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आखिर ‘मध्यस्थता’ की वकालत क्यों ?

सर्वोच्च न्यायालय के मुख्य न्यायाधीश एनवी रमना ने कहा कि अंतिम समय में कोर्ट का सहारा लेना चाहिए।  हैदराबाद में  मध्यस्थता केंद्र के उद्घाटन समारोह को संबोधित करते हुए मुख्य न्यायाधीश एनवी रमना कहा ने कहा कि कोर्ट जाने से पहले मध्यस्थता के माध्यम से विवादों को सुलझाने का प्रयास करना चाहिए। आखिर मुख्य न्यायाधीश को ये बात क्यों कहना पड़ी ? क्या उनका इशारा अदालतों पर बढ़ते काम बाढ़ की और है या वे देश की न्याययिक व्यवस्था की नाकामी से हताश हैं।

देश में राजनीतिक जुमलेबाजी के बीच अदालतों पर काम बाढ़ का मुद्दा खिन विलीन हो गया है । जस्टिस रामना ने ये बात उस समय कही है जब देश की विभिन्न न्यायालयों में लंबित मामलों की संख्या चार करोड़ हो चुकी हैं। पिछले 16 महीने से कोर्टों में सिर्फ अत्यावश्यक  मामले सुने जा रहे हैं। आशंका जताई जा रही है कि ऐसे ही चलता रहा तो जल्दी ही लंबित मामलों का आंकड़ा पांच करोड़ को छू लेगा। जिस गति से न्यायालयों में प्रकरणों का निबटारा हो रहा है उस गति से जीरो पेंडेसी तक पहुंचने में साढ़े तीन सौ साल से ज्यादा का वक्त लग जाएगा।

लगातार बढ़ती आबादी और लगातार न्यायाधीशों के रिक्त पदों की संख्या अदालतों पर काम बाढ़ की असली वजह है, ऐसे में मध्यस्था ही एक मात्र फौरी उपचार हो सकता है। मध्यस्थता यानि मीडिएशन कोई नयी अवधारणा नहीं है । महात्मा गौतम बुद्ध ने मध्यमार्ग से दुनिया को अवगत कराया था और आज दुनिया के तमाम विकसित राष्ट्रों में मध्यस्थता को कानूनी स्वरूप देकर इस्तेमाल किया जा रहा है ।  भारत में भी मध्यस्थता का इस्तेमाल बीते डेढ़ दशक से हो रहा है ।  सर्व्वोच्च न्यायालय के तत्कालीन मुख्य न्यायाधीश मार्कण्डेय काटजू ने ‘मध्यस्थता’ को सबसे पहले महत्व दिया और उनके प्रयास से ही देश मद्रास, दिल्ली, इलाहबाद में सबसे पहले मध्यस्थता केंद्रों की स्थापना की गयी।

उच्च न्यायालयों में बड़ी संख्या में रिक्त पदों को भरना एक मुश्किल चुनौती हैं। इन पदों का भरने के लिए तेजी से कदम बढ़ाए गए हैं लेकिन  इन पदों को तेजी से तभी भरा जा सकता है जब की सरकार भी बराबरी से कदमताल करे ।सबको पता है कि भारत का न्यायिक तंत्र कई मुश्किल चुनौतियों का सामना कर रहा है। इनमें बुनियादी ढांचे, प्रशासनिक स्टाफ की कमी, जजों के बड़ी संख्या में रिक्त पद जैसी समस्याएं शामिल हैं। इससे निबटने के लिए मध्यस्थता के जरिये ही आम आदमी के साथ ही अदालतों को राहत दी जा सकती है।

मध्यस्थता विवादों को निबटने का एक सस्ता और सुरक्षित रास्ता है ।  इसमें पक्षकारों की सहमति अनिवार्य है ।  मध्यस्थता की सारी कार्रवाई गोपनीय होती है ।  कार्रवाई के दौरान किसी भी पक्ष को पीछे हटने की आजादी है, मध्यस्थता में निर्णय नहीं समझौता होता है जिससे विवाद हमेशा के लिए समाप्त हो जाता है जबकि मुकदमेबाजी पीढ़ी दर पीढ़ी  चलती है। मध्यस्थता लोकअदालत नहीं है ।  लोक अदालत में मामलों का त्वरित निराकरण होता है जबकि मध्यस्थता में समझौता। यानि मध्यस्थता में कोई हारता नहीं है बल्कि दोनों पक्ष जीतते हैं, उनके संबंध मधुर बने रहते हैं, फिजूल खर्ची पर रोक लगती है।

