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चिंतन में डूबी कांग्रेस पर नजर 

देश की सबसे  पुरानी और बड़ी राजनीतिक पार्टी कांग्रेस इन दिनों उदयपुर में चिंतन में डूबी है.देश में यत्र-तत्र डूबने के बाद पार्टी का चिंतन-मनन करना जरूरी भी है और मजबूरी भी, क्योंकि देश की उम्मीदें आज भी विपक्ष के रूप में कांग्रेस पर  टिकी हुईं हैं. कांग्रेस विहीन भारत बनाने का संकल्प लेकर राजनीति कर रही सत्तारूढ़ भाजपा की नजरें भी कांग्रेस के चिंतन शिविर पर हैं.

कांग्रेस के लिए इक्कीसवीं सदी का मौजूदा दशक पराभव का दशक है. आप इसे अपनी सुविधा से नाकामियों का दशक भी कह सकते हैं. कांग्रेस संसद से लेकर सड़क तक लगातार तनखीन होती जा रही है फिर भी विसंगति ये है कि पूरा देश कांग्रेस से ही भाजपा के खिलाफ एक मजबूत विकल्प की उम्मीद करता है. कांग्रेस का मौजूदा नेतृत्व आज सवालों के घेरे में है. उसके खिलाफ पार्टी के भीतर असंतोष है ,इसलिए कांग्रेस में भीतर और बाहर से बदलाव की सख्त जरूरत है.

कांग्रेस को अतीत में कांग्रेस बनाने वाली बुजुर्ग हो रहीं श्रीमती सोनिया गाँधी को चिंतन शिविर में सुनकर कम से कम इतना संतोष तो लोग कर ही सकते हैं कि उन्हें कांग्रेस की मौजूदा स्थिति के साथ ही देश की आकांक्षाओं का अनुमान है. उन्होंने बहुत ही संजीदा तरिके से वे तमाम मुद्दे गिनाये जो कांग्रेस के कायाकल्प के बिना नहीं हल किये जा सकते. श्रीमती सोनिया गांधी आज भी कांग्रेस की ऐसी सर्वमान्य नेता हैं जिनके  खिलाफ बगावत करने का साहस पार्टी के भीतर बने तमाम नए गुट भी नहीं कर पा रहे. सोनिया गांधी का भाषण सुनते समय आपको देश के प्रधानमंत्री जी के सम्भाषण की शैली को भी याद रखना चाहिए. सोनिया ने मसखरापन दिखाया और न आंसू बहाये, न ताली पीटी और न उत्तेजित हुईं, बल्कि पहले की तरह ही उन्होंने अपनी बात बिंदुवार देश के सामने रखी.

कांग्रेस के तीन दिवसीय चिनत शिविर के साथ कांग्रेस एकदम महाबली हो जाएगी ऐसा सोचना, समझना और कहना मजाक होगा क्योंकि कांग्रेस को अपना खोया हुआ इकबाल हासिल करने के लिए मीलों लंबा सफर तय करना है. कांग्रेस राजनीतिक प्रतिस्पर्द्धा में बहुत पिछड़ चुकी है, बिखर चुकी है, बावजूद उसका वजूद बना हुआ है. कांग्रेस से ही उम्मीद की जा रही है कि वो आगे बढ़कर भाजपा के अश्वमेघ को रोके, लगाम थामें. अब सवाल ये है कि जयपुर के चिंतन शिविर के बाद क्या सचमुच कांग्रेस बदल पाएगी ? क्या सचमुच कांग्रेस का निर्जीव संगठन भाजपा के हर तरह से शक्ति सम्पन्न संगठन का मुकाबला करने लायक बन पायेगा ?

सब जानते हैं कि कांग्रेस ने इस देश के नवनिर्माण में एक ऐतिहासिक भूमिका निभाई है, इसकी वजह ये है कि कांग्रेस को देश पर सबसे ज्यादा लबे ससमय तक शासन करने का अवसर भी मिला है. कांग्रेस की जगह यदि किसी और पार्टी को ये मौक़ा मिला होता तो मुमकिन है कि परिदृश्य कुछ और होता. मुमकिन है कि फिर देश में भाखड़ा नांगल बाँध की जगह मंदिर ही मंदिर खड़े दिखाई देते, लेकिन संयोग से ऐसा नहीं हुआ.

