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‘एक्जिट पोल’ बनाम ‘एक्जेक्ट पोल’ 

लोकतंत्र के लिए चुनाव महोत्सव हुआ करते थे लेकिन अब ये चुनाव जुआ हो गए हैं. संभावनाओं, आकलनों और अटकलों ने चुनावों का मूल स्वरूप छीन लिया है. अब लोकतंत्र प्रेमियों का उतावलापन इतना बढ़ गया है कि कोई भी मतदान के बाद चुनाव नतीजों का इन्तजार करने को राजी नहीं है. इधर मतदान समाप्त  हुआ नहीं कि उधर एक के बाद एक एक्जिट पोल आना शुरू हो गए.

एक्जिट पोल देखने और सुनने में बड़े अच्छे लगते हैं लेकिन इनसे क्या हम वास्तव में एक्जेक्ट नतीजों के अनक़रीब पहुँच पाते हैं या फिर एक ऐसी परम्परा को बढ़ावा देते हैं जो केवल और केवल हमारी जुआरी मानसिकता का पोषण करती है ? आखिर हमारी उत्सुकता इतनी बलवती क्यों है जो कुछ दिनों का इन्तजार करने के लिए राजी नहीं है ? मुझे याद है कि आज से कोई 26  साल पहले तक भारत में कोई  ‘ एक्जिट पोल ‘ के बारे में जानता तक नहीं था. शायद 1996  में पहली बार सीएसडीएस को दूरदर्शन पर इस तरह का एक्जिट पोल दिखाने की इजाजत दी गयी थी.

एक्जिट पोल को एक्जेक्ट पोल बताने का उतावलापन मुझे लगता है देश में जुआरियों का शिगूफा बन गया है. नतीजों को लेकर सट्टेबाजी होती है, दांव लगाए जाते हैं, टीवी चैनल भविष्यवक्ता बनकर अपना-अपना सर्वे दिखते हैं, बहसें कराते हैं, अखबारों को उनका अनुशरण करना पड़ता है और जनता मजबूरन इन एक्जिट पोल्स की पोल में फंसी रह जाती है. जनता के हाथ कुछ नहीं आता. मजे की बात ये है कि अतीत में अनेक अवसरों पर ये कथित रूप से वैज्ञानिक एक्जिट पोल औंधे मुंह गिर चुके हैं, लेकिन ये हैं कि हर बार अपनी धूल झाड़कर फिर से खड़े हो जाते हैं.

देश के पांच राज्यों में हुए विधानसभा चुनावों के मतदान के अंतिम चरण के बाद फटाफट एक्जिट पोल आने लगे. सबसे ज्यादा ध्यान यूपी के विधानसभा चुनावों  पर केंद्रित है. यहां चैनलों ने जिसकी भी सरकार बनवाना थी, चुनाव नतीजे आने से पहले ही बनवा दी है. पंजाब समेत दूसरे राज्यों के चुनाव नतीजों को लेकर भी टीवी चैनल और अखबार मिलकर अपना नतीजा सुना चुके हैं. अब औपचारिक नतीजे आने तक इनका बाजार गर्म रहेगा. बाद में क्या होगा, कोई नहीं जानता.

पिछली बार जब मै अमेरिका में था तब मुझे बताया गया था कि एक्जिट पोल करने की बीमारी भारत में अमेरिका से ही गयी है. अमरीका में ओपिनियन पोल सर्वे का जनक जॉर्ज गैलप और क्लॉड रोबिंसन माना जाता है. ये कोई सौ साल पहले की बात है. जब अमेरिका सरकार के कामकाज का आकलन करने के लिए चुनाव सर्वे कराया गया तो ये चुनाव बाद आये नतीजों के अनक़रीब पाया गया, इससे इसकी लोकप्रियता बढ़ी. अमेरिका की देखा देखी ब्रिटेन तथा फ्रांस ने भी इसे अपनाया और बहुत बड़े स्तर पर ब्रिटेन में 1937 जबकि फ्रांस में 1938 में ओपिनियन पोल सर्वे कराए गए। इन देशों में भी ओपिनियन पोल के नतीजे बिल्कुल सटीक साबित हुए थे। जर्मनी, डेनमार्क, बेल्जियम तथा आयरलैंड में जहां चुनाव पूर्व सर्वे करने की पूरी छूट दी गई है, वहीं चीन, दक्षिण कोरिया, मैक्सिको इत्यादि कुछ देशों में इसकी छूट तो दी गई है किन्तु कुछ शर्तों के साथ।