चौंकाने वाली बात ये है कि आजादी के बाद पहली बार किसी एक साल में सबसे ज्यादा लंबित मामलों में बढ़ोतरी 2020-21 में हुई है। लंबित मामलों की संख्या में सर्वोच्च न्यायालय में 10.35 प्रतिशत, देश के विभिन्न् उच्च न्यायालयों में 20.4 प्रतिशत और जिला न्यायालयों में 18.4 प्रतिशत की बढ़ोतरी पिछले एक साल में हुई है। इसके पहले हमेशा यह 4 से 6 प्रतिशत के बीच रहती थी लेकिन महामारी की वजह से न्यायालयों में नियमित कामकाज नहीं हुआ। इसके चलते प्रकरणों का निराकरण नहीं हुआ और लंबित मामलों की संख्या बढ़ गई। 8 मई 2021 तक देश की अदालतों में कुल 3,84,05,718 यानी करीब चार करोड़ मुकदमे लंबित हैं। इस स्थिति का मुकाबला मध्यस्थता से ही किया जा सकता है।

मध्यस्थता हमारे समाज और संस्कृति का हिस्सा रही है। गौतम बुद्ध से पहले ‘महाभारत में भी मध्यस्थता का उल्लेख किया गया है ।  महाभारत में भगवान कृष्ण ने पांडवों और कौरवों के बीच मध्यस्थता का प्रयास किया था। मुख्य न्यायाधीश रमना कहते हैं कि ने  जहां तक संभव हो, महिलाओं को विवादों को सुलझाने के लिए मध्यस्थता करनी चाहिए। उन्होंने कहा कि हैदराबाद अंतरराष्ट्रीय मध्यस्थता केंद्र की स्थापना के लिए सही जगह है। देश में सर्वाधिक विवादास्पद अयोध्या-बाबरी विवाद को भी मध्यस्थता के जरिये निबटाने की कोशिश की गयी थी। मध्यस्थता से देश के अकेले लखनऊ जिले में एक दशक में एक लाख मामले सुलझाए गए।

मुख्यन्यायाधीश का सुझाव गंभीरता से लिया जाना चाहिए ,राज्य सरकारों की इस काम में महत्वपूर्ण भूमिका हो सकती है। सरकार और कर्मचायरियों तथा जनता के बीच असंख्य मुकदमे ऐसे हैं जो मध्यस्थत्ता से चुटकियों में सुलझाए जा सकते हैं। सिस्टम में मामूली सुधारकर भी विवादों की संख्या को कम किया जा सकता है। अभिभाषकों को भी मध्यस्थता के उपकरण का ज्यादा से ज्यादा इस्तेमाल करना होगा तभी अदालतें कामबाध के बोझ से बचाई जा सकेंग।

सर्वोच्च न्यायालय के मुख्य न्यायाधीश एनवी रमना ने कहा कि अंतिम समय में कोर्ट का सहारा लेना चाहिए।  हैदराबाद में  मध्यस्थता केंद्र के उद्घाटन समारोह को संबोधित करते हुए मुख्य न्यायाधीश एनवी रमना कहा ने कहा कि कोर्ट जाने से पहले मध्यस्थता के माध्यम से विवादों को सुलझाने का प्रयास करना चाहिए। आखिर मुख्य न्यायाधीश को ये बात क्यों कहना पड़ी ? क्या उनका इशारा अदालतों पर बढ़ते काम बाढ़ की और है या वे देश की न्याययिक व्यवस्था की नाकामी से हताश हैं।

देश में राजनीतिक जुमलेबाजी के बीच अदालतों पर काम बाढ़ का मुद्दा खिन विलीन हो गया है ।  जस्टिस रामना ने ये बात उस समय कही है जब देश की विभिन्न न्यायालयों में लंबित मामलों की संख्या चार करोड़ हो चुकी हैं। पिछले 16 महीने से कोर्टों में सिर्फ अत्यावश्यक  मामले सुने जा रहे हैं। आशंका जताई जा रही है कि ऐसे ही चलता रहा तो जल्दी ही लंबित मामलों का आंकड़ा पांच करोड़ को छू लेगा। जिस गति से न्यायालयों में प्रकरणों का निबटारा हो रहा है उस गति से जीरो पेंडेसी तक पहुंचने में साढ़े तीन सौ साल से ज्यादा का वक्त लग जाएगा।

लगातार बढ़ती आबादी और लगातार न्यायाधीशों के रिक्त पदों की संख्या अदालतों पर काम बाढ़ की असली वजह है,ऐसे में मध्यस्था ही एक मात्र फौरी उपचार हो सकता है। मध्यस्थता यानि मीडिएशन कोई नयी अवधारणा नहीं है ।महात्मा गौतम बुद्ध ने मध्यमार्ग से दुनिया को अवगत कराया था और आज दुनिया के तमाम विकसित राष्ट्रों में मध्यस्थता को कानूनी स्वरूप देकर इस्तेमाल किया जा रहा है ।  भारत में भी मध्यस्थता का इस्तेमाल बीते डेढ़ दशक से हो रहा है ।  सर्व्वोच्च न्यायालय के तत्कालीन मुख्य न्यायाधीश मार्कण्डेय काटजू ने ‘ मध्यस्थता ‘ को सबसे पहले महत्व दिया और उनके प्रयास से ही देश मद्रास,दिल्ली,इलाहबाद में सबसे पहले मध्यस्थता केंद्रों की स्थापना की गयी।

