वैसे उन्होंने सरगुजा संभाग में रात बिताकर धरातल पर सरकार के कामकाज के आंकलन का संदेश पहले ही दे दिया था। अगला पड़ाव बस्तर संभाग है। भूपेश सरकार के दो साल पूरे हो गए हैं। मुख्यमंत्री का राजधानी से बाहर जाकर सबके लिए सहज और सुलभ होने का मतलब आने वाले वर्षों में अपनी सरकार को नई दिशा देना माना जा रहा है। वहीँ अपनी खोई जमीन पाने के लिए भाजपा जिस तरह ब्लाक स्तर पर उतरने की रणनीति बना रही है, ऐसे में मुख्यमंत्री के सब के लिए सहज-सुलभ को भाजपा की रणनीति का काट भी कहा जा रहा है। पांच साल तक छत्तीसगढ़ प्रदेश कांग्रेस के अध्यक्ष रहकर पार्टी को सत्ता का लड्डू खिलाने वाले भूपेश बघेल का जिलों में ठहरना नई परंपरा और नए लक्ष्य को प्रतिबिंबित कर रहा है।
कलेक्टर साहब का “शिष्टाचार” चर्चा में
आदिवासी इलाके के एक जिले में पदस्थ कलेक्टर साहब “जमाने के अनुरूप शिष्टाचार” को लेकर आजकल बड़े चर्चे में हैं। साहब का जिला भले ही आदिवासी इलाके में आता हैं, पर बोलबाला धनपतियों का है। वह भी ऐसे, जो पूरे प्रदेश में छाए हैं। कहते हैं यहां के लोगों के वैभव को देखकर साहब ने लाख से नीचे बात नहीं करने की ठानी थी, पर साहब को किसी ने तवज्जो नहीं दिया। चर्चा है साहब लाख से सीधे पांच-दस हजार पर आ गए। वैसे भी साहब पर दस हजारी होने का दाग पहले भी लग चुका है। भाजपा सरकार के जमाने में जब साहब आदिवासी इलाके के एक सब डिवीजन में थे, तब उनके खिलाफ लोगों ने खूब हंगामा किया था, उन पर राज्य आर्थिक अपराध व्यूरो की निगाह टिक गई थी,लेकिन उस वक़्त एक सीनियर आईएएस अफसर ने उन्हें बेदाग बचा लिया था । सीनियर अफसर सरकार में ताकतवर होने के साथ राज्य में आईएएस एसोसिएशन के सचिव भी थे।
अफसरों का भिलाई प्रेम
कहते हैं कई आईएएस और आईपीएस अफसरों का भिलाई से मोह नहीं छूट पा रहा है। कई अफसर ऐसे भी हैं, जिनका दफ्तर नया रायपुर में है, फिर भी भिलाई से आना-जाना नहीं छोड़कर सरकारी खर्चे का मीटर रीडिंग बढ़ा रहे हैं। कहा तो यह जा रहा है कि इस्पात नगरी से आने-जाने के फेर में ये अफसर बाबूओं की तरह जल्दी दफ्तर छोड़ने के चक्कर में रहते हैं, कहते हैं कुछ तो आने में ही लेट हो जाते हैं। भिलाई और रायपुर के फेरे में उनका कीमती समय चार पहिए में ही गुजर जाता है । चर्चा है कि राज्य के बड़े अफसरों के भिलाई प्रेम से केंद्र सरकार के एक अहम दफ्तर के मुखिया भी भिलाई से मोहित हो गए। कहते हैं कैम्पस का बंगला छोड़कर भिलाई में बसेरा बना लिया है। अब देखते हैं सरकार अफसरों को कब तक यह छूट देती रहती है।
दो महापौर नए रास्ते पर
महापौर शहर का प्रथम नागरिक होता है और शहर की चाबी उसी के पास होती है, पर इन दिनों प्रदेश के दो महापौर के दूसरे शहर में जाकर अपने खास लोगों के जरिए धंधे में किस्मत चमकाने की खूब चर्चा हो रही है। कहते हैं अब तक जो धंधा पंच -सरपंचों की जेबें भरता था, उस धंधे में महापौर के खास लोगों के कूद जाने से खेल ही निराले हो गए हैं। कहते हैं प्रशासन में बैठे लोगों ने खुद ही अपने हाथ बांधकर जुबान पर पट्टी बांध ली है या फिर जेबें भरने में लग गए हैं। कहा जाता है सहयोगियों के जरिए महापौरों का धंधा राज्य के उत्तरी हिस्से में कुलांचे भर रहा है। धंधा भी ऐसा, “हींग लगे, न फिटकरी और रंग चोखा”।