अमेरिका के अलावा नीदरलैंड का दावा है कि एग्जिट पोल की शुरूआत नीदरलैंड के समाजशास्त्री तथा पूर्व राजनेता मार्सेल वॉन डैम द्वारा सबसे पहले कि गयी थी की गई थी, जिन्होंने पहली बार 15 फरवरी 1967 को इसका इस्तेमाल किया था और उस समय नीदरलैंड में हुए चुनाव में उनका आकलन बिल्कुल सटीक रहा था। भारत में एग्जिट पोल की शुरूआत का श्रेय इंडियन इंस्टीच्यूट ऑफ पब्लिक ओपिनियन के प्रमुख एरिक डी कोस्टा को दिया जाता है, जिन्हें चुनाव के दौरान इस विधा द्वारा जनता के मिजाज को परखने वाला पहला व्यक्ति माना जाता है। चुनाव के दौरान इस प्रकार के सर्वे के माध्यम से जनता के रूख को जानने का काम सबसे पहले एरिक डी कोस्टा ने ही किया था।

असल सवाल ये है कि चुनाव परिणामों को लेकर हमारा उतावलापन आखिर हमें कहाँ ले जा रहा है ? क्या इस तकनीक से हमारा लोकतंत्र मजबूत हो रहा है या उसमें विकृतियां पैदा हो रहीं हैं. क्या ये एक्जिट पोल हमारे मतदाता के मान-सम्मान के खिलाफ नहीं हैं ? आखिर इन सबकी जरूरत क्यों है ? क्यों हम इस एक्जिट पोल पर अंधाधुंध पैसा बहाते हैं ? मतदाताओं का फैसला तो फिलहाल मशीनों में कैद है. वो तो इन एक्जिट पोल्स से बदलने वाला नहीं है. दुर्भाग्य की बात ये है कि हमारे यहां इस जुआरी प्रवृत्ति को माननीय अदालतों का भी समर्थन प्राप्त है. केंद्रीय चुनाव आयोग ने जब इस तरह के एक्जिट पोल्स पर पाबन्दी लगायी थी तब माननीय न्यायालय ने ही इस पाबंदी को अवैध बताकर हटा दिया था.

लोकतंत्र में निर्णायक मतदाता को होना चाहिए, होता भी है किन्तु अब निर्णायक टीवी चैनल्स और अखबार वाले दिखाई देते हैं. कभी -कभी लगता है कि सरकार बेकार में चुनावों पर इतना ख़र्च करती है, बेहतर है कि वो मतदान के बजाय टीवी चैनलों और अखबारों से सर्वे कराकर ही नई सरकारें बना दिया करे. एक्जिट पोल्स और सर्वेक्षणों को विधिक स्वरूप देने कि जरूरत शायद बिलकुल नहीं है. ये एक तरह का गोरखधंधा है. इसे पाबंद किया जाना चाहिए. चुनाव बाद यदि ये एक्जिट ओपल गलत निकलते हैं तो इन्हें करने और दिखने वालों के खिलाफ जनता को भ्रमित करने, उसे मानसिक अवसाद पहुँचाने का आरोपी बनाकर अभियोग चलना चाहिए. हमारे यहां कहावत है कि ‘मुंह दूर कि थापड़ ‘ यानि जब मतदान हो ही गया है तो नतीजा आने में कितना समय लगना है. इन्तजार कीजिये न कि एक्जिट पोल दिखाइए. हजामत बनी है तो कितने बाल कटे, सामने आना ही है.

@ राकेश अचल

 

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