(रवि भोई की कलम से)
ऐसा लग रहा है कम से कम उत्तरप्रदेश चुनाव तक तो छत्तीसगढ़ में नेतृत्व परिवर्तन टल गया है। हालांकि टीएस सिंहदेव का खेमा उससे पहले कुछ न कुछ होने की आस लगाए बैठा है। कांग्रेस हाईकमान ने छत्तीसगढ़ के मुख्यमंत्री भूपेश बघेल को उत्तर प्रदेश में आगामी विधानसभा चुनावों के लिए एआईसीसी का वरिष्ठ पर्यवेक्षक नियुक्त किया है। भूपेश बघेल कांग्रेस की राष्ट्रीय महासचिव प्रियंका गांधी के साथ पिछले दिनों प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी के निर्वाचन क्षेत्र वाराणसी में किसान न्याय यात्रा के बहाने उत्तरप्रदेश चुनाव का बिगुल बजा आए हैं। कहते हैं उत्तरप्रदेश चुनाव की रणनीति बनाने में भूपेश बघेल के तीनों सलाहकार राजेश तिवारी, विनोद वर्मा और रुचिर गर्ग लगे हैं और कुछ महीने से वहीँ जमे हैं। राजेश तिवारी पार्टी के राष्ट्रीय सचिव हैं और राष्ट्रीय महासचिव प्रियंका गांधी के साथ अटैच हैं। छत्तीसगढ़ के कई कांग्रेस नेता उत्तरप्रदेश जाकर वहां के नेताओं को बूथ लेवल पर चुनाव मैनेजमेंट का प्रशिक्षण भी दे आए हैं। कांग्रेस हाईकमान ने छत्तीसगढ़ के प्रभारी महासचिव पीएल पुनिया को उत्तरप्रदेश चुनाव प्रचार अभियान समिति का चेयरमैन बना दिया है। कहा जा रहा है कांग्रेस हाईकमान ओबीसी नेता और छत्तीसगढ़ के मुख्यमंत्री के तौर पर भूपेश बघेल के चेहरे का इस्तेमाल उत्तरप्रदेश चुनाव में करना चाहता है। उम्मीद है कि इस बीच राष्ट्रीय अध्यक्ष के चुनाव की प्रक्रिया भी शुरू हो जाएगी। इस कारण माना जा रहा है कि उत्तरप्रदेश चुनाव तक तो भूपेश बघेल की कुर्सी सुरक्षित हो गई है। कहा जा रहा है आगे रणनीति और दबाव क्या बनता है, उस पर फैसला निर्भर करेगा।
बदहाल लोकनिर्माण विभाग
कहा जा रहा है प्रदेश की कई सड़कें ही बदहाल नहीं हैं, बल्कि राज्य में सड़क बनाने और उसका रखरखाव करने वाला विभाग ( लोकनिर्माण विभाग ) ही बदहाल हो चला है। कहते हैं लोक निर्माण विभाग ने सड़क बनाने और मेंटेनेंस के लिए कोरोनाकाल में हजारों करोड़ रुपए के टेंडर किए और ठेकेदारों का चयन किया। चर्चा है कि विभाग ने टेंडर पास कर दिए और ठेकेदारों ने विभाग में चढ़ावा भी चढ़ा दिया है, पर महीनों बाद भी ठेकेदारों को वर्क आर्डर जारी नहीं हुआ है। खबर है कि वित्त विभाग ने हाथ टाइट कर रखे हैं। इस कारण से ऋण लेकर सड़क चकाचक करने के काम को गति नहीं मिल पा रही। कहते हैं कुछ ठेकेदार अब कंपनी या अपने नाम से मंजूर टेंडर को रद्द करने के लिए आवेदन करने की सोच रहे हैं। बताया जाता है तीन महीने तक वर्क आर्डर न मिलने पर ठेकेदार टेंडर रद्द करने के लिए विभाग को आवेदन कर सकता है।
बड़े साहब का दर्द
पुलिस के एक बड़े साहब का दर्द आजकल चर्चा का विषय है। कहते हैं बिलासपुर में नए-नवेले पुलिस अफसरों की करतूत पर मुख्यमंत्री भूपेश बघेल ने तीखे तेवर दिखाते हुए बड़े साहब को लगाम लगाने के लिए कहा तो बड़े साहब का दर्द छलक उठा। कहा जा रहा है कि बड़े साहब ने साफ़-साफ़ कह दिया कि पुलिस अधीक्षकों और दूसरे अफसरों की पोस्टिंग में विभाग के आला अफसरों की राय-मशविरा नहीं ली जाएगी तो फिर उनकी सुनेगा कौन और उनको वे नियंत्रित करेंगे कैसे ? मुख्यमंत्री के सामने बड़े साहब की साफगोई की सब तारीफ़ कर रहे हैं, पर राजधानी समेत पूरे राज्य में बढ़ते नशे और दूसरे अवैध कारोबार चिंता का सबब बना हुआ है। बढ़ती चाकूबाजी और चोरी की घटनाएं भी पुलिस के कामकाज पर सवालिया निशान लगा रहे हैं। अब देखते हैं बड़े अफसर का दर्द कुछ रंग लाता है या पुलिस महकमा अपने ढर्रे पर ही चलता रहता है।
कलेक्टर-एसपी कांफ्रेंस के बाद सर्जरी
कहते हैं कांफ्रेंस के बाद कई जिलों के एसपी और कलेक्टर बदले जाएंगे। कहा जा रहा है कि कवर्धा के कलेक्टर और एसपी पर गाज गिरनी तय है। कवर्धा में झंडा विवाद के चलते सरकार की किरकिरी हुई और भाजपा के हाथ बड़ा मुद्दा लग गया। 2018 के विधानसभा चुनाव में कवर्धा से कांग्रेस के उम्मीदवार मोहम्मद अकबर ने सर्वाधिक मतों से जीत का रिकार्ड बनाया था। खबर है कि कोंडागांव, गरियाबंद और कुछ छोटे जिले के कलेक्टर बदले जा सकते हैं। बिलासपुर एसपी पर भी खतरा मंडराने की बात कही जा रही है। बिलासपुर के अलावा कुछ और एसपी भी हटाए जा सकते हैं।
