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मुद्दों की ओर लौटने का समय

राकेश अचल

राजनीति पर लिखना और पढ़ना हर वक्त सरस नहीं होता इसलिए आज मैं पर्यावरण संरक्षण पर लिख रहा हूं। ये एक ऐसा मुद्दा है जिस पर हमारे यहां सबसे ज्यादा गाल बजाए जाते हैं लेकिन काम दिखावे के लिए ही होता है।इस दिखावे की पोल तब खुलती हैं जब। दूसरे देश आंकड़े जारी करते हैं।
विश्व आर्थिक मंच हर साल विश्व के 180 देशों में पर्यावरण के बारे में एक रैंकिंग जारी करता है।इस रेंकिंग में इस बार विश्व गुरु भारत सबसे नीचे रखा गया है। यानि 180 वें स्थान पर। हमसे ऊपर वियतनाम, बांग्लादेश और परम शत्रु पाकिस्तान का स्थान है। दुर्भाग्य ये है कि इस बारे में न हमारे भाग्य विधाता बात करते हैं,न राजनीति होती है और न किसान आंदोलन की तरह कोई राष्ट्रव्यापी आंदोलन। क्योंकि हमारे लिए पर्यावरण कोई मुद्दा है ही नहीं।
दुनिया में हम केवल पर्यावरण के मामले में ही नहीं बल्कि स्वास्थ्य, शिक्षा,भूख,सुख, जैसे तमाम मामलों में बहुत पीछे हैं किंतु हम इन सबकी परवाह नहीं करते। इन मुद्दों पर वोट नहीं मांगा जाता, सरकार बनाई और बिगाड़ी नहीं जाती।हम सारा ध्यान देश को हिंदू राष्ट्र और राजनीति को कांग्रेस या भाजपा विहीन बनाने में लगा रहता है। यानि हम मुद्दाविहीन संस्कृति के पक्षधर हैं।
भारत में पर्यावरण उतनी ही बड़ी समस्या है जितनी बड़ी कि आबादी, ग़रीबी और मंहगाई। लेकिन हमारी सरकारें सिंगल इंजन की है या डबल इंजन की पर्यावरण की समस्याओं को लेकर गंभीर प्रयास नहीं करतीं। हमारे देश में वायु प्रदूषण, जल प्रदूषण, कचरा, और प्राकृतिक पर्यावरण के प्रदूषण भारत के लिए चुनौतियाँ हैं।
आंकड़े बताते हैं कि भारत में पर्यावरण की समस्या से निपटने के लिए आजादी के बाद से ही प्राथमिकता से काम नहीं किया गया, फलस्वरूप भारत 1947 से 1995 तक लगातार पिछड़ता चला गया।
भारत में 1995 से 2010 के बीच अपने पर्यावरण के मुद्दों को संबोधित करने और अपने पर्यावरण की गुणवत्ता में सुधार लाने में सबसे तेजी से प्रगति की फिर भी, भारत विकसित अर्थव्यवस्थाओं वाले देशों के स्तर तक आने और पर्यावरण की गुणवत्ता तक पहुँचना भारत के लिए आज भी एक बड़ी चुनौती है।
हमारे देश में पर्यावरण की समस्याओं को आर्थिक विकास की अव्यावहारिक सोच ने भी जटिल बनाया। आर्थिक विकास में भारत के पर्यावरण प्रबंधन में सुधार लाने और देश के प्रदूषण को रोकने के लिए जो काम होना चाहिए थे वे नहीं हुए। बढ़ती जनसंख्या भारत के पर्यावरण क्षरण का प्राथमिक कारण भी है।तेजी से बढ़ती हुई जनसंख्या व आर्थिक विकास और शहरीकरण व औद्योगीकरण में अनियंत्रित वृद्धि, बड़े पैमाने पर औद्योगीक विस्तार तथा तीव्रीकरण, तथा जंगलों का नष्ट होना इत्यादि भारत में पर्यावरण संबंधी समस्याओं के प्रमुख कारण हैं।
ये हकीकत है कि वन और कृषि-भूमिक्षरण, संसाधन रिक्तीकरण यानि पानी, खनिज, वन, रेत, पत्थर का अंधाधुंध दोहन,पर्यावरण क्षरण, सार्वजनिक स्वास्थ्य, जैव विविधता में कमी, पारिस्थितिकी प्रणालियों में लचीलेपन की कमी, गरीबों के लिए आजीविका सुरक्षा की कथित कोशिश के चलते बंटाधार हुआ।

यह अनुमान है कि देश की जनसंख्या वर्ष 2023 के अंत तक तक 1.40 अरब तक बढ़ जाएगी । अनुमानित जनसंख्या का संकेत है कि 2050 तक भारत दुनिया में सबसे अधिक आबादी वाला देश होगा और चीन का स्थान दूसरा होगा। दुनिया के कुल क्षेत्रफल का 2.4 प्रतिशत परन्तु विश्व की जनसंख्या का 17.5 प्रतिशत होने की वजह से भारत का अपने प्राकृतिक संसाधनों पर दबाव काफी बढ़ गया है। कई क्षेत्रों पर पानी की कमी, मिट्टी का कटाव और कमी, वनों की कटाई, वायु और जल प्रदूषण के कारण बुरा असर पड़ता है।
दुर्भाग्यवश हमारे देश में अब तक ऐसी कोई सरकार नहीं चुनी गई जो पर्यावरण संरक्षण के लिए संकल्पित हो। हमारे यहां अधिकांश राजनीति प्रकृति की लूट-खसोट पर आधारित है। फिर चाहे वो वीरप्पन के रूप में हो चाहे बेल्लारी बंधुओं के रूप में।हर कोई पर्यावरण की चिंता किए बिना ही जल, जंगल और जमीन को लूट लेना चाहता है। सत्ता इस लूटमार का सबसे घातक हथियार है। यानि बागड़ ही खेत को खा रही है।

हम विश्व गुरु बनने का प्रयास कर रहे हैं, किंतु हमारे पास न शुद्ध हवा है ,न पानी। न जल,न जंगल।न पशु,न पक्षी।हम सब गंवाते जा रहे हैं। हमारे यहां दि कश्मीर फाइल और केरला स्टोरी जैसी फिल्में तो बनती हैं लेकिन पर्यावरण की लूट को अनावृत करने वाली फिल्में नहीं बनतीं। हमारे पर्यावरण संरक्षण के योद्धा रेमन मैग्सेसे पुरस्कार पाकर घर बैठ जाते हैं। कोई सुंदरलाल बहुगुणा नहीं बनना चाहता। ऐसे में 180 देशों की पर्यावरण रेंकिंग में सबसे नीचे रहना ही हमारी नियति है।

कहने को हमारी लोकप्रिय सरकार ने 2023-24 में, पर्यावरण, वन और जलवायु परिवर्तन मंत्रालय को 3,079 करोड़ रुपये आवंटित किए गए हैं, जो 2022-23 के संशोधित अनुमानों से 24 प्रतिशत अधिक है। इसमें राजस्व व्यय 95 प्रतिशत के लिए 2,934 करोड़ रुपये और पूंजीगत व्यय 5 प्रतिशत के लिए 145 करोड़ रुपये शामिल हैं। 2022-23 के संशोधित चरण में, पूंजीगत व्यय का अनुमान 73 करोड़ रुपये था, जो बजट अनुमानों से 37 फीसदी कम था। 2022-23 के संशोधित अनुमानों की तुलना में 2023-24 में पूंजीगत व्यय के लिए आवंटन दोगुना हो गया है। इतने पैसे से हम विश्व रैंकिंग में उछलकर ऊपर नहीं आ सकते। हमे सरकार के भरोसे बैठने के बजाय खुद भी काम करना होगा। व्यक्तिगत स्तर पर भी और सामुदायिक स्तर पर भी।

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