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जानिए रानी लक्ष्मीबाई के अंग्रेजों के खिलाफ बहादुरी के किस्से

इतिहास में रानी लक्ष्मीबाई का नाम वीरांगना के तौर पर दर्ज है. अंग्रेजों के खिलाफ लड़ाई में उनकी बहादुरी के किस्से कविताओं और लोक गीतों तक में पाए जाते हैं. बच्चों की जुबान पर उनकी साहस और वीरता के किस्से मशहूर हैं. अपनी मातृभूमि के लिए उन्होंने अपना बलिदान देने से भी नहीं गुरेज किया. ‘मैं अपनी झांसी नहीं दूंगी’ का बोला गया उनका वाक्य आज भी लोगों को याद है. वीरांगना महारानी लक्ष्मीबाई का आज जन्मदिन है. इस मौके पर आइए जानते हैं जंग आजादी की एक बहादुर महिला के बारे में-

महारानी लक्ष्मी बाई का जन्म 19 नवंबर 1828 को वाराणसी के अस्सी घाट के नजदीक हुआ. उनके पिता का नाम मोरेपंत और मां का नाम भागीरथी बाई था. घर में उनका नाम मणिकर्णिका रखा गया मगर प्यार से उन्हें मनु कहा जाने लगा. 4 साल की उम्र में मणिकर्णिका को उनके माता-पिता कानपुर के पास बिठूर ले गए. यहां उनका बचपन पेशवा बाजीराव के दत्तक पुत्र नानासाहेब के साथ खेलते बीता.

मणिकर्णिका उर्फ मनु की जब उम्र 14 साल की हुई तब उनको शादी के बंधन में बांध दिया गया. झांसी के राजा गंगाधर राव को नि:संतान होने के चलते अपना वंश बढ़ाने की चिंता थी. दूसरी चिंता अंग्रेजों की साजिश के तहत झांसी को अंग्रेजी राज्य में जाने से बचाने की भी थी. अंग्रेजों ने शर्त लगा रखी थी की उनकी मौत के बाद उनका अपना खून ही वारिस होगा. झांसी के राजा गंगाधर राव के लिए मनु को राजमहल के योग्य माना गया. 1842 में राजा गंगाधर राव से झांसी के गणेश मंदिर में मनु का विवाह करा दिया गया.

शादी के बाद उनका नाम झांसी के राजा गंगाधर राव ने लक्ष्मी बाई रख दिया. 1851 में पुत्र रत्न की प्राप्ति से झांसी का राजमहल खुशियों से झूम उठा. मगर उसके लिए ये खुशी कुछ ही महीनों की साबित हुई. 4 महीने बाद ही गंगाधर राव के पुत्र की मौत हो जाने से एक बार फिर विरासत को बचाने की समस्या खड़ी हो गई. गंगाधर राव ने दामोदर राव नाम के एक बच्चे को गोद लिया. मगर अपने बच्चे की मौत के सदमे से राजा गंगाधर उबर ना पाए. खुद की औलाद ना होने पर अंग्रेजों ने रानी लक्ष्मी बाई को झांसी छोड़ने का फरमान जारी कर दिया.

जब अंग्रेजो के दूत रानी लक्ष्मी बाई के पास गवर्नर जनरल लॉर्ड डलहौजी का फरमान लेकर आए तो सिंहासन से उठकर, गरज कर लक्ष्मी बाई ने कहा, मैं अपनी झांसी नहीं दूंगी. उनके पास अंग्रेजी सत्ता से टकराने के अलावा और कोई विकल्प नहीं बचा. जनवरी 1858 में अंग्रेजी सेना और लक्ष्मी बाई की सेना के बीच जंग 2 हफ्तों तक चलती रही. अंग्रेजों की सेना के आगे लक्ष्मी बाई की सेना का वार मद्धिम पड़ने लगा. आखिरकार 3 अप्रैल 1858 को अंग्रेजों ने झांसी के किले पर कब्जा कर लिया. मगर रानी लक्ष्मी बाई ने हिम्मत नहीं हारी. उन्होंने अपने दत्तक पुत्र दामोदर राव को अपनी पीठ पर बांधा और अंग्रेजों की आंख में धूल झोंक भाग निकलीं.

कालपी में उन्होंने ग्वालियर किले पर कब्जा करने की रणनीति बनाई. 31 जून को लाव लश्कर के साथ धावा बोलकर किले पर कब्जा जमा लिया. अंग्रेजों के लिए अंग्रेजों के लिए ये खबर शर्मनाक थी. अंग्रेजों ने रानी लक्ष्मी बाई के खिलाफ सेना मैदान में उतार दी. महारानी लक्ष्मी बाई अपने वफादार घोड़े पर सवार अंग्रेजों पर बिजली की तरह टूट पड़ीं और अंग्रेजों का सफाया कर तेजी से आगे बढ़ने लगीं. लड़ते लड़ते एक नाले तक आ पहुंची लेकिन वहां पहुंचने के बाद उनका घोडा अड़ गया.

मौके को गनीमत जान अंग्रेजी दुश्मनों ने लक्ष्मी बाई को चारों ओर से अपने घेरे में ले लिया. उन्होंने आखिरी वक्त तक बहादुरी से लड़ते अंग्रेज सैनिकों को मार डाला. इस तरह 18 जून 1858 का दिन ग्वालियर में लड़ाई का दूसरा और महरानी लक्ष्मी बाई की जिन्दगी का आखिरी दिन साबित हुआ. दो दिन बाद जयाजीराव सिंधिया ने जीत की खुशी में जनरल रोज और सर रॉबर्ट हैमिल्टन के सम्मान में ग्वालियर में भोज दिया.

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