ला दिया तो गुजरात ने ढोकला। कुछ लोगों को इस पर आपत्ति हो सकती है कि मिठाई का तोड़ नमकीन कैसे? इसका जवाब यह है कि गुजराती ढोकला मिठाई और नमकीन के बीच का व्यंजन है। यह उस तरह का नमकीन कतई नहीं है, जो रसरंजन का अनिवार्य घटक समझा जाता है। उसके साॅफ्टन नमकीन होने में ही उसकी व्यापक स्वीकार्यता है।
रसगुल्ला और ढोकले की राजनीतिक लड़ाई से परे इन दोनो व्यंजनों की ऐतिहासिकता में जाएं तो दोनो ही व्यंजन पुराने हैं। उनका पाकशास्त्रीय महत्व है। उनकी अपनी ऐतिहासिक पृष्ठभूमि भी है। और स्वादिष्टता तो निर्विवाद है ही। ध्यान रहे कि एक ही देश में जनित मिष्ठान्न रसगुल्ले के जीआई टैग को लेकर कुछ साल पहले दो पड़ोसी राज्यों ओडिशा और बंगाल में लंबी कानूनी लड़ाई चली थी। अोडिशा का दावा था कि रसगुल्ला मूलत: उसकी मिठाई है, जो पुरी के जगन्न्ाथ मंदिर में सदियों से चढ़ती आई है। ओडिशा के हलवाई ही इसे बंगाल ले गए। लेकिन ऐतिहासिक कालक्रम का ठोस पुरावा बंगाल ने दिया और रसगुल्ला उनका हो गया। वह बंगाली संस्कृति का अविभाज्य हिस्सा बन गया। वही दावा दीदी अब इस चुनाव में दमदारी से कर रही हैं।
रहा सवाल ढोकले का तो यह गुजरात की शाकाहारी डिश का अभिन्न हिस्सा रहा है। प्राचीन जैन ग्रंथों में इसका पहला उल्लेख 1066 ईस्वी में मिलता है। ढोकला गुजरातियों का पसंदीदा व्यंजन है और अब नाश्ते के रूप में दुनिया भर में प्रसिद्ध हो चुका है। बंगाल में तो यह राजनीतिक खतरे के रूप में छा गया है। वरना चुनाव प्रचार में दीदी को सत्ता की इस लड़ाई को ‘रसगुल्ला बनाम ढोकला’ बनाने की कोई वजह नहीं थी। अलबत्ता दीदी की परेशानी यह हो सकती है कि गुजराती खुद ढोकला खाकर संतुष्ट नहीं रहते, वो इसे दूसरे को खिलाने के भी आग्रही होते हैं। यही चिंता का विषय है। जबकि बंगालियों का रसगुल्ला आहार आत्मतोषक ज्यादा होता है। इतना कि बंगालियों का शब्दोच्चार भी ‘रोशोगुल्ला’ (रसगुल्ला) की भांति गोलाकार होने लगता है। ढोकला भक्षण में ऐसा नहीं होता। वह खाने वाले को बहुत आत्ममुग्ध नहीं बनाता। वैसे ढोकला और रसगुल्ला दोनो स्पांजी होते हैं। रसगुल्ला मीठी चाशनी में सिक्त रहता है, लेकिन ढोकला तली मिर्च के साथ और जायकेदार होता जाता है। इसे चतुराई न मानें लेकिन गुजराती नमकीन ढोकला खाकर भी बोलते मीठा ही है। इसके पीछे दोनो खाद्य पदार्थों की रेसिपी, सामाजिक तासीर और व्यवसाय बोध का फर्क भी बूझा जा सकता है।
अब सवाल यह कि अगर पश्चिम बंगाल में विधानसभा चुनाव का घमासान सचमुच ‘राजनीतिक व्यंजन वाॅर’ में तब्दील हो गया तो जीतेगा कौन? बंगाली मतदाता आदत के मुताबिक ‘रोशोगुल्ला’ ही गप करेंगे या फिर ढोकले की धाक चुनाव नतीजे का रंग बदल देगी? दूसरे शब्दों में कहें तो बंगाल किसी नए ‘राष्ट्रवादी खाद्य आक्रमण’ के आगे सरेंडर होने जा रहा है अथवा रोशोगुल्ले की उपराष्ट्रवादी मिठास ही यथावत रहने वाली है? जरा आप भी गौर फरमाएं.
वरिष्ठ संपादक ‘राइट क्लिक’