एक बड़े हिंदी अख़बार के बिकने की हवा
कोरोनाकाल ने कई उद्योग और व्यापार की कमर तोड़ दी या फिर रीढ़ की हड्डी को झुका दिया। इस दुष्प्रभाव से मीडिया इंडस्ट्री भी अछूता नहीं रहा। कुछ अख़बारों ने भारी संख्या में कर्मचारियों की छंटनी कर दी या फिर खर्चे काम करने के लिए कुछ दफ्तरों को बंद कर दिए। राजस्थान, मध्यप्रदेश, छत्तीसगढ़ समेत देश के नौ राज्यों में फैले कोरोना संकट के मारे ऐसे ही एक हिंदी अख़बार को मुंबई की एक बड़ी कंपनी द्वारा खरीद लिए जाने की खबर है। फार्मास्युटिकल्स, फाइनेंशियल सर्विसेज और रियल इस्टेट से जुडी इस कंपनी का संबंध बड़े समूह से और जड़ें राजस्थान से जुड़ा होना बताया जा रहा है। कहते हैं इस कंपनी के सहारे से अख़बार को आक्सीजन मिलनी शुरू हो गई है। कोरोनाकाल में इस समाचार पत्र के प्रबंधकों ने अपनी माली हालात सुधारने के लिए कर्मचारियों की छंटनी के अलावा अपने कुछ दफ्तरों का साइज छोटा कर दिया था ।
अब निगम-मंडल भूल गए कांग्रेसी
कहते हैं निगम-मंडलों में पद की चाहत रखने वाले कांग्रेस के नेता और कार्यकर्त्ता अब अपनी इच्छा को “स्वप्न” की तरह भूल जाना चाहते हैं। कांग्रेस ने निगम-मंडलों में पद चाहने वालों से आवेदन बुलवाए थे। एक छोटी और एक बड़ी लिस्ट जारी भी की , लेकिन तीसरी लिस्ट का इंतजार इतना लंबा हो गया कि पार्टी के लोग उस पर अब चर्चा ही नहीं करना और सपने की तरह भूल जाना चाहते हैं। कहते हैं तीसरी लिस्ट के बाद सिर फुटव्वल की आशंका है , इसलिए बड़े नेता उस पर कुंडली मारकर बैठना ही भला समझ रहे हैं। चर्चा है कि ब्लाक कांग्रेस अध्यक्षों की नियुक्ति के बाद जिस तरह बवाल मच गया है और पार्टी के नेता और कार्यकर्त्ता जिस तरह विधायकों के साथ हुज्जत करने लगे हैं , उसको देखकर पार्टी के बड़े नेताओं ने “कुछ करो से भला, कुछ न करो” की रणनीति अपना ली है।
भाजपा के झगडे में फंसा पद
कहते हैं न रस्सी जल गई, पर बल नहीं गया, ऐसा ही कुछ रायपुर नगर निगम के नेता प्रतिपक्ष चयन में भाजपा के अंदर देखने को मिल रहा है। भाजपा भले सत्ता में नहीं है और 2019 में किसी भी नगर निगम में अपना मेयर नहीं बना सकी, पर साल भर बाद भी रायपुर नगर निगम के लिए नेता प्रतिपक्ष फाइनल न कर पाने को सिर चढ़कर बोलती गुटबाजी का उदाहरण बताया जा रहा है। कहते हैं संगठन ने सूर्यकांत राठौर को नेता प्रतिपक्ष की जिम्मेदारी देना तय कर लिया था, लेकिन एक पूर्व मंत्री के विरोध में खड़े होने से मामला लटक गया है। चर्चा है नेता प्रतिपक्ष के लिए मीनल चौबे भी सशक्त दावेदार हैं। अब उम्मीद की जा रही है कि अगले हफ्ते तक नेता प्रतिपक्ष के नाम पर मुहर लग जाएगी। देखते हैं सूर्यकांत राठौर की लाटरी लगती है या फिर मीनल चौबे नेता प्रतिपक्ष बनती हैं। फ़िलहाल तो रायपुर नगर निगम बिना नेता प्रतिपक्ष के ही चल रहा है।
(लेखक, पत्रिका समवेत सृजन के प्रबंध संपादक और स्वतंत्र पत्रकार हैं।)
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