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भाजपा का नया गढ़ हरियाणा

अजय बोकिल

लोकसभा चुनाव के ठीक चार महीने बाद हुए हरियाणा और जम्मू कश्मीर विधानसभा चुनाव के नतीजों से कुछ संकेत साफ हैं। पहला तो यह देश में गुजरात, मध्यप्रदेश और गोवा के बाद हरियाणा ऐसा चौथा राज्य बन गया है, जहां भारतीय जनता पार्टी ( बीजेपी) लगातार तीसरी बार सत्ता में लौटी है। वह भी भारी बहुमत से। यानी उत्तर भारत में हरियाणा भाजपा का नया मजबूत किला बन गया है। नतीजों ने प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी की उस भविष्यवाणी को भी हकीकत में बदल किया कि हरियाणा में कांग्रेस का हश्र मध्यप्रदेश जैसा ही होगा। वैसा ही हुआ भी। दूसरे, लोस चुनाव के नतीजों से सबक लेकर भाजपा ने अपनी रणनीति में कई बदलाव किए, जिसमें टिकटों के बंटवारे से लेकर बाहरी नेताअों का समावेश और वोटों का प्रति जाट ध्रुवीकरण शामिल है। नतीजों ने यह भी साबित किया कि कांग्रेस और विपक्षी पार्टियों ने किसान, जवान और पहलवान का जो नरेटिव सेट किया था, वह सतही था। राज्य में अोबीसी जातियों का यह डर भाजपा के पक्ष में काम कर गया कि यदि कांग्रेस सत्ता में लौटी तो जाटों की दबंगई फिर शुरू हो जाएगी। इसी तरह जो दलित लोस चुनाव में कांग्रेस की तरफ बड़े पैमाने पर चले गए थे, वो इस बार बंट गए और फायदा भाजपा को मिला। यही स्थिति जाट वोटों की भी रही। इसके‍ विपरीत कांग्रेस की कोई सुस्पष्ट रणनीति नहीं दिखी, सिवाय इस भरोसे के कि जनता इस बार उसे जिताने के लिए तैयार बैठी है। दूसरे राज्य के प्रभावशाली और मुखर जाट समुदाय की नाराजी को जनता की नाराजी मान लेना भी गलती थी। कांग्रेस की दृष्टि से देखें तो लोकसभा चुनाव में संविधान और आरक्षण बचाने तथा जाति जनगणना का जो नरेटिव कुछ राज्यों में जबर्दस्त ढंग से काम कर गया था, वो इन विधानसभा चुनाव में फेल रहा। इन नतीजों का कांग्रेस के लिए सबक यह है कि अगर राज्यों में किसी एक नेता पर आंख मूंद कर भरोसा कर कमान उसके हाथ में देने और बाकी की उपेक्षा की जाए तो खेल बिगड़ जाता है। यह हम इसके पहले मध्यप्रदेश, राजस्थान और छत्तीसगढ़ विधानसभा चुनावों में देख चुके हैं, जहां पार्टी ने क्रमश: कमलनाथ, अशोक गहलोत और भूपेश बघेल पर असंदिग्ध भरोसा किया और हाथ आती सत्ता फिसल गई। इन परिणामों का कांग्रेस और खासकर राहुल गांधी के लिए बड़ा सबक यह है कि जब तक वो संगठन को ऊपर से नीचे तक नहीं कसेंगे, उसमें लडाकू तेवर पैदा नहीं करेंगे, तब तक छुटपुट सफलताअों से ज्यादा हासिल कुछ नहीं होगा। मोदी और भाजपा को हिलाना इतना आसान नहीं है। लोस में भाजपा दवारा संविधान बदलने और आरक्षण खत्म करने वाला दांव विधानसभा चुनावों में इस नहीं चल पाया, क्योंकि वो नरेटिव एक आशंका पर ज्यादा आधारित था। हकीकत में वैसा कुछ हुआ नहीं और शायद होगा भी नहीं।

हरियाणा विस चुनाव के नतीजे काफी कुछ 2023 में हुए मप्र विस चुनाव से ‍िमलते हैं। मप्र में भी कांग्रेस माने बैठी थी कि जनता उसे ही जिताने वाली है। यहां तक कि जीतने के बाद कौन क्या बनेगा, यह भी एडवांस में तय हो गया था। पोस्टल बैलेट की गिनती में कांग्रेस की बढ़त को पार्टी ने कुछ देर के लिए पूरा सच मान लिया। जबकि भाजपा ने बूथ मैनेजमेंट, लाडली बहना योजना और अपनी सफल चुनावी रणनीति से कांग्रेस के अरमानों पर पानी फेर दिया। कुछ ऐसा ही हरियाणा में होता दिख रहा है। भाजपा सरकार के प्रति 10 साल की एंटी इनकम्बेंसी के बावजूद लोस चुनाव से पहले अोबीसी नायब सिंह सैनी को सीएम बनाकर पार्टी ने जहां लोस चुनाव में हुए राजनीतिक नुकसान को कम किया, वहीं विधानसभा चुनाव के लिए जमीन तैयार कर दी। खास बात यह है कि हरियाणा में विस चुनाव के पहले भाजपा ने ऐसी कोई बड़ी रेवड़ी भी नहीं बांटी, जैसे कि मप्र में बांटी थी। भाजपा की रणनीति साफ थी कि प्रभावशाली जाट वोटों का बंटवारा करो और एंटी जाट वोटों को भाजपा के पक्ष में गोलबंद करो। वही होता दिख भी रहा है। पार्टी ने न केवल अपना वोट बैंक बचाया बल्कि उस जाट लैंड में भी सेंध लगा दी, जहां से कांग्रेस बंपर समर्थन की उम्मीद लगाए हुए थी। हरियाणा के यादव बहुल अहीरवाल अंचल में भाजपा की भारी जीत के पीछे भाजपा द्वारा मप्र में एक यादव डाॅ. मोहन यादव को मुख्‍यमंत्री बनाना भी बड़ा कारण हो सकता है। दूसरी तरफ कांग्रेस ने बेरोजगारी, किसान आंदोलन, अग्निवीर जैसे मुद्दे जोर शोर से उठाए, लेकिन मतदाताअों ने उन्हें खास तवज्जो नहीं दी। इसका एक कारण यह भी हो सकता है कि वोटर इन मुद्दों पर अपनी राय लोस चुनाव में पहले ही व्यक्त कर चुका था। अति आत्मविश्वास भी कांग्रेस को ले डूबा। हालांकि यह कहना कठिन है कि अगर वो दूसरी जाट पार्टियों और आप के साथ गठबंधन करती तो नतीजे बदल सकते थे। लेकिन चुनाव के दौरान दलित नेता कुमारी सैलजा की नाराजी कांग्रेस को डुबो गई। हालांकि बाद में राहुल गांधी ने सैलजा को मनाया, लेकिन तब तक देर हो चुकी थी। सत्ता पाने से ही सीएम पद की लड़ाई का जनता में गलत संदेश गया। वैसे यह लड़ाई भाजपा में भी दिखी। वहां अनिल विज ने सीएम पद की दावेदारी ठोक दी थी, लेकिन उसे किसी ने गंभीरता से नहीं लिया। यह तय है ‍कि सीएम का ताज नायब सिंह सैनी को मिलेगा। यानी मप्र की तर्ज पर भाजपा हरियाणा में फिर अोबीसी कार्ड ही खेलेगी।