उच्च न्यायालयों में बड़ी संख्या में रिक्त पदों को भरना एक मुश्किल चुनौती हैं। इन पदों का भरने के लिए तेजी से कदम बढ़ाए गए हैं लेकिन  इन पदों को तेजी से तभी भरा जा सकता है जब की सरकार भी बराबरी से कदमताल करे ।सबको पता है कि भारत का न्यायिक तंत्र कई मुश्किल चुनौतियों का सामना कर रहा है। इनमें बुनियादी ढांचे, प्रशासनिक स्टाफ की कमी, जजों के बड़ी संख्या में रिक्त पद जैसी समस्याएं शामिल हैं। इससे निबटने के लिए मध्यस्थता के जरिये ही आम आदमी के साथ ही अदालतों को राहत दी जा सकती है।

मध्यस्थता विवादों को निबटने का एक सस्ता और सुरक्षित रास्ता है ।  इसमें पक्षकारों की सहमति अनिवार्य है ।  मध्यस्थता की सारी कार्रवाई गोपनीय होती है ।  कार्रवाई के दौरान किसी भी पक्ष को पीछे हटने की आजादी है ,मध्यस्थता में निर्णय नहीं समझौता होता है जिससे विवाद हमेशा के लिए समाप्त हो जाता है जबकि मुकदमेबाजी पीढ़ी दर पीढ़ी  चलती है। मध्यस्थता लोकअदालत नहीं है ।  लोक अदालत में मामलों का त्वरित निराकरण होता है जबकि मध्यस्थता में समझौता। यानि मध्यस्थता में कोई हारता नहीं है बल्कि दोनों पक्ष जीतते हैं,उनके संबंध मधुर बने रहते हैं,फिजूल खर्ची पर रोक लगती है।

चौंकाने वाली बात ये है कि आजादी के बाद पहली बार किसी एक साल में सबसे ज्यादा लंबित मामलों में बढ़ोतरी 2020-21 में हुई है। लंबित मामलों की संख्या में सर्वोच्च न्यायालय में 10.35 प्रतिशत, देश के विभिन्न् उच्च न्यायालयों में 20.4 प्रतिशत और जिला न्यायालयों में 18.4 प्रतिशत की बढ़ोतरी पिछले एक साल में हुई है। इसके पहले हमेशा यह 4 से 6 प्रतिशत के बीच रहती थी लेकिन महामारी की वजह से न्यायालयों में नियमित कामकाज नहीं हुआ। इसके चलते प्रकरणों का निराकरण नहीं हुआ और लंबित मामलों की संख्या बढ़ गई। 8 मई 2021 तक देश की अदालतों में कुल 3,84,05,718 यानी करीब चार करोड़ मुकदमे लंबित हैं।इस स्थिति का मुकाबला मध्यस्थता से ही किया जा सकता है।

मध्यस्थता हमारे समाज और संस्कृति का हिस्सा रही है। गौतम बुद्ध से पहले ‘महाभारत में भी मध्यस्थता का उल्लेख किया गया है ।  महाभारत में भगवान कृष्ण ने पांडवों और कौरवों के बीच मध्यस्थता का प्रयास किया था। मुख्य न्यायाधीश रमना कहते हैं कि ने  जहां तक संभव हो, महिलाओं को विवादों को सुलझाने के लिए मध्यस्थता करनी चाहिए। उन्होंने कहा कि हैदराबाद अंतरराष्ट्रीय मध्यस्थता केंद्र की स्थापना के लिए सही जगह है। देश में सर्वाधिक विवादास्पद अयोध्या-बाबरी विवाद को भी मध्यस्थता के जरिये निबटाने की कोशिश की गयी थी। मध्यस्थता से देश के अकेले लखनऊ जिले में एक दशक में एक लाख मामले सुलझाए गए।

मुख्यन्यायाधीश का सुझाव गंभीरता से लिया जाना चाहिए ,राज्य सरकारों की इस काम में महत्वपूर्ण भूमिका हो सकती है। सरकार और कर्मचायरियों तथा जनता के बीच असंख्य मुकदमे ऐसे हैं जो मध्यस्थत्ता से चुटकियों में सुलझाए जा सकते हैं। सिस्टम में मामूली सुधारकर भी विवादों की संख्या को कम किया जा सकता है। अभिभाषकों को भी मध्यस्थता के उपकरण का ज्यादा से ज्यादा इस्तेमाल करना होगा तभी अदालतें कामबाध के बोझ से बचाई जा सकेंग।

@ राकेश अचल

 

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