छत्तीसगढ़ के दक्षिणी भाग में स्थित बस्तर जिला अपनी ऐतिहासिक, भौगोलिक और सांस्कृतिक परिस्थितियों के कारण बहुत ही खास है। बस्तर अपनी आदिवासी जनसंख्या तथा उनके सामाजिक, सांस्कृतिक व्यवहार के लिए जाना जाता है। आज भी बस्तर में हल्बा, भतरा, मुरिया, माडि़या, धुरवा, दोरला आदि जनजातियां रहती हैं जो वास्तव में वनवासी संस्कृति का पोषण करती हैं। यूं तो यह क्षेत्र अपनी आदिवासी सांस्कृतिक आयोजनों के लिए प्रसिद्ध है लेकिन इसकी एक महत्वपूर्ण पहचान यहां मनाया जाने वाला दशहरा है। बस्तर क्षेत्र में दशहरा लगभग 75 दिनों तक मनाया जाता है जिसमें आखिरी के पंद्रह दिन अत्यंत विशिष्ट होते हैं। महत्वपूर्ण बात यह है कि यहां का दशहरा राम-रावण कथा से संबंधित न होकर मातृशक्ति से जुड़ा हुआ है।
बस्तर का दशहरा
ये इसलिए भी खास है क्योंकि काकतीय राज परिवार की इष्ट देवी तथा बस्तर क्षेत्र के लोक जीवन की अधिष्ठात्री दंतेश्र्वरी देवी के प्रति श्रद्धा भक्ति की सामूहिक अभिव्यक्ति इसी पर्व के माध्यम से की जाती है। 15 शताब्दी में बस्तर में काकतीय का शासन था। सच तो यह है कि बस्तर का दशहरा समग्र रूप से पौराणिक, ऐतिहासिक, स्थानीय वनवासी परंपराओं, तंत्र साधना इत्यादि का मिश्रण नजर आता है।
सहभागिता राजा-प्रजा की
मान्यता है कि पंद्रहवीं शताब्दी में बस्तर के काकतीय नरेश पुरूषोत्तम देव ने एक बार बस्तर से जगन्नाथपुरी तक पैदल यात्रा की। इस यात्रा में उनके साथ स्थानीय आदिवासी भी गए। जगन्नाथपुरी मंदिर पहुंचने पर राजा पुरुषोत्तम देव ने मंदिर को एक लाख स्वर्ण मुद्राएं एवं आभूषण भेंट किए। मंदिर में राजा को ‘रथपति’ घोषित कर दिया गया। रथपति की उपाधि से अलंकृत होकर राजा ने यात्रा से वापसी के पश्चात बस्तर में दशहरे के दौरान रथ चलाने की प्रथा शुरू की। तब से अब तक लगभग छ: सदियां गुजर चुकी हैं किंतु बस्तर का दशहरा उसी उत्साह, ऊर्जा, धार्मिकता और मां दंतेश्र्वरी देवी के प्रति श्रद्धा भाव से मनाया जाता है। स्थानीय निवासियों की सहभागिता के साथ-साथ यहां के राजघरानों की उपस्थिति भी इस आयोजन को और आभामय बनाती है। बस्तर के दशहरे का मुख्य आकर्षण रथ यात्रा होती है।
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