उधर जम्मू-कश्मीर में भाजपा का सरकार बनाने का सपना दूर की कौड़ी ही था। वहां चुनाव जीतते ही सत्ता में आ रहे नेशनल कांफ्रेंस कांग्रेस गठबंधन के नेता फारूख अब्दुल्ला ने कहा कि यह जनादेश राज्य से धारा 370 व 35 ए हटाने और भाजपा के खिलाफ है। इससे स्पष्ट हो गया कि जम्मू कश्मीर में आगे भी टकराव की राजनीति होने वाली है। इस मामले में कांग्रेस दुविधा में रहेगी, क्योंकि वह जम्मू कश्मीर से धारा 370 हटाने के मुद्दे पर चुप है, लेकिन प्रदेश को पूर्ण राज्य का दर्जा दिए जाने की हामी है। दरअसल बीजेपी प्रदेश में शांति, अमन, पर्यटन को बढ़ावा जैसे मुद्दों पर घाटी में भी समर्थन की उम्मीद कर रही थी, लेकिन वैसा नहीं हुआ। मुसलमानों में भाजपा के प्रति जो नाराजी है, वह खत्म नहीं हुई है। अलबत्ता 2014 के विधानसभा चुनाव की तुलना में राज्य में बीजेपी की सीटें और वोट दोनो बढ़े हैं। लेकिन बीजेपी के साथ कभी सरकार बनाने वाली महबूबा मुफ्‍ती की पार्टी पीडीपी का सफाया और भाजपा ने घाटी में निर्दलियों के समर्थन से सरकार बना सकने की संभावना पर नतीजो ने पानी फेर दिया है। अच्छी बात यह है कि जम्मू-कश्मीर के मतदाताअो ने अलगाववादी निर्दलीयों और अन्य पार्टियों को चुनने की जगह नेकां-कांग्रेस गठबंधन को समर्थन दिया। जिससे सरकार पांच साल तक चलने की उम्मीद ज्यादा है। धारा 370 हटाने की मांग नेकां के घोषणा पत्र में जरूर है, लेकिन उसे भी पता है कि यह अब व्यावहारिक नहीं है। लिहाजा उसका जोर पूर्ण राज्य के दर्जे पर ही ज्यादा रहेगा। वैसे भी केन्द्र की मदद के बगैर जम्मू- कश्मीर में सरकार चलाना नामुमकिन है। हालांकि वहां भाजपा के सरकार न बना पाने से यह संदेश दुनिया में जरूर गया है कि राज्य के लोग अभी भी धारा 370 हटाने से खुश नहीं हैं और इसके अलग-अलग कारण हैं। अलबत्ता सकारात्मक संदेश यह है कि आंतकवाद से प्रभावित इस राज्य में चुनाव निष्पक्ष तरीके से हए हैं और लोकतंत्र मजबूत हआ है। अहम बात यह है कि जो तत्व कभी भारतीय संविधान और चुनावों को ही नकारते थे, वो मजबूरी में ही सही पर लोकतांत्रिक प्रक्रिया में लौट रहे हैं। एक बात साफ है कि राज्य में जो संवैधानिक बदलाव किए गए हैं, उसका राजनीतिक और सामाजिक असर भी हमे जल्द दिखाई देगा। इस बात की संभावना कम है कि जम्मू कश्मीर की अवाम आए दिन आंतकी हमलों, पत्थरबाजी और बंद के दौर में लौटना चाहेगी।

इन नतीजों ने एग्जिट पोल की विश्वसनीयता पर फिर प्रश्न चिन्ह लगा दिया है। जम्मू कश्मीर में तो नतीजों सर्वे के हिसाब से आए हैं, लेकिन ‍हरियाणा में तमाम सर्वे फेल हुए हैं। राजनेताअों को भी समझ आ गया है कि सर्वे के आधार पर मन में लड्ड़ू भले फूट रहे हों, लेकिन हकीकत में पूरे नतीजे आने के बाद ही लड्डू खाना और बांटना चाहिए।

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