भाजपा नेता का दर्द या नाटक
कहते हैं भाजपा के एक नेता राष्ट्रीय कार्यकारिणी में शामिल किए जाने से खुश नहीं हैं। प्रदेश से राष्ट्रीय कार्यकारिणी में स्थान को प्रमोशन माना जाता है। यह नेता प्रदेश कार्यकारिणी में कोई बड़े पद में नहीं थे, फिर भी लोगों से कह रहे हैं कि उन्हें तो प्रदेश में रहकर लोगों की सेवा करना था। अपने जुबान के लिए चर्चित नेता का नाम प्रदेश अध्यक्ष के लिए भी चला था। सौदान सिंह के संगठन मंत्री रहते तक नेताजी को खूब भाव मिला। पार्टी के लोग नेताजी के राग को नाटक कह रहे हैं। कोई दर्द मानने के लिए तैयार नहीं है।
सत्ता और संगठन में तकरार
पिछले दिनों प्रदेश कार्यकारिणी की बैठक में जो कुछ हुआ, उसमें लोगों को कुछ भी अस्वभाविक नहीं लग रहा है। राज्य में चल रहे राजनीतिक घटनाक्रम में मुख्यमंत्री भूपेश बघेल और प्रदेश कांग्रेस अध्यक्ष मोहन मरकाम की राह अलग-अलग रही। भूपेश बघेल के पक्ष में विधायक दिल्ली गए तो मरकाम ने उल्ट बयान दिया। मरकाम विधायक होते हुए भी दिल्ली की दौड़ में शामिल नहीं हुए। मरकाम को टीएस सिंहदेव के साथ माना गया। बिलासपुर विधायक शैलेश पांडे और कांग्रेस पदाधिकारियों के विवाद में भी मरकाम का सुर भूपेश समर्थकों के पक्ष में नहीं रहा। राजनीतिक उठापटक के बीच मुख्यमंत्री ने पीसीसी दफ्तर में प्रेस कांफ्रेंस ली, तब भी मरकाम नजर नहीं आए , फिर प्रदेश संगठन से मुख्यमंत्री के बहुत करीबी लोग बाहर भी हो गए। इस विवाद में बिलासपुर के कांग्रेस नेता जरूर पिस गए। लेकिन लोगों का मानना है कि संगठन की बैठक में मुख्यमंत्री से सीधा सवाल पूछना पार्टी के लिए शुभ संकेत नहीं है।
पांव पसारते गांजा तस्कर
कहा जा रहा है छत्तीसगढ़ में गांजा तस्कर पूरे राज्य में सक्रिय हो गए हैं और ताकतवर भी। कहते हैं पुलिस की निष्क्रियता और लालच के कारण तस्करों के हौसले बुलंद हो रहे हैं। पत्थलगांव की घटना इसका नमूना है। अब तक ओडिशा से गांजा महासमुंद जिले की सीमा से आता रहा है। कई बार पुलिस ने पकड़ा भी है , लेकिन बड़ी कार्रवाई कभी नहीं हुई। आरोपी हमेशा छूटते रहे हैं। इससे इनका साहस बढ़ता गया। ओडिशा से महासमुंद जिले का रास्ता छोड़कर गांजा तस्कर जशपुर के रास्ते अंबिकापुर और फिर वहां से उत्तरप्रदेश और दूसरे राज्यों में जाने लगे हैं। पत्थलगांव की घटना से कई सवाल तो खड़े हो रहे हैं , यह राजनीतिक मुद्दा भी बन गया है। भाजपा इस घटना को लखीमपुर-खीरी पार्ट टू बता रही है और ठीकरा सरकार और पुलिस पर फोड़ रही है। कहा जा रहा है सरकार ने मृतक के परिजन को 50 लाख मुआवजा का ऐलान कर थानेदार और सब इंस्पेक्टर पर तो कार्रवाई कर दी है। अब भाजपा के तेवर को ठंडा करने के लिए जशपुर के एसपी पर गाज गिरने की संभावना व्यक्त की जा रही है।
क्या पुनिया के निर्देश पर अमल होगा ?
पीसीसी की बैठक में राष्ट्रीय महासचिव पीएल पुनिया ने प्रभारी मंत्रियों को जिले में 15 दिन दौरा करने और कार्यकर्ताओं की समस्याएं सुनने के साथ सत्ता और संगठन में तालमेल बनाने को कहा है। रायपुर के प्रभारी मंत्री के तौर पर रविंद्र चौबे ने पीसीसी में एक दिन बैठकर पुनिया के सुझाव पर अमल कर दिया है , लेकिन कुछ मंत्री ऐसे हैं जो अपने बंगले से नहीं निकलते। आमजनता और कार्यकर्ताओं से मिलना तो दूर बंगले का गेट ही बंद रखते हैं। कुछ अपने विधानसभा क्षेत्र तक ही सीमित रहते हैं। पहले भी सत्ता-संगठन में तालमेल की कवायद हुई थी, लेकिन समय के साथ वह बंद हो गई। अब देखते हैं यह प्रयोग कितने दिन चलता है ?
(लेखक, पत्रिका समवेत सृजन के प्रबंध संपादक और स्वतंत्र पत्रकार हैं।)
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