कांग्रेस की कुंडली में शायद शनि का ही प्रकोप है कि उसके पास आज न आक्रामकता है और न देश को अँधेरी सुरंग में जाने से रोकने की ताकत. बावजूद कांग्रेस लगातार लड़ रही है. मुसलसल पराजय से भी उसकी लड़ाई रुकी नहीं है इस बात से कोई नाइत्तफाकी नहीं हो सकती कि कांग्रेस के पास सत्ता का ज्यादा और विपक्ष का कम अनुभव है, लेकिन इतना कम भी नहीं है कि वो आज की तारीख में सत्तापक्ष का मुकाबला कर ही न पाए. कांग्रेस के अलावा देश में देश के मौजूदा नेतृत्व को चुनौती देने वाले दूसरे दलों के नेताओं की कमी नहीं है किन्तु किसी के पास भी कांग्रेस पार्टी जैसा विस्तृत अतीत और विश्वसनीयता नहीं है. अधिकाँश दशक, दो या तीन दशक पहले जन्मी राजनीतिक पार्टियां हैं दुर्भाग्य से एक भी पार्टी का राष्ट्रीय स्तर पर विस्तार भी नहीं हो पाया है भले ही उनके नाम के आगे नेशनल जुड़ा हो. कांग्रेस के अलावा जितने भी राजनीतिक दल हैं उनमें से अधिकाँश क्षेत्रीय राजनीतिक दल हैं. कोई हिंदी पट्टी का है तो कोई किसी एक ख़ास सूबे का.

कांग्रेस के पास तमाम खामियों के बाद भी राष्ट्रीय राजनीतिक दल की पहचान है. अतीत है, भविष्य है और वर्तमान है. आम आदमी की तरह मै भी कांग्रेस से निराश हूँ हालाँकि मैंने आम आदमी की ही तरह कांग्रेस की सदस्य्ता कभी हासिल नहीं की, विकल्प के रूप में जैसे कभी भाजपा मेरी पसंद हुआ करती थी, वैसे ही आज कांग्रेस मेरी पसंद है. वामपंथी राजनीतिक दल भी मेरी पसंद रहे हैं लेकिन एक राजनीतिक दल के रूप में उनका अवसान हो चुका है. एक जमाने में वामपंथी  दल भरोसेमंद ‘स्पीड गवर्नर’ हुआ करते थे, आज उनकी हैसियत किसी के पास नहीं है. अधिकाँश क्षेत्रीय दल सत्तारूढ़ भाजपा से अपने हिस्से का एक पोंड गोश्त लेने की होड़ में हैं.

कहते हैं कि ‘मरा हुआ हाथी भी सवा लाख’ का होता है. इस लिहाज से कांग्रेस की कीमत आज भी बरकरार है. कांग्रेस राजनीति का मरा हुया हाथी ही सही किन्तु उसमें प्राण फूंके जा सकते हैं. कांग्रेस में प्राण फूंकने के लिए किसी फेंकू नेतृत्व की नहीं बल्कि एक संजीदा और आक्रामक नेतृत्व की जरूरत है. श्रीमती सोनिया गाँधी अब ये काम कर नहीं सकतीं. वे पार्टी के लिए एक बेहतर परामर्शदाता हो सकतीं है, उनकी  बेटी प्रियंका वाड्रा मेहनती है लेकिन उत्तर प्रदेश की पराजय ने उन्हें भी निराश किया है. बचे राहुल गांधी, तो अब कांग्रेस को उन्हीं पर दांव लगना पडेगा. वे कांग्रेस के संस्कारों से परिपूर्ण हैं, परिश्रमी हैं और आज के भाजपाई नेतृत्व को चुनौती देने के लिए सक्षम भी हैं. तीसरा कोई नेता कांग्रेस के पास फिलहाल दूर-दूर तक नजर नहीं आता. कोई सामने आ जाये तो बहुत अच्छा है.

दुनिया के सबसे मजबूत लोकतंत्र भारत को लगातार असहिष्णुता, संकीर्णता और मजहबी बनाने कि और धकेला जा रहा है. इतिहास खंगाला जा रहा है और भूगोल बदलने के दावे किये जा रहे हैं. अर्थशास्त्र की फ़िक्र किसी को है नहीं. सबके सब सातवें आसमान पर हैं. उन्हें जमीन पर लाना आसान काम नहीं है किन्तु असम्भव भी नहीं है. उदयपुर से चिंतन-मनन के बाद निकली कांग्रेस भविष्य में सामने खड़ी चुनौतियों का मुकाबला कितना और कैसे कर पाएगी, इसी पर सभी की नजर है.

नजर रखिये कांग्रेस पर क्योंकि आज के नेतृत्व में जितनी भी गड़बड़ियां है वे सब आयीं कांग्रेस से ही हैं. इसीलिए कांग्रेस के पास ही इन्हें सुधरने का तरीका भी हो सकता है. अधिनायकवाद, भ्रष्टाचार, तुष्टिकरण के बारे में भाजपा को क्या पता था ? वो तो जुम्मा-जुम्मा 42 साल पहले जन्मी है. उसे ये तमाम रास्ते कांग्रेस ने ही दिखाए हैं, आप कह सकते हैं कि कांग्रेस को उसके किये की सजा मिल चुकी है. अब कांग्रेस के श्राप विमोचन का समय है. कांग्रेस चाहे तो फिर से नया इतिहास लिख सकती है जैसा कि प्रयास भाजपा कर रही है. @ राकेश अचल

 

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