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विखंडित कश्मीर में दोबारा पलायन

यदि आप कभी कश्मीर गए हों तो आप वहां की प्राकृतिक खूबसूरती पर लट्टू हो सकते हैं, लेकिन यदि आप कश्मीर की कानून और वतवस्था को देखेंगे तो आपका दिल टूट जाएगा. इस विखंडित राज्य में एक बार फिर हिंसा और उसकी वजह से अल्पसंख्यक हिन्दुओं के पलायन का नया दौर शुरू हो गया है. याद रखिये की देश का ‘मुकुटमणि’ माने जाने वाले जम्मू कश्मीर को इसी समस्या से निजात दिलाने के लिए तोड़कर तीन टुकड़े किये गए थे.

जम्मू-कश्मीर तीन दशक से अल्पसंख्यकों के लिए त्रासदी बना हुआ है. पहले 23 साल कांग्रेस समेत दूसरे राजनीतिक दलों को इस दुर्दशा के लिए जिम्मेदार माना जाता था लेकिन अब बीते कुछ साल से यहां केंद्र की सत्ता है. किन्तु हालात बढ़ से बदतर होते जा रहे हैं. जाहिर है की इस सूबे को तोड़ने और यहां से धारा 370 हटाने के कथित ऐतिहासिक और दुस्साहसिक फैसले का कोई लाभ नहीं हुआ, उलटे अब लगने लगा है की कश्मीर एक अंधेरी सुरंग में फंस गया है.

पिछले एक सप्ताह में कश्मीर में करीब 8 लोगों की हत्या कर दी गयी. इस ताजा खून-खराबे से घाटी के अल्पसंख्यकों में इतनी ज्यादा दहशत है की दो दिन में ही डेढ़ सौ से ज्यादा अल्पसंख्यक परिवार कश्मीर छोड़कर जम्मू में तम्बुओं में रह रहे हैं घाटी के हालात 90 के दशक से भी ख़राब होते जा रहे हैं. सिर्फ़ एक हफ़्ते पहले वो लोग घाटी से लौटे हैं जिन्होंने खौफ का नया मंजर खुद अपनी आँखों से देखा है. अब नया सवाल ये है की जब इस विखंडित केंद्र शाषित हिस्से का प्रबंधन एक मजबूत सरकार के हाथों में है तब अचानक ये हिंसा कैसे भड़क उठी ?

जाहिर है की हमारी मजबूत सरकार जम्मू-कश्मीर के विखंडन और यहां से धारा 370 हटाने के अपने फैसले को इसकी वजह नहीं मानेगी. मानना भी नहीं चाहिए, क्योंकि ऐसा करना सरकार की बदनामी की वजह बन जाएगा. सरकार इस ताजा कौन-खराबे के लिए अब नए कारण खोज रही है, जिसे आप बहाना भी कह सकते हैं. ये बहाने बड़े बेतुके हो सकते हैं, की सरकार ने जैसे -जैसे यहां अल्पसंख्यकों को राहत देने की गति बधाई है उसी वजह से दहशतगर्दों ने अपनी गतिविधियां बढ़ा दी हैं.

अतीत के पन्ने उल्टे तो आपको 90 के दशक में जाना पडेगा. उस समय कश्मीरी पंडितों के ख़िलाफ़ बड़े पैमाने पर हिंसा और हत्याएं हुईं तो पंडितों को अपनी जान बचाने के लिए घर छोड़कर अपने परिवारों के साथ वो घाटी से भागना पड़ा था. ये पंडित आज भी देश के अनेक हिस्सों में शरणार्थी ही हैं. बीते सात साल में एक मजबूत केंद्र सरकार के रहते हुए भी उनकी वापसी नहीं हो पायी. हालाँकि इस दौर में बहुत से लोग राजनीति से लेकर दुसरे क्षेत्रों में स्थापित हो गए.

उस दौर में पलायन कर चुके लोगों ने अपने पीछे जो घर और संपत्ति घाटी में छोड़ दी थी, उन पर स्थानीय लोगों ने क़ब्ज़ा कर लिया या फिर उसे औने-पौने दाम में ख़रीद लिया. साल 1997 में राज्य सरकार ने क़ानून बनाकर विपत्ति में अचल संपत्ति बेचने और ख़रीदने के ख़िलाफ़ क़ानून बनाया. लेकिन जानकार कहते हैं कि क़ानून के बावजूद औने-पौने दाम में संपत्ति बिकती रही है. सरकार कहती है की हमने बीते कुछ दिनों में एक हजार से ज्यादा ऐसी सम्पत्तियाँ पंडितों को वापस दिलाई, शायद इसीलिए दहशतगर्द बौखला गए हैं. मुमकिन है की ये बात सही भी हो, पर सवाल ये है की फिर बीते दो साल में सरकार ने यहाँ सुरक्षा को मजबूत क्यों नहीं किया ?

पुराने आंकड़ों पर भरोसा करें तो कश्मीर से पिछले वर्षों में यानि राज्य के बिखंडन से पहले तक कोई 60 हजार अल्पसंख्यकों ने पलायन किया था. राज्य के टुकड़े-टुकड़े होने और धारा 370 हटने के बाद पलायन कर चुके इसमें 44 हज़ार परिवारों ने राज्य के राहत और पुनर्वास आयुक्त के समक्ष अपना पंजीकरण कराया था. इन परिवारों में 40,142 परिवार हिंदू, जबकि 1,730 सिख और 2,684 मुसलमान परिवार शामिल हैं. लेकिन इनमें से एक हजार परिवार भी वापस नहीं लौटे. शेष 20 हजार ने तो पंजीयन करने का साहस भी नहीं जुटाया.

कश्मीरी पंडितों को लगता है कि हाल की घटनाएं ‘बड़ी सुरक्षा चूक’ भी है क्योंकि सुरक्षा एजेंसियों ने 21 सितंबर को ही अलर्ट जारी किया था और बड़े हमले की आशंका जताई थी. बावजूद इसके सरकार एहतियाती इंतजाम नहीं कर सकी. सात अक्टूबर को एक सरकारी स्कूल में घुसकर चरमपंथियों ने पहचान तय करने के बाद स्कूल के टीचर दीपक चंद और प्रिंसिपल सतिंदर कौर की गोली मारकर हत्या कर दी. उससे पहले श्रीनगर के एक मशहूर दवा दुकान के मालिक माखन लाल बिंद्रू की भी सरेआम गोली मारकर ह्त्या कर दी गई.

कश्मीर में रहने वाले हमरे एक मित्र ने जो गर्म कपड़ों का कारोबार करते हैं बताया है कि श्रीनगर के स्कूल में हुई घटना के बाद सरकारी स्कूलों में नियुक्त किए गए सभी कश्मीरी पंडित शिक्षकों के बीच खौफ़ पैदा हो गया है. न सिर्फ़ शिक्षक बल्कि दूसरे अल्पसंख्यक समुदायों में भी दहशत साफ़ देखी जा सकती है. इसलिए घटना के बाद कुछ शिक्षक श्रीनगर के क्षीर भवानी मंदिर में रह रहे हैं, जबकि कुछ को शिविरों में रखा गया है. घाटी के शेख़पुरा में मौजूद कश्मीरी पंडितों का शिविर भी ख़ाली हो चुका है और बड़े पैमाने पर पलायन हो रहा है.

इस आतंकित हिस्से जम्मू और कश्मीर के उप-राज्यपाल मनोज सिन्हा बेहतर प्रशासक साबित नहीं हुए. अल्पसंख्यकों को सिन्हा से ढेरों शिकायतें हैं .लेकिन सिन्हा को हटाया नहीं जा सकता, क्योंकि ऐसा करना भी केंद्र की असफलताओं पर मुहर लगाने जैसा होगा. उपराज्यपाल से नाराज कश्मीरी पंडित संघर्ष समिति अंतरराष्ट्रीय मानवाधिकार आयोग के समक्ष अपनी सुरक्षा का मुद्दा उठाने की तैयारी कर रहे हैं. केंद्र सरकार को स्थानीय राजनेताओं पर भरोसा पहले से नहीं हैं जबकिगुपकर गठबंधन के संयोजक और मार्क्सवादी कम्युनिस्ट पार्टी के नेता युसूफ़ तारीगामी का कहना है, कि ”अनुच्छेद 370 के हटाए जाने के बाद कहा जा रहा था कि इससे जम्मू-कश्मीर में हिंसा की घटनाओं में कमी आएगी. लेकिन जम्मू कश्मीर के प्रशासन के कई ऐसे फ़ैसले हैं, जिनके चलते समुदायों के बीच एक बार फिर से ग़लतफ़हमियां और दूरियां बढ़ने लगीं हैं.”

केंद्र सरकार जम्मू-कश्मीर का विखंडन करने के बाद दिल्ली में अपनी कुर्सी बचने में उलझी हुई है. कहने को केंद्र में भाजपा की सरकार है लेकिन भाजपा के दिया तले अन्धेरा ही अन्धेरा है. केंद्र शासित दिल्ली में आप की सत्ता है. बंगाल भाजपा हार चुकी है. और अब केंद्र को सबसे ज्यादा ताकत देने वाले उत्तर प्रदेश में भाजपा के लिए रोज नयी चुनौतियाँ पेश आ रहीं हैं, ऐसे में केंद्र से कश्मीर के अल्पसंख्यकों की सुरक्षा और उनके पलायन को रोकने की उम्मीद करना केवल भक्तों का काम हो सकता है. आम कश्मीरी की निराशा तो जग-जाहिर है. @ राकेश अचल

 

 

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