मध्यप्रदेश सहित देश के कई राज्यों में कोरोना वायरस आग की तेजी से फैल रहा है। इस पर काबू पाने के तमाम उपाय अपूरे साबित हो रहे हैं। मप्र में मुख्यमंत्री शिवराजसिंह चौहान कोरोना वायरस की दूसरी लहर को लेकर लगातार जन जागरूकता अभियान चला रहे हैं। सरकार ने कई कदम उठाएं भी हैं, लेकिन अभी भी जरूरत एक ठोस नीति और सतत रोड मैप की है। हमे मानकर चलना होगा कि कोविड की अभी और लहरें आती रहेंगीं, ऐसे में कोविड नियंत्रण और मुकाबले की एक स्थायी गाइड लाइन की बेहद जरूरत है। राज्य सरकार ने देर से ही सही, कोविड टेस्ट की दरें तय कर जनता को जांच लैबोरेटरी और अस्पतालों की लूट से राहत दी है। बावजूद इन सबके अब राज्य में कोविड के इलाज के लिए बेहद जरूरी रेमडेसिवियर इंजेक्शन की कालाबाजारी की चिंताजनक खबरें आ रही हैं। याद रहे कि यही स्थिति पिछले साल जुलाई-अगस्त में भी बनी थी, लेकिन उस से कोई सीख ली गई हो, ऐसा नहीं लगता। दूसरा शब्द आजकल बेहद चलन में है, वो है ‘नाइट कर्फ्यू’ इसकी वास्तविक उपयोगिता कितनी है, यह समझना मुश्किल है। अध्ययन बताते हैं कि कोरोना का फैलाव मुख्य रूप से दिन में होने वाले लोगों के आपसी सम्पर्क के कारण हो रहा है। रात में तो वैसे भी 90 फीसदी लोग घरों में ही रहते हैं।
हाल में राज्य सरकार ने कोविड टेस्ट की दरें जिस तरह लागू की हैं, उसी तरह रेमडेसिवियर इंजेक्शन की दरें भी तुरंत तय करनी चाहिए। चूंकि अब कोरोना मरीजों के इलाज का जिम्मा निजी अस्पतालो पर भी डाला गया है, इसलिए इलाज का खर्च नियंत्रित करने पर भी गंभीरता से ध्यान दिया जाना चाहिए। जो खबरें छन कर आ रही है, उसमें कुछ निजी अस्पताल तो कोविड इलाज के बिल लाखो में वसूल रहे हैं। ऐसे में जो गरीब कोरोना से बच भी जाए तो आर्थिक संकट से मर जाएगा।
जहां तक रेमडेसिवियर इंजेक्शन की बात है तो कोविड के इलाज में अब तक यही सबसे कारगर दवा मानी जा रही है। पिछले साल अप्रैल तक तो कोविड 19 की दुनिया में कोई दवा ही नहीं थी। तब स्थिति वाकई बेहद विकट थी। लेकिन मई 2020 में अमेरिका की जीलेड कंपनी ने पहली बार रेमडेसिवर दवा तैयार की, जो इंजेक्शन के जरिए दी जानी थी। बाजार में यह वेक्लूरी के नाम से बिकती है। रेमडेसिवर मूलत: सार्स कोविड 2 के इलाज के लिए विकसित की गई थी। लेकिन बाद में इसे कोविड 19 के इलाज में भी कारगर पाया गया। डब्लूएचओ की गाइड लाइन के मुताबिक बनी इस दवा को पहले डब्लूएचओ ने मंजूरी दी। भारत में पिछले साल जून में एफडीए ( खाद्य एवं औषधि प्रशासन) की स्वीकृति मिली। तब भारत सरकार ने दो दवा कंपनियों सिप्ला और हेटेरो को रेमडेसिवियर का जेनेरिक वर्जन बनाने की अनुमति दी थी। बीते बरस जब अगस्त में कोरोना की पहली लहर चरम पर थी, तब भी रेमडेसिवर का टोटा पड़ गया था और उसकी कालाबाजारी शुरू हो गई थी। हालांकि ये दवा निर्माता कंपनियां भी रेमडेसिविर इंजेक्शन 4000 से 5500 रू. में बेच रही थीं। महाराष्ट्र और गुजरात में इसकी कालाबाजारी करने वाला रैकेट भी पकड़ा गया था। तब सिप्ला ने इस इंजेक्शन की कीमत 2800 रू. तय की थी, लेकिन बाजार में यह 6 गुना ज्यादा दाम पर बेचा जा रहा था। कई अस्पतालो ने भी इस इंजेक्शन की आड़ में जमकर कमाई की। महाराष्ट्र सरकार ने गत दिसंबर में ही रेमडेसिविर का रेट 2360 रू. तय कर दिया
था।
वर्तमान में रेमडेसिवियर की कमी का एक प्रमुख कारण यह है कि बीते नवंबर में जब कोरोना की पहली लहर उतार पर थी, तब इसकी मांग भी एकदम घट गई, लिहाजा दवा कंपनियों ने इसका उत्पादन काफी घटा दिया था। लेकिन फरवरी से चमकी कोरोना की दूसरी लहर ने रेमडेसिवर को लेकर फिर हाहाकार की स्थिति बना दी है। यूं भारत सरकार ने इस दवा को बनाने के लिए 6 कंपनियों को लायसेंस दिए हैं, वो दवा बना भी रही हैं, लेकिन मांग एकदम आसमान तक जा पहुंची है। नतीजा यह है कि कई जगह यह इंजेक्शन आसानी से नहीं मिल रहा और मिल भी रहा है तो अनाप-शनाप दामों पर। हालांकि केन्द्र सरकार इस बात से इंकार करती है कि देश में रेमडेसििवर की कोई कमी है। सरकार के मुताबिक रेमडेसििवर की सप्लाई और उत्पादन पर वह कड़ी नजर रखे है, क्योंकि यह कोविड 19 ट्रीटमेंट प्रोटोकाॅल का हिस्सा है। उधर ऑल इंडिया ऑर्गनाइजेशन ऑफ ड्रगिस्ट एंड केमिस्ट एसोसिएशन का कहना है कि मध्यप्रदेश जैसे कोरोनाग्रस्त राज्यों में रेमडेसिवर शीशियों की मांग प्रतिदिन 10 हजार से अधिक हो गई है, जबकि सप्लाई 5 से 6 हजार शीशियों की ही हो पा रही है। कंपनियों ने मांग को देखते हुए उत्पादन बढ़ा दिया है, लेकिन मांग और आपूर्ति में संतुलन बनने में समय लगेगा। दूसरा अहम मुद्दा रेमडेसिवर की कीमत का है। मीडिया में कई रिपोर्टे हैं, जिसके मुताबिक रेमडेसिवर के कई जगह मनमाने रेट वसूले जा रहे हैं। रोगी और उसके परिजनों की मजबूरी यह है कि उन्हें मुंहमांगे दाम पर उसे खरीदना पड़ रहा है, क्योंकि किसी तरह पेशंट की जान बचानी है। इस बीच जाइलस केडिला कंपनी ने स्पष्ट किया है कि उसके रेमडेसिवर इंजेक्शन की कीमत मात्र 899 रू. है। कुछ दूसरी कंपनियों ने भी दाम घटाए हैं,लेकिन जरूरतमंदों तक इसका फायदा पहुंच रहा है या नहीं, यह देखने वाला कोई नहीं है। कुछ ऐसा ही हाल ऑक्सीजन सप्लाई का भी है। मप्र में इंदौर में उद्योगों को ऑक्सीजन सप्लाई रोक दी गई है, लेकिन पूरे राज्य यह काम इमर्जेंसी के बतौर किया जाना चाहिए।
दूसरा मुद्दा ‘नाइट कर्फ्यू’ का है। मप्र में भोपाल,इंदौर समेत कुछ शहरों में यह लागू है। अब तो दिल्ली व कुछ अन्य सरकार ने भी वहां इसे लागू कर दिया है। कहने को यह कोविड के प्रसार को रोकने का एक फौरी उपाय है, लेकिन असल में यह दूध की प्यास छाछ पीकर बुझाने से ज्यादा कुछ नहीं है। ज्यादा जोर इस बात पर दिया जाना चाहिए कि दिन में दफ्तारों, बाजारों व अन्य सार्वजनिक स्थानो पर होने वाले किसी भी प्रकार के जमावडे को कैसे सख्तील से रोका जाए। मुख्यमंत्री शिवराजसिंह ने भोपाल में सार्वजनिक रूप से लोगो से मास्क लगाने की अपील की। लेकिन ज्यादा जरूरत इस बात की है कि पुलिस हेलमेट के चालान बनाने के बजाए मास्क चालान बनाने पर ज्यादा ध्यान दे तो कुछ सख्तीट दिखे।
यह सही है कि सरकारें अब पूरा लाॅक डाउन लगाने के पक्ष में नहीं हैं। क्योंकि ऐसा करने से और नई समस्याएं पैदा होती हैं। अर्थव्यवस्था पर ताले पड़ जाते हैं। यानी कोरोना से बचे भी तो लोग भूख से मर जाएंगे। लिहाजा लोगों को खुद ही कोरोना से खुद बचाव करना होगा। कोरोना वैक्सीन भी राहत भर है, कोविड न होने का गारंटीकार्ड नहीं है। उधर कोविड मरीजों की संख्या दिन दूनी बढ़ने से अस्पतालों पर दबाव बहुत ज्यादा बढ़ गया है। राज्य ने सरकार ने अब फिर निजी अस्पतालो में 10 फीसदी बेड रिजर्व किए हैं। यह निर्णय और पहले होता तो बेहतर होता। दरअसल जरूरत कोविड से लड़ने की दीर्घकालिक रणनीति की है। ऐसा सिस्टम बनाने की जरूरत है, जो कोविड के घटते- बढ़ते मिजाज के मुताबिक खुद ऑन-ऑफ होता रहे। पिछले अनुभव की पूंजी हमारे पास है। अभी कोविड की तीसरी और चौथी लहर भी आ सकती है। क्योंकि कोरोना लगातार रंग रूप बदल रहा है। ऐसे में एक स्थायी कोरोना गाइड लाइन बनाने की आवश्यकता है कि कोरोना लहर के संकेत मिलते ही किसे, कब, क्या और किस समय सीमा में करना है। सरकार में शीर्ष स्तर भी एक कोविड ग्रुप हो, जो कोविड इलाज के विस्तार और दरों पर नियंत्रण, टेस्टिंग, आवश्यक दवाइयो और अन्य सामग्री की समुचित और निरंतर उपलब्धता, पर्याप्त मेडिकल स्टाफ, जरूरी उपकरणों की सप्लाई पर सतत निगरानी रखे। कोविड का इलाज भी एक ‘सेवा’ है न कि तिजोरी भरने का जरिया। होनी को रोका भले न जा सके, लेकिन टाला तो जा सकता है।
वरिष्ठ संपादक ‘राइट क्लिक’