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श्रृद्धांजलि: हिंदी फिल्मों की क़ुतुब मीनार थे दिलीप साहब

हिंदी फिल्मों के आधार स्तम्भों में से आखरी प्रमाण रहे दिलीप कुमार नहीं रहे. वे दो साल और रुक जाते तो शतकीय पारी पूरी कर चुके होते. दिलीप कुमार को दिलीप कुमार लिखने में संकोच होता है. उन्हें दिलीप साहब लिखना सुकून देता है. दिलीप साहब के बारे में लिखने के लिए कुछ भी नया नहीं है. उनके बारे में असंख्य सूचनाओं से अंतरजाल के पन्ने भरे पड़े हैं. दिलीप साहब के बारे में जितना कुछ लिखा गया है उतना शायद किसी दूसरे भारतीय फिल्म अदाकार के बारे में नहीं लिखा गया. मै उनके बारे में एक ही नई बात लिख सकता हूँ कि वे भारतीय सिनेमा की ‘क़ुतुब मीनार’ थे. अकेले, अनूठे और सबसे अलग.

दिलीप साहब 98 वर्ष के थे. उनके हिस्से में भारतीय सिनेमा के कम से कम 77 वर्ष तो आते ही हैं .वे निसंतान थे, उनकी अपनी फ़िल्मी सल्तनत थी. मैंने जब से होश सम्हाला मेरे लिए दिलीप कुमार भारतीय जन-जीवन का एक अपने बीच का चेहरा थे. उनके पास जो कुछ था, सब मौलिक था. मैंने छात्र जीवन में ही उनकी तमाम फ़िल्में देख डालीं थी. उनकी पहली फिल्म ज्वार-भाटा के जिस शो को देखने मै सिनेमाघर में गया था उसमें बामुश्किल 25 आदमी रहे होंगे. उनकी श्वेत-श्याम फिल्मों से लेकर आज की रंगीन फिल्मों में से शायद ही कोई ऐसी फिल्म होगी जो मैंने न देखी हो. मेरी तरह दिलीप साहब की फिल्मों के दीवानों की संख्या करोड़ों में होगी.

दिलीप साहब की फ़िल्मी जिंदगी के बारे में आपको हर सूचना मिल जाएगी लेकिन जो बात मुझे नयी लगती है वो ये कि उन्होंने जनता के दिल में जो जगह बनाई थी उसे आज के बादशाह अमिताभ बच्चन जी भी हासिल नहीं कर पाए. दिलीप साहब आजादी के पहले और आजादी के बाद के भारत की तरुणाई का प्रतिनिधित्व करते थे. उन्होंने ठेठ ग्रामीण किशोर से लेकर युवा तक का जीवन परदे पर हूँ-ब-हूँ उतार कर रख दिया था. वे समाज में युवाओं के उत्साह, प्रेम, उमंग, कुंठा, आक्रोश , घृणा, बेबसी जैसे सभी भावों में रंग भरने वाले इकलौते कलाकार थे. दिलीप साहब की दिलीप साहब बनाने में अकेले उनका अभिनय ही सब कुछ नहीं था. उनकी खुशनसीबी थी की उन्हें अपने जमाने के नायाब फिल्म निर्माता, लेखक, निर्देशक, संगीतकार मिले. दिलीप साहब ने सभी पक्षों को अपने में समाहित कर फ़िल्मी दुनिया को जो दिलीप कुमार दिया वो हमारी धरोहर है.

एक जामाना था जब हर कोई दिलीप कुमार सा दिखना चाहता था, बनना चाहता था. दिलीप कुमार का देशज पहनावा, गले में ताबीज, बंद गले का कुर्ता, धोती, और इसके इतर अमीरजादों जैसी ठसक, हर नौजवान की चाट थी. दिलीप साहब हर भारतीय के सपनों में बसते थे. उन्होंने शायद ही कोई ऐसा किरदार शेष हो जो न किया हो. जब तमाम अभिनेता रिटायर होकर अपने घरों में बैठ गए तब दिलीप साहब नयी ऊर्जा के साथ उस जमाने के दर्शकों के बीच खड़े दिखाई दिए जो उनके लिए एकदम नयी पीढ़ी थी. उन्होंने फिल्मों के अलावा न तेल का विज्ञापन किया न मंजन का.

दिलीप साहब को देखकर कितने अभिनेताओं ने अभिनय के क्षेत्र में झंडे फहराए उनकी एक लम्बी सूची है. आज भी अनेक नाम-चीन्ह अभिनेता कहीं न कहीं दिलीप साहब को जीते हैं. दिलीप साहब के अभिनय के इतने रंग हैं कि यदि आप सभी को एकसाथ देखना चाहें तो देख नहीं सकते. उनके अभिनय का इंद्रधनुष जब अपने रंग बिखेरता है तो आँखें चौंधिया जाती हैं. यहां मै दिलीप साहब की किसी एक फिल्म का उल्लेख नहीं करना चाहता, क्योंकि ऐसा करना उनकी दूसरी फिल्मों के साथ अन्याय होगा. दिलीप साहब की सुपर हिट फ़िल्में हों या एकदम फ्लॉप फ़िल्में एक दस्तावेज जैसी हैं. उन्होंने हर फिल्म में अलग तरीके से काम किया.

दिलीप साहब को जो मिलना चाहिए था सो बिना मांगे मिला. धन, मान-सम्मान सब सिवाय एक औलाद के. शायद ये भी ऊपर वाले का फैसला होगा कि दिलीप साहब जैसा कोई दूसरा बनाया ही न जाये ! दिलीप साहब के पहले भी महान अभिनेता हुए और बाद में भी महानतम अभिनेताओं की कोई कमी नहीं है लेकिन दिलीप साहब जैसा गगनचुम्बी व्यक्तित्व बना पाना हर किसी के बूते की बात नहीं है. दिलीप साहब सचमुच के इतिहास पुरुष बन गए हैं. आने वाली पीढ़ियां दिलीप साहब के बारे में जब पढेंगीं तब उन्हें खोजकर देखेंगी, समझेंगीं.

दिलीप साहब पर जैसा कि मैंने कहा की हजारों पृष्ठ लिखे जा सकते हैं, लिखे गए हैं और आगे भी लिखे जायेंगे यदि सही अर्थों में दिलीप साहब के योगदान का सम्मान करना है तो उन्हें भी भारतरत्न सम्मान से अलंकृत किया जाना चाहिए. वे अब तक भारतरत्न से अलंकृत किये गए किसी भी महान व्यक्ति से कम महान नहीं थे. लेकिन दुर्भाग्य ये है कि हम अपने देश के असली रत्नों को स्वीकार करने में संकोच करते हैं.

हमारे यहां चूंकि बुतपरस्ती पर रोक नहीं है. हर साल देश भर में न जाने कितने नेताओं की प्रतिमाएं स्थापित होती हैं, बेहतर हो कि मुंबई अपने इस महान सपूत की प्रतिमा लगाने का भी निर्णय करे, उनके नाम से अभिनय के संसथान खोले, पुरस्कार दे, दिलीप कुमार को अपनी पलकों में छिपाकर एक पत्नी के साथ-साथ एक मित्र, एक अभिभावक की तरह अब तक सम्हालकर रखने वाली सायराबानो के प्रति हमारी तमाम संवेदनाएं हैं. दिलीप साहब के जीवन में सायराबानो से पहले अनेक नामचीन्ह अभिनेत्रियां आयीं, गयीं लेकिन आखिर तक हमसाया बनकर केवल सायराबानो ही रहीं. उनके ऊपर तो दुखों का पहाड़ ही टूटा है. दिलीप साहब जैसा न कोई था और न होगा.

विनम्र श्रृद्धांजलि. @राकेश अचल.